काठमांडू : क्या हम बिना सार्क सम्मेलन के ही अच्छे थे
Rajiv Upadhyay
इतने दिनों से मोदी जी के विदेशी दौरों की आरंभिक सफलता के बाद काठमांडू ने भारत व् मोदी को असफलता का बड़ा शीशा दिखा ही दिया . चीन की सदस्यता की अचानक मांग ने हमें स्तंभित कर दिया . बाकि सारे देश इसकी तरफ हो गए और हम अकेले पड गए . जाहिर है चीन ज्यादा बड़ी शक्ति है . वह अपने प्रभुत्व को बढ़ने के लिए ज्यादा पैसा फैंक रहा है . परन्तु नेपाल ने जाहिर कर दिया की हमारे जागते हुए चीन ने हमारी नीचे से ज़मीन सरका दी . ज्यादा रहस्य की यह बात है की चीन से बांग्लादेश ने दो पनडुब्बी किस देश की नौसेना के विरुद्ध खरीदें हैं . क्या बंगाल की खाडी मैं भविष्य मैं कभी तेल निकलने के संभावित बंटवारे को ले कर यह कदम उठाया जा रहा है . यदि हमने पूरे तेल पर अधिकार जताया तो बांग्लादेश हमारे संयंत्रों को गिरा देगा . म्यानामार ( बर्मा) से निकली वीडियोकोन के हिस्से की गैस को बांग्लादेश ने भारत नहीं आने दिया बल्कि उसमें अपना हिस्सा मांगा . नेपाल के माओवादियों ने तो पहले ही उत्पात मचा रखा है . श्री लंका तमिलों के सफाए के बाद तमिलनाडु के राजनीतिज्ञों से घबराया हुआ है . पुरे सार्क के देशों मैं आपस मैं व्यापार उनके पुरे वैश्विक व्यापार क दस प्रतिशत भी नहीं है . पाकिस्तान व् बंगलादेश अपनी विदेशी मुद्रा के बदले भारत से ज्यादा खरीदना नहीं चाह रहे . बांग्लादेश को हमें एक बिलियन डोलर का ऋण सिर्फ चीन को दूर रखने के लिए देना पडा .पाकिस्तान तो अगली मीटिंग मैं चीन को सदस्यता दिलाने पर तूल जाएगा . यदि एक बार चीन पाकिस्तान के साथ मिल कर सार्क मैं घुस गया तो भारत का सार्क पर प्रभुत्व सदा के लिए समाप्त हो जायेगा और यह इलाका चीन का पिछलग्गू बन जायेगा .
वैसे भी भारत को देने के लिए सार्क के देशों के पास विशेष कुछ नहीं है .हमें तेल , उर्जा , कोयला ,उर्वरक , खाद्यान इत्यादि की ज्यादा आवश्यकता है . बांग्लादेश ने गरीबी मैं भी अपनी गैस हमें कभी नहीं दी .जैसे जैसे जनसँख्या बढ़ेगी वैसे वैसे पानी की कमी हमें बांग्लादेश व् पाकिस्तान से विमुख करती जायेगी . बिहार की बाढ़ का समाधान नेपाल की नदियों मैं बाँध बनाना ही है . भूटान मैं जल परियोजनाओं की आवश्यकता है पर भूटान अपने लोगों को भारत के लिए विस्थापित नहीं करना चाहता . नेपाल भी आनाकानी ही करता रहता है . अफ़ग़ानिस्तान कब तालिबान की तरफ चला जाएगा पता नहीं . मालदीव के होने न होने से हमें अंतर नहीं पड़ता . कमोबेश सार्क हमारे लिए बहुत फायदे का सौदा नहीं है पर सुरक्षा के लिए ख़तरा अवश्य है.
