2050 : क्या भारत भूखी सुपर पॉवर बनेगा
राजीव उपाध्याय
आशा है की सन २०५० तक बढती हुयी जनसंख्या व् समृद्धि के कारण भारत की खाद्यानों की आवश्यकता दुगनी हो जायेगी. परन्तु विगत दस पंद्रह वर्षों से हमारा गेहूं का उत्पादन मात्र एक प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा है . यही हाल चावल का है . नीचे दिए हुए ग्राफ से यह साफ़ हो जाता है की पिछले दो दशकों से गेहूं व् चावल के उत्पादन वृद्धि की दर जनसंख्या की वृद्धि की दर से कम है .इसी के कारण हाल ही मैं २००७-८ मैं तो हमें गेहूं का आयात करना पडा था . अभी हम दस मिलियन टन चावल निर्यात कर रहे हैं पर यह देश की खाद्यान्न आवश्यकता का मात्र चार प्रतिशत है .यदि दो वर्ष भी बारिश बहुत कम हो गयी तो हमारे सारे खाद्यान्न व् विदेशी मुद्रा के भण्डार ख़त्म हो जायेंगे . वैसे भी स्वतन्त्रता के बाद से हालाँकि हम खाद्यान के उत्पादन मैं आत्म निर्भर अवश्य हुए हैं पर गरीब को पहले से कम ही भोजन मिल रहा है . हमारा प्रति पुरुष की प्रतिदिन उपलब्ध खाद्यान की मात्रा सन १९९० के ४८० ग्राम के मुकाबले अब मात्र ४३२ ग्राम ही रह गयी है . आज भी हर तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है . हरित क्रांति अब समाप्त हो चुकी है . खेती की जमीन अब और नहीं बढ़ सकती. सिंचाई बढ़ने के सस्ते तरीके अब समाप्त हो चुके हैं .जैसा की साफ़ दीख रहा है कि यदि कोई नयी तकनीक नहीं आई तो भविष्य मैं देश मैं कृषि उत्पाद की विशेषतः गेहूं व् चावल की बहुत कमी होने वाली है. वैश्विक मौसम के परिवर्तन का भी हमारी खाद्य सुरक्षा पर और भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है .
लगता तो यह है की इस रफ़्तार पर सन २०५० मैं हम एक भूखी सुपर पॉवर ही बनेगे जो शायद अपने हथियार गिरवी रख अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार मैं गेहूं व् चावल खरीदती मिलेगी .
कॉर्पोरेट जगत व् विदेशियों की हाथ गिरवी हुए , देश की जनता को सनसनी की अफीम रोज़ खिलने वाला मीडिया व् टीवी चैनलों ने, देश मैं गंभीर समस्यायों पर स्वस्थ चिंतन की प्रथा ही ख़त्म कर दी. अन्यथा हमारी बहुत घटी हुयी कृषि के विकास की दर पर सब को चिंतित होना चाहिए था. महाराष्ट्र मैं २००० करोड़ रूपये खर्च कर सिंचाई की जमीन मैं वृद्धी कहाँ हुयी किसी ने नहीं बताया. घटती कृषि विकास दर के बजाय क्रिकेट के श्रीनिवासन ही टीवी पर देश की सबसे प्रमुख समस्या बन गए लगते हैं .
