बुंदेल केसरी छत्रसाल सुरेन्द्र अग्निहोत्री
वीर बुन्देला महाराजा छत्रसाल ने अपने ८२ वर्ष में जीवन और ४४ वर्षीय राज्य काल में ५२ युद्ध लड़कर मुगलों तथा उनके सहयोगियों को बुन्देली धरा पर तिरछी नजर से देखने नहीं दिया। शौर्य के निर्विवाद स्वरूप छत्रसाल का भारतीय इतिहासकारों ने सही ढंग से मूल्याकंन नही किया है। रणभूमि में जन्म लेने वाले छत्रसाल को उत्तराधिकार में राज्य नही शत्रु और संघर्ष मिले अपने शौर्य और सृजन के बुन्देखण्ड राज्य को आकार दिया। ‘‘इत जमना उत नर्मदा इत चंबल उत टोंस। छत्रसाल से लरन की रही न काह होंस।’’
बचपन और शिक्षा छत्रसाल का जन्म उनकी प्राप्त कुण्डली एवं बुन्देलखण्ड में प्रचलित कथा मिम्बदन्तियों के अनुसार सम्वत १७०६ ज्येष्ठ सुदी तीज दिन शुक्रवार ठहरता है। इस तिथि की गणनानुसार छत्रसाल की जन्म तिथि स्व्रोष्टाब्द १६४९ की चार मई दिन शुक्रवार है। बोर छत्रसाल का जन्म जिस समय मोर पहाड़ी पर हुआ उस समय उनके पिता चमपतराय की मुगलों के साथ घमासान लड़ाई चल रही थी। एक ओर वीरों की तलवारें शत्रुओं के रक्त का छक कर पान कर रही थी, चम्पतराय शत्रु सेना के हौसले पस्त कर रहे थे तो दूसरी ओर हिन्दू कुल भूषण वीर छत्रसाल का जन्म हुआ था।
पांच वर्ष में ही इन्हें युद्ध कौशल की शिक्षा हेतु अपने मामा साहेबसिंह धंधेर के पास देलवारा (ललितपुर) भेज दिया गया था। माता-पिता के निधन के कुछ समय पश्चात ही वे बड़े भाई अंगद राय के साथ देवगढ़ चले गये। बाद में अपने पिता के वचन को पूरा करने के लिए छत्रसाल ने पंवार वंश की कन्या देवकुंअरि से विवाह किया।
जिसने आंख खोलते ही सत्ता संपन्न दुश्मनों के कारण अपनी पारंपरिक जागीर छिनी पायी हो, निकटतम स्वजनों के विश्वासघात के कारण जिसके बहादुर मां-बाप ने आत्महत्या की हो, जिसके पास कोई सैन्य बल अथवा धनबल भी न हो, ऐसे १२-१३ वर्षीय बालक की मनोदशा की क्या आप कल्पना कर सकते हैं? परंतु उसके पास था बुंदेली शौर्य का संस्कार, बहादुर मां-माप का अदम्य साहस और ‘वीर वसुंधरा’ की गहरा आत्मविश्वास। इसलिए वह टूटा नहीं, डूबा नहीं, आत्मघात नहीं किया वरन् एक रास्ता निकाला। उसने अपने भाई के साथ पिता के दोस्त राजा जयसिंह के पास पहुंचकर सेना में भरती होकर आधुनिक सैन्य प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया।
पहला युद्ध मुगलों की और से
राजा जयसिंह तो दिल्ली सल्तनत के लिए कार्य कर रहे थे अतः औंरगजेब ने जब उन्हें दक्षिण विजय का कार्य सौंपा तो छत्रसाल को इसी युद्ध में अपनी बहादुरी दिखाने का पहला अवसर मिला। मई १६६५ में बीजापुर युद्ध में असाधारण वीरता छत्रसाल ने दिखायी और देवगढ़ (छिंदवाड़ा) के गोंडा राजा को पराजित करने में तो छत्रसाल ने जी-जान लगा कर राजा कूरमकल्ल को आत्म समर्पण के लिए विवश कर दिया। छत्रसाल की वीरता का वर्णन ‘छत्रप्रकाश’ में इस प्रकार किया हैः- सिंह नाद गलगर्जि कै, भंज उठ्यो भट भीर। छत्ता वीर उमंग में, गनै न गोली तीर।। गनै न गोली तीर छतारौ। देखत देव अचम्भों भारौ।। एक वीर सहसन पर धावै। हाथ और को उठन न पावै।। सांगनि मारि घन-घानी। अमर भूमि शोणित सों सानी।। नची छता की जोर कृपानी। उमगी किलकि कालिका रानी।। विजयश्री का सेहरा उनके सिर पर न बाँध मुगल भाई-भतीजेवाद में बँट गया तो छत्रसाल का स्वाभिमान आहत हुआ और उन्होंने मुगलों की बदनीयती समझ दिल्ली सल्तनत की सेना छोड़ दी।