पर भारत की कंपनियों को चालीस करोड़ की आबादी का अनविकसित बाज़ार हाथ मैं लगने का लालच तो है पर इसे पाना सरकार के लिए संभव नहीं दीखता . इसमें कोई शक नहीं की मिलने मैं लाभ है . पर इक तरफ़ा पहल के गुजराल नीती ने भारत की समस्याएं बहुत बढ़ा दीं थीं . सबसे बड़ी गलती उन्होंने पाकिस्तान मैं रॉ का दफ्तर बंद कर के की थी . इसी प्रकार श्री लंका के राष्ट्रपति जय वाधने ने राजीव गाँधी को बरगला के भारतीय सेना को तमिलों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए फंसा दिया था जिसमें हमारे २००० सैनिक मारे गए और अंत मैं उन्हें अपने प्राण गंवाने पड़े .सार्क का विचार ही भारत के घोर विरोधी बंग्लास्देश के राष्ट्रपति जिया उर रहमान का था . इसका उद्देश्य ही मिल कर भारत पर दबाब बनाना था . मोदी जी भी इसी इकतरफा दानवीर कर्ण होने के जाल मैं फंसते दीख रहे हैं .सार्क को अब कुछ वास्तविकता का आइना दिखाना भी आवश्यक है .
मोदी सरकार को अब थोड़ा रुक कर यह सोचना होगा की गंभीर अंतर्राष्ट्रीय समस्याएं वाकयी इतनी आसानी से नहीं सुलझती . अमरीका के साथ जसवंत सिंह व् टैलबोट की सालों बातचीत चली तब जा के बात बनी . यह हाथ मिलाने के फोटो खिंचाने की बात नहीं है बल्कि कुछ ले कर कुछ पाने व् शक्ति के सही उपयोग की बात है . पाकिस्तान बिना शक्ति प्रदर्शन के बाज नहीं आयेगा .यही बात कमोवेश औरों के साथ भी लागू होती है .अंग्रेजों ने भी युद्ध मैं जीत के सबको एक किया था .शान्ति की अपनी सीमायें होती हैं . हमें भी सुरक्षा खतरे मैं पड़ने पर अंत मैं वही करना होगा . वैसे हम बिना सार्क के आर्थिक प्रगति कर सकते हैं .पाकिस्तान को अपनी मुंबई की सफलता पर बहुत अभिमान है और भविष्य मैं भी वह इस रास्ते का उपयोग अवश्य करेगा . भारत को कांग्रेस के कड़े रास्ते पर आगे बढ़ने के विकल्प पर पुनः विचार करना पड सकता है . इन देशों मैं ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह कुछ करना होगा .
इस सरकार मैं कोई नया चिंतन करने की क्षमता नहीं दीख रही . मंत्रिमंडल बहुत निम्न स्तर के चिंतकों का है . इसमें कोई जसवंत सिंह नहीं है . सुब्रमनियन स्वामी से सब डरते हैं .इसलिए मोदी जी को मंत्रिमंडल व् बाबुओं के बाहर निकल कर रैंड कारपोरेशन जैसे विचारकों के संगठन ढूढने होंगे .
पाकिस्तानी सेना का अस्तित्व भारत की मैत्री से खतरे मैं पड जाता है . वह पाकिस्तान प्रशासन को चीन की ओर धकेलेगी . हम अमरीकी व् इजराइल का बिना अपनी सार्वभौमिकता खोये कैसे उपयोग कर सकते हैं यह हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है .
हमारे पुराने गुजराल नीति के रास्ते पुरानी मुंबई काण्ड की मंजिल तक ही पहुंचा सकते हैं , यह बात हमें काठमांडू की विफलता से सीख लेनी चाहिए .
रीडिफ़ का यह लेख विचारणीय है
Rediff News All News
A summit Modi could have done without
November 28, 2014 15:31 IST
‘Pakistan’s negativism should be seen as the reason for India losing interest in SAARC,’ says Ambassador T P Sreenivasan.
Image: Prime Minister Narendra Modi ignores Pakistan Prime Minister Nawaz Sharif at the SAARC summit in Kathmandu.
Photograph: PTI
From choosing November 26 to commence a SAARC summit, to not knowing the likely outcome of India’s initiative in a small group of countries, to not anticipating the pressure building up in favour of China’s membership, everything went wrong for India at the Kathmandu summit.
The reverberations of gunfire across the border and the encounter with Pakistani terrorists were audible in the conference hall, preventing the prime ministers of India and Pakistan from shaking hands or even smiling at each other.
The net result was a further deterioration in India-Pakistan relations and an unnecessary confrontation with China on the issue of its status in SAARC.
This was a summit India could have done without.
Another year of waiting would not have made any difference to SAARC or to India’s relations with its member nations.
The kind of optimism expressed by politicians and former diplomats alike even a few days before the commencement of the summit was astonishing. They betrayed a lack of appreciation of the history of SAARC and the obvious built-in impediments to its success.