कृषि की समस्या इसलिए अधिक गंभीर है की इसका कोई आसान या जल्दी समाधान नहीं हो सकता . इसके समाधान मैं पंद्रह वर्ष लग जायेंगे व् अत्यधिक धन खर्च होगा . इस लिए अभी से गंभीर चिंतन की आवश्यकता है .देश मैं पानी की कमी की विकट समस्या भी आने वाली है . पंजाब व् हरयाणा मैं ट्यूब वेल के लिए पानी कम होता जा रहा है व् जमीन के नीचे जल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है . हम तब भी ट्यूब वेल से मात्र लालच मैं अनावश्यक चावल पैदा कर निर्यात कर रहे हैं जिसमें बहुत पानी लगता है . एक किलो चावल पैदा करने मैं लगभग ५००० लीटर पानी की आवश्यकता होती है जबकि एक किलो गेहूं मैं मात्र २५०० लीटर की .फूल उगाने मैं कपास उगाने से बीस गुनी पानी की आवश्यता होती है . हम प्रति वर्ष २०० क्यूबिक किलो मीटर पानी जमीन से निकाल रहे हैं पर इसका शायद एक चौथाई भी जमीन मैं वापिस नहीं जा रहा . पाकिस्तान ने ऐसी भारी पानी की फसलों पर कई इलाकों मैं रोक लगा दी है पर हमारी जन्तान्त्रिक सरकारें यह नहीं कर सकतीं . देश मैं नहरों की सिंचाई बढ़ने के लिए संसाधनों की कमी प्रतीत होती है . जहाँ नहर हैं भी जैसे सतलुज – यमुना नहर मैं हम पानी नहीं दे पा रहे हैं . यही हाल उत्तर प्रदेश की राय बरेली की शारदा नहर का है . नहर तो बन गयी पर उसमें छोड़ने के लिए पानी की कमी है . सरकार को ‘ड्रिप इरीगेशन’ को सरकारी अनुदान से प्रोत्साहित करना होगा क्योंकि इससे बहुत कम पानी मैं खेती हो सकती है .
पानी के अलावा एक और समस्या है हमारी कृषि की उत्पादकता बहुत कम है .बिहार मैं गेहूं की उत्पादकता पंजाब से आधी भी नहीं है. जो खाद्यान पैदा भी होते हैं उन्हें भण्डार मैं रखने मैं बर्बादी बहुत होती है . यही हल फल व् सब्जियों का ही है .पर उसे रोकने के लिए उन्नत गोदाम व् कोल्ड स्टोर चाहिए . उनके किये पैसा और बिजली चाहिए .
क्योंकि समस्या अत्यंत जटिल है और उसमें किसी पार्टी को चन्दा या वोट नहीं दीखते इसलिए कोई उसके समाधान के प्रति समर्पित नहीं है . मीडिया व् कॉर्पोरेट लॉबी एक खतरनाक भ्रम फैला रही है . वह कह रही है की औद्योगिक उत्पादन बढाओ खाद्यान हम आयात कर लेंगे . यह देश की सुरक्षा के लिए घातक है . इतिहास मैं दुर्गों को घेर कर अनाज की कमी करने के बहुत उदाहरण हैं . कोई भी शत्रु हमारे जहाजों को डुबो कर हमें भूखा मार सकता है . पर खेतों को बम से नहीं उदा सकता. खाद्यान की आत्मनिर्भरता हमारी सुरक्षा के लिए अत्यंत आवश्यक है.
जीन बदल के कुछ नयी प्रकार के बीज बन रहे हैं जो उत्पादन बहुत बढा देंगे . पर मोंसतो जैसी छः बड़ी विदेशों की प्राइवेट कंपनियां इन बीजों पर पेटेंट ले रही हैं . वह कमजोर भारत को दबा रही हैं की उनसे बीज खरीदे . अब कोई डा.बोर्लोग मुफ्त मैं भारत मैं रह कर गेहूं का उत्पादन नहीं बढ़ाएगा . नेहरु जी ने बोर्लौग को भारत मैं निमंत्रित किया था पर क्या मोदी यह कर सकते हैं ?. समय आ गया है की हम नयी उन्नत बीजों की तकनीक को स्वयं खोजें . इसमें भी पंद्रह वर्ष लग सकते हैं .
इस लिए जहाँ एक तरफ वर्तमान की मंहगाई व् आर्थिक विकास पर जोर देना ठीक है परन्तु हमारी सुरक्षा की तरह खेती का विकास भी परम आवश्यक है जिसे सरकार को सजगता से संज्ञान मैं लाना चाहिए .