शिवाजी से मित्रता इन दिनों राष्ट्रीयता के आकाश पर छत्रपति का सितारा चमचमा रहा था। छत्रसाल दुखी तो थे ही, उन्होंने शिवाजी से मिलना ही इन परिस्थितियों में उचित समझा और सन १६६८ में दोनों राष्ट्रवीरों की जब भेंट हुई तो शिवाजी ने छत्रसाल को उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियेां का आभास कराते हुए स्वतंत्र राज्य स्थापना की मंत्रणा दी एवं समर्थ गुरु रामदास के आशीषों सहित ‘भवानी’ तलवार भेंट की- करो देस के राज छतारे हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे। दौर देस मुगलन को मारो दपटि दिली के दल संहारो। तुम हो महावीर मरदाने करि हो भूमि भोग हम जाने। जो इतही तुमको हम राखें तो सब सुयस हमारे भाषें।
शिवाजी से स्वराज का मंत्र लेकर सन १६७० में छत्रसाल वापस अपनी मातृभूमि लौट आयी परंतु तत्कालीन बुंदेल भूमि की स्थितियाँ बिलकुल मिन्न थीं। अधिकाश रियासतदार मुगलों के मनसबदार थे, छत्रसाल के भाई-बंधु भी दिल्ली से भिड़ने को तैयार नहीं थे। स्वयं उनके हाथ में धन-संपत्ति कुछ था नहीं। दतिया नरेश शुभकरण ने छत्रसाल का सम्मान तो किया पर बादशाह से बैर न करने की ही सलाह दी। ओरछेश सुजान सिंह ने अभिषेक तो किया पर संघर्ष से अलग रहे। छत्रसाल के बड़े भाई रतनशाह ने साथ देना स्वीकार नहीं किया तब छत्रसाल ने राजाओं के बजाय जनोन्मुखी होकर अपना कार्य प्रारंभ किया। कहते हैं उनके बचपन के साथी महाबली तेली ने उनकी धरोहर, थोड़ी-सी पैत्रिक संपत्ति के रूप में वापस की जिससे छत्रसाल ने ५ घुड़सवार और २५ पैदलों की छोटी-सी सेना तैयार कर ज्येष्ठ सुदी पंचमी रविवार वि.सं. १७२८ (सन १६७१) के शुभ मुहूर्त में शहंशाह आलम औरंगजेब के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल बजाते हुए स्वराज्य स्थापना का बीड़ा उठाया।
एकता का प्रारंभ
बुन्देल केसरी छत्रसाल की सेना में राजे रजवाड़े नहीं थे उन्होंने भारतीय धरा पर सर्वसमाज की भागीदारी को रणभूमि में सम्मान दिलाने के लिये अपनी सेना गठन सर्वसमाज के लोगों को शामिल करके किया था। उनकी सेना आदिवासी, निषाद, तेली, मुशलमान, मनिहार, वैश्य आदि जातियॉ शामिल थी जिस समय सेना में छत्रसाल भर्ती कर रहे थे उस समय उनकी आयू केवल २२ वर्ष की थी। आरम्भ में उनके साथ पॉच घुड़सवार और २५ प्यादे थे सेना संगठन के कार्य में छत्रसाल ने अपने पिता के पुराने मित्रों और संगी-साथियों का अच्छा सहयोग पाया। गोविन्दराय जैतपुर वाले, कुवंर नारायणदास, सुन्दरमन परमार, राममन दौआ, मेघराज परिहार, धुरमंगद बख्शी, किशोरीलाल, लच्छे रावत, मानशाह, हरवंश, विरूदगान से प्राप्त बख्शीषों से पला हुआ भानुभाट, पंबल कहार, फत्ते वैश्य और फौजे मिया ने छत्रसाल को सेना खड़ी करने में पूरी सहायता दी। छत्रसाल ने हिन्दू समाज के प्रत्येक वर्ण से अपनी सेना के लिए प्रतिनिधि चुने थे। वे जानते थे कि जब तक समाज के प्रत्येक वर्ग के भीतर वीरता नहीं जगेगी तब तक समाज खड़ा नहीं होगा। विशेषकर समाज के उपेक्षित वर्ग का उन्होंने अपनी सेना के लिए अच्छा उपयोग किया।