The Gujral Doctrine, which was acknowledged as a failure, was virtually resurrected by the argument that India had to define its role, from seeking reciprocity in bilateral relations to being prepared to go the extra mile in meeting the aspirations of all the other SAARC nations.
To ask for a conflict-mediating or conflict-resolving institution on multilateral and bilateral issues is nothing short of suicidal.
Equally unrealistic was the suggestion that the time was opportune for a new regional architecture and that the time had come to reconnect with India’s neighbours. The Indian resource position is not so robust that India could invest in SAARC as Germany did in the European Union.
India has never been unsympathetic to the aspirations of its neighbours. Therefore, advice that India must build trust with its neighbours, showing solidarity and forging with them a habit of cooperation, seems unwarranted. There are many instances of India bending backwards to satisfy its smaller neighbours. Kachativu and Teen Bigha are obvious concessions we made for friendship.
The sense of optimism that India could work with SAARC countries to alleviate poverty and build a coalition to advance Indian interests, which characterised the initiatives of the Modi government from day one, has already been proved wrong.
Nawaz Sharif’s visit was followed by a sharp deterioration of relations, leading to heavy firing across the border and encounters with terrorists. The display of animosity between India and Pakistan in New York cast a shadow on both countries.
Under the circumstances, a SAARC summit was doomed to fail. To expect that Pakistan would accept Indian initiatives on energy and road and railways at this time was incorrigible optimism.
Image: Chinese President Xi Jinping and Prime Minister Narendra Modi during Xi’s visit to India in September.
Photograph: MEA/Flickr
The claim that the summit enabled India to isolate Pakistan is false. The normal reaction of all countries, particularly our neighbours, to an India-Pakistan confrontation is to become peacemakers, not to take sides. The greatest favour that they show to us is to say that all matters should be resolved bilaterally.
The Nepalese prime minister, enthused as the host to ensure the success of the summit, pushed the two sides to compromise, not to find fault with either.
The spectacle of Indian and Pakistan leaders avoiding each other amused the others, even after the 32 second handshake and the acceptance by Pakistan of the energy agreement. In fact, India was on the edge of isolation when the other seven showed willingness to accept China as a member.
The suggestion that India should promote SAARC minus Pakistan is impossible. SAARC has been established on the basis that every decision has to be by consensus, not by vote.
Although this provision was made at India’s behest in the first instance, the others will quote the same provision to prevent a break-up.
The point to note about SAARC is that it is the sum total of India’s bilateral relations with the other countries, though it has a multilateral flavor. The clout that we had with them has been reduced, with the emergence of China as alternate source of strength and money.
The ambition of the founder of SAARC, Zia-ur Rehman, was not to forge a genuinely multilateral organisation, but to create a front to extract concessions from India and that was the reason why Indira Gandhi resisted it as long as she could. Today, SAARC is moving in the direction that its founder had set for it.
Kathmandu showed for the first time that India cannot keep China out of SAARC for long even if we argue that China is not a South Asian country. The moment China enters SAARC, the Indian role will change dramatically. This is another reason why we should gradually reduce the central role of SAARC in South Asia.
The association is not of any particular importance to us in cultivating our neighbours and Pakistan’s negativism should be seen by the countries concerned as the reason for India losing interest in SAARC. In a sense, we do not have a major stake in projecting SAARC as a viable regional forum.
Prime Minister Modi has done well to signal in Kathmandu that we will work with our neighbours, regardless of SAARC. Unless Pakistan sees the economic compulsions of a regional organisation to tone down their political animosity towards India, our focus should not be on SAARC, but on the individual South Asian States.
There, the competition will be with China and not with Pakistan and it will be an uphill task. But, with Pakistan out of the game, we may have a better chance to build partnerships with the others.
As to the question whether the prime minister’s vision of SAARC is turning out to be an illusion, it should be admitted that it is indeed so. It is time for him to play down the importance of SAARC and reach out farther for strategic partnerships.
His success with the United States, Japan, Australia and even the South Pacific states is encouraging. He should recognise the inherent weaknesses and dangers of SAARC and devise an alternative strategy to deal with his neighbours.
T P Sreenivasan is a former Ambassador of India and Governor for India at the IAEA; Executive Vice-Chairman, Kerala State Higher Education Council and Director General, Kerala International Centre.
You can read Ambassador Sreenivasan’s earlier columns here.