गंगावतरण – भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण कथा
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उनके राज्य में एक बार बारह वर्ष तक अकाल पड़ा। भयंकर सूखा और गरमी के कारण हाहाकार मच गया। तब राजा सगर से यज्ञ करने को कहा गया एक उद्देश्य से एकजुट होना ही यज्ञ है। राजा सगर ने सौवें यज्ञ का घोड़ा छोड़ा। वह एक स्थान पर एकाएक लुप्त हो गया। जब हताश हो लोग राजा के पास आए तो उसने उसी स्थान के पास खोदने की आज्ञा दी। प्रजाजनों ने वहॉं खोदना प्रारंभ किया। पर न कहीं अश्व मिला, न जल निकला। खोदते हुए वे पूर्व दिशा में कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे। कपिल मुनि सांख्य दर्शन के प्रणेता और भगवान् के अंशावतार माने गए हैं। ऐसा उनके दर्शन का माहात्म्य है। उन्हीं के आश्रम में कपिला गाय कामधेनु थी, जो मनचाही वस्तु प्रदान कर सकती थी। वहीं पर वह यज्ञ का अश्व बँधा दिखा। तब लोग बिना सोचे-समझे कि किसने बॉंधा, कपिल मुनि को ‘चोर’ आदि शब्दों से संबोधित कर तिरस्कृत करने लगे। मुनि की समाधि भंग हो गई और लोग उनकी दृष्टि से भस्म हो गए।
संगम- प्रयाग से सूर्यास्त
राजा सगर की आज्ञा से उनका पौत्र अंशुमान घोड़ा ढूँढ़ने निकला और खोजते हुए प्रदेश के किनारे चलकर कपिल मुनि के आश्रम में साठ हजार प्रजाजनों की भस्म के पास घोड़े को देखा। अंशुमान की स्तुति से कपिल मुनि ने वह यज्ञ-पशु उसे दे दिया, जिससे सगर के यज्ञ की शेष क्रिया पूर्ण हुई। कपिल मुनि ने कहा,
‘स्वर्ग की गंगा यहॉं आएगी तब भस्म हुए साठ हजार लोग तरेंगे।‘
तब अंशुमान ने स्वर्ग की गंगा को भरतभूमि में लाने की कामना से घोर तपस्या की। उनका और उनके पुत्र दिलीप का संपूर्ण जीवन इसमें लग गया, पर सफलता न मिली। तब दिलीप के पुत्ररू भगीरथ ने यह बीड़ा उठाया।
यह हिमालय पर्वत (कैलास) शिव का निवास है, और मानो शिव का फैला जटाजूट उसकी पर्वत-श्रेणियॉं हैं। त्रिविष्टप ( आधुनिक तिब्बत) को उस समय स्वर्ग, अपवर्ग आदि नामों से पुकारते थे। उनके बीच है मानसरोवर झील, जिसकी यात्रा महाभारत काल में पांडवों ने सशरीर स्वर्गारोहण के लिए की। इस झील से प्रत्यक्ष तीन नदियॉं निकलती हैं। ब्रम्हपुत्र पूर्व की ओर बहती है, सिंधु उत्तर-पश्चिम और सतलुज (शतद्रु) दक्षिण-पश्चिम की ओर। यह स्वर्ग का जल उत्तराखंड की प्यासी धरती को देना अभियंत्रण (इंजीनियरी) का अभूतपूर्व कमाल होना था। इसके लिए पूर्व की अलकनंदा की घाटी अपर्याप्त थी।
यह साहसिक कार्य अंशुमान के पौत्र भगीरथ के समय में पूर्ण हुआ, जब हिमालय के गर्भ से होता हुआ मानसरोवर (स्वर्ग) का जल गोमुख से फूट निकला। गंगोत्री के प्रपात द्वारा भागीरथी एक गहरे खड्ड में बहती है, जिसके दोनों ओर सीधी दीवार सरीखी चट्टानें खड़ी हैं। किंवदंती है कि गंगा का वेग शिव की जटाजूट ने सँभाला। गंगा उसमें खो गई, उसका प्रवाह कम हो गया। जब वहॉं से समतल भूमि पर निकली तो भगीरथ आगे-आगे चले। गंगा उनके दिखाए मार्ग से उनके पीछे चलीं। आज भी गंगा को प्रयाग तक देखो तो उसके तट पर कोई बड़े कगार न मिलेंगे। मानो यह मनुष्य निर्मित नगर है। ऐसा उसका मार्ग यम की पुत्री यमुना की नील, गहरे कगारों के बीच बहती धारा से वैषम्य उपस्थित करता है। प्रयाग में यमुना से मिलकर गंगा की धारा अंत में गंगासागर ( महोदधि) में मिल गई। राजा सगर का स्वप्न साकार हुआ। उनके द्वारा खुदवाया गया ‘सागर’ भर गया और उत्तरी भारत में पुन: खुशहाली आई। आज का भारत गंगा की देन है।
पूर्वजों द्वारा लाई गई यह नदी पावन है। इसे ‘गंगा मैया’ कहकर पुकारा जाता है। इसके जल को बहुत दिनों तक रखने के बाद भी उसमें कीड़े नहीं पड़ते । संभवतया हिमालय के गर्भ, जहॉं से होकर गंगा का जल आता है, की रेडियो-धर्मिता के कारण ऐसा होता है। प्राचीन काल में, इसकी धारा अपवित्र न हो, इसका बड़ा ध्यान रखा जाता था। बढ़ती जनसंख्या और अनास्था के कारण इसमें कमी आई होगी। पर गंगा की धारा भारतीय भारतीय संस्कृति की प्रतीक बनी। कवि ने गाया –
‘यह कल-कल छल-छल बहती क्या कहती गंगा-धारा, युग-युग से बहता आता यह पुण्य प्रवाह हमारा।‘