संवत् सत्रह् सौ लिखे, आठ आगरे बीस। लगत बरस बाईसई, उमडि चल्यो अवनीश।। कीनै सुभट खरच दै ताजे। पांच तुरन्त संग के साजे।। प्रथम भले भाई डर आनै। अच्छी मृग छौना मरदाने।। और भभूसा दामिनी घोरी। जुरै न जोर पौन गति थोरी।। ये सब सुभट संग के जानौ। कुंवर नरायण दास बखानौ।। गोविन्दराय जैतपुर बारे। सुन्दरमन पमार अनियारे। दलसिंगार राममनि दौआ। मेघराज परिहार अगोआ। धुरमंगद बसगी मरदानी। खागरूखरो किसोरी जानौ।। प्रबल मिश्र दलसाह ज्यों त्यों हरकृष्ण प्रशंस। लच्छे राउत राममनि मानशाह हरवंश।। मेघी अरु परदौन दयाले। भानुभाट बगसीसनिपाले।। फौजे मियाँ समर अति सूरो। लौह लराक सिरोमनि पूरो।। पंबल ढीमर, खरगे बारी। मोदी पतै सबै हितकारी।। पांच सवार पचीस पियादे। विरचै विकट सहज में सादे।।
छत्रसाल की विजय यात्रा छत्रसाल का पहला आक्रमण हुआ अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात करने वाले सेहरा के धंधेरों पर। मुगल मातहत कुंअरसिंह को ही कैद नहीं किया गया बल्कि उसकी मदद को आये हाशिम खां की धुनाई की गयी और सिरोंज एवं तिबरा लूट डाले गये। लूट की सारी संपत्ति छत्रसाल ने अपने सैनिकों में बाँटकर पूरे क्षेत्र के लोगों को उनकी सेना में सम्मिलित होने के लिए आकर्षित किया। कुछ ही समय में छत्रसाल की सेना में भारी वृद्धि होने लगी और उन्हेांने धमोनी, मेहर, बाँसा और पवाया आदि जीतकर कब्जे में कर लिए। ग्वालियर-खजाना लूटकर सूबेदार मुनव्वर खां की सेना को पराजित किया, बाद में नरवर भी जीता। सन १६७१ में ही कुलगुरु नरहरि दास ने भी विजय का आशीष छत्रसाल को दिया।
ग्वालियर की लूट से छत्रसाल को सवा करोड़ रुपये प्राप्त हुए पर औरंगजेब इससे छत्रसाल पर टूट-सा पड़ा। उसने सेनपति रणदूल्हा के नेतृत्व में आठ सवारों सहित तीस हजारी सेना भेजकर गढ़ाकोटा के पास छत्रसाल पर धावा बोल दिया। घमासान युद्ध हुआ पर दणदूल्हा (रुहल्ला खां) न केवल पराजित हुआ वरन भरपूर युद्ध सामग्री छोड़कर जन बचाकर उसे भागना पड़ा। इस विजय से छत्रसाल के हौसले काफी बुलंद हो गये। सन १६७१-८० की अवधि में छत्रसाल ने चित्रकूट से लेकर ग्वालियर तक और कालपी से गढ़ाकोटा तक प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
सन १६७५ में छत्रसाल की भेंट प्रणामी पंथ के प्रणेता संत प्राणनाथ से हुई जिन्होंने छत्रसाल को आशीर्वाद दिया- छत्ता तोरे राज में धक धक धरती होय जित जित घोड़ा मुख करे तित तित फत्ते होय।
बुंदेले राज्य की स्थापना
इसी अवधि में छत्रसाल ने पन्ना के गौड़ राजा को हराकर, उसे अपनी राजधानी बनाया। ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत १७४४ की गोधूलि बेला में स्वामी प्राणनाथ ने विधिवत छत्रसाल का पन्ना में राज्यभिषेक किया। विजय यात्रा के दूसरे सोपान में छत्रसाल ने अपनी रणपताका लहराते हुए सागर, दमोह, एरछ, जलापुर, मोदेहा, भुस्करा, महोबा, राठ, पनवाड़ी, अजनेर, कालपी और विदिशा का किला जीत डाला। आतंक के मारे अनेक मुगल फौजदार स्वयं ही छत्रसाल को चौथ देने लगे।
महाराज छत्रसाल पर इलाहाबाद के नवाब मुहम्मद बंगस का ऐतिहासिक आक्रमण हुआ। इस समय छत्रसाल लगभग ८० वर्ष के वृद्ध हो चले थे और उनके दोनों पुत्रों में अनबन थी। जैतपुर में छत्रसाल पराजित हो रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में उन्हेांने बाजीराव पेशवा को पुराना संदर्भ देते हुए सौ छंदों का एक काव्यात्मक पत्र भेजा जिसकी दो पंक्तियाँ थीं
जो गति गज और ग्राह की सो गति भई है आज बाजी जात बुंदेल की राखौ बाजी लाज।
फलतः बाजीराव की सेना आने पर बंगश की पराजय ही नहीं हुई वरन उसे प्राण बचाकर अपमानित हो, भागना पड़ा। छत्रसाल युद्ध में टूट चले थे, लेकिन मराठों के सहयोग से उन्हेांने कलंक का टीका सम्मान से पोंछ डाला। राजा के कर्तव्य का बोध अपने काव्य में कुछ इस प्रकार किया रैयतसब राजी रहे ताजी रहै सिपाही। छत्रसाल तेहिं भूप को बाल न बाँको जाहि।। छत्रसाल राजान को वर्जित सदा अनीति।। द्विरद दंत की रीति सों करत न रैयत प्रीति।। छत्रसाल नृप तेज तै दुष्ट प्रभाव न होय। जिमि रवि उड्गन निसिकरहु करत दौनछावि सोय।। माली के सम नृप छता सो सम्पत्ति सुख लेय। उत खादहि रोपहिं थलहिं लघुहि बडो करि देय।। लघुहिं बड़ो करि देय लेय फूले फल पाके। फूटे देय निकारि मिले फूटे बहुधा के।। नत उत्तर करि देहि उन्नत कहं खाली। कंटक दुद्र निकासि और सब सोचरि माली।। अपनो मन भायों किये गहि गोरी सुलतान। सात बार छोड़ो नृपति कुमति करी चहुवान।। कुमति करी चहुवान तांह निन्दहिं सब कोऊ। असुर बैर इक बार धरि! काढ़े दृग दोऊ।। दोऊ दीन को बैर आदि आन्तहि चलि आयो। कहि नृप छता विचरि कियो अग्नो मन भाया।।
साहित्य के प्रति आदर
छत्रसाल कवियों को कितना आदर देते थे इस विषय में बुन्देलखण्ड में एक अनश्रुति प्रचलित है। कहते है कि भूषण के विषय में छत्रसाल ने बाहुत सुन रखा था अतः एक बार आदर के साथ उन्हें आमंत्रित किया वे अपने पौत्र के साथ जब पन्न आए तो महराजा अपने समस्त दरबारी कवियों के साथ भूषण की आगवानी करने पहुॅचे। कविर भूषण का पौत्र एक घोड़े पर बैंठा हुआ आगे-आगे चल रहा था और भूषण जी एक पालकी पर पीछे पीछे चल रहे थे। जब दोनों दल एक दूसरे के समीप आए तो महाराजा छत्रसाल अपने हाथी से उतर पड़े और भूषण के पौत्र को अपने हाथी पर बिठा दिया तथा स्वयं महाकवि को पालकी में कन्धा लगा कर खड़े हो गए। इस आसाधरण सम्मान की भूषण को कल्पना भी नहीं थी। छत्रसाल को वीरता से वे परिचित थे परन्तु जब एक कवि के प्रति उनका सम्मान देखा तो वे भावविभोर हो उठे। कहते हैं कि पालकी से एकदम कूद पड़े। एक यशस्वी विजेता जनप्रिय महाराजा उन्हें अपने कन्धों पर ढोए यह भूषण कैसे सहन करते? छत्रसाल शिवाजी महाराज के अनुवर्ती है; यह बात भी भूषण जानते थे। अपनी पालकी से कूदते ही भाव किभोर हो कहने लगेः- नाती को हाथी दिया जापै ढुरकत टाल! साहू के जब कलस पर धुजा बंधी छत्रसाल राजत अखण्ड तेज छग्जत सुजस बड़ो, गाजत गयंद दिग्गजन हिय साल को। जाहि के प्रताप से मलीन आफताब होत, ताप तजि दुजन करत बहु ख्याल को।। साज सजि गज तुरी पैदरि कतार दीन्हें, भूषन भनत ऐसो दीन प्रतिपाल को? और राव राजा एक चिन्त में न ल्याऊँ अब, साहू को खराहौं कि सराहौं छत्रसाल कों।।
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