गीता को राष्ट्रिय पुस्तक बनना चाहिए – भाग १ : सम्पूर्ण गीता सारांश – राजीव उपाध्याय
इससे पहले की हम इस पर चर्चा करें की गीता का राष्ट्रिय पुस्तक बनना क्यों राष्ट्र के हित मैं आवश्यक है , एक बार पहले गीता के सारे अध्यायों का सारांश फिर से पढ़ लें जिससे जब इस विषय पर चर्चा हो तो सब लोग इस में भाग ले सकें
सम्पूर्ण गीता सारांश : स्पीकिंग ट्री से साभार उद्धृत
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श्री रामकृष्ण – विवेकानंद – वाणी पर आधारित भगवान् के मुखकमल से प्रकट हुई सर्वशास्त्रमयी ‘गीता’ की दिव्य आनंदरूपी बारिश की एक बूँद ———- महाभारत के भीष्म पर्व के २५ से ४२ अध्याय की भगवद्गीता ७०० श्लोकों में पुनर्न है. समूचा ग्रन्थ अष्टादश अध्यायों में रचितहै. प्रत्येक अध्याय एक एक योग है. आपके जीवन में कितना भी कोलाहल हो, कितना भी संघर्ष हो – यह ज्ञान वंहा काम मेंआने के लिए है.१. प्रथम अध्याय (अर्जुन विशद योग ) — * कौरवों और पांडवों में राज्य के अधिकार को लेकर जो विवाद चल रहो था उसकी स्थायी मीमांसा करने के उद्देश्य से उनदिनों के श्रेष्ठ क्षत्रिय वीर दोनों पक्षों कि और से युद्ध भूमि में समुपस्थित हैं कौरव पक्ष में ग्यारह अक्षोहिणी सेना तथा पांडवपक्ष में सात अक्षोहिणी सेना अनेक प्रकार के शास्त्रों से सुसज्जित होकर एकत्रित है.
* जब अर्जुन अपने विपक्ष में प्रबल सैन्य व्यूह को देख कर भयभीत हो गए थे. उनके मोहजन्य (सगे सम्बन्धी ) जीव प्रेमने देश और राजा के प्रति उनके कर्त्तव्य को भुला दिया. इस प्रकार साहस और विश्वास से भरे अर्जुन महायुद्ध का आरम्भ होनेसे पूर्व ही युद्ध स्थगित कर रथ पर बैठ जातें हैं. श्री कृष्ण से कहते हैं — मैं युद्ध नहीं करूंगा. मैं पूज्य गुरुजनों तथासम्बन्धियों को मार कर राज्य का सुख नहीं चाहता, भिक्षान्न खाकर जीवन धारण करना श्रेयस्कर मानता हूँ. उनका शरीरकॉंम्पने लगा, गला सूख गया, शरीर शिथिल होने से गांडीव धनुष हाथ से गिर पड़ा. उस समय उन दोनों में जो विस्तृतवार्तालाप हुआ वही अठारह अध्याय वाली श्रीमद भगवतगीता है. २. द्वितीयोध्याय ( सांख्ययोग )— सांख्य शब्द का अर्थ है ज्ञान तथा योग शब्द का अर्थ है कर्म. भगवान् कहतें है – कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म फल मेंनहीं क्योंकि वह तुम्हारे अधिकार क्षेत्र से बाहर है. तुम कर्म फल कि आशा से कर्म मैं प्रवृत न हो. फिर कर्म त्याग में भीतुम्हारी प्रवृति न हो अर्थात अपना कर्त्तव्य कर्म करते चलो. * इसमें प्राधान्यतः आत्मतत्व की ही चर्चा हुई है. शरीर नित्य और आत्मा जन्म मृत्यु रहित तथा नित्य है. निष्काम कर्म निष्काम भक्ति और ज्ञान सम्मिलन के फलस्वरूप ब्रह्मप्राप्ति और स्तिथ प्रज्ञ अवस्था होती है. इस अवस्था में स्तिथ होकर मनुष्य निष्काम भाव से अपने वर्ण और आश्रम के कर्म करके अंत में ब्रह्मनिर्वाण या मोक्ष प्राप्त करते हैं. * कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन मा कर्म फलहेतुर्भूमाते सङ्गोsस्त्वकर्मणि (४७ श्लोक ) ३. तृतीयोध्याय ( कर्मयोग )— कर्मयोग में सभी कर्म केवल दूसरों के लिए किये जाते हैं. हम सुख चाहते हैं, अमरता चाहतें हैं, निश्चिंतता चाहते हैं, निर्भरताचाहतें हैं, स्वाधीनता चाहते हैं –यह सब हमें संसार से नहीं मिलेगा, प्रत्युत संसार से सम्बन्ध विच्छेद से मिलेगा. हमें संसारसे जो कुछ मिला है, उसको केवल संसार कि सेवा में समर्पित कर दें, यही कर्म योग है. यदि ज्ञान के संस्कार हैं तो स्वरुप कासाक्षात्कार हो जाता है और यदि भक्ति से संस्कार है, तो भगवान् में प्रेम हो जाता है. जो कर्म हम अपने लिए नहीं चाहते हैंउसको दूसरों के प्रति न करें. * मैं और मेरा भाव ही दुःख का जनक है. निरंतर कर्म करो किन्तु उसमें आसक्त न हो जाओ. अनासक्ति ही आत्मत्याग है. जो व्यक्ति धन या अन्य किसी प्रकार की कामना न रख कर कार्य करतें है वे ही सबसे उत्तम कर्मकर्ता है. सब कर्म ईश्वर कोअर्पण करते चले यही कर्म योग का ध्येय है. निस्काम – कर्म मनुष्य को श्री भगवान् के समीप पहुंचा देता है. ४. चतुर्थोअध्याय ( ज्ञानयोग ) — * मनुष्य शरीर मैं किये हुए कर्मों का फल ही लोक तथा परलोक मैं भोगा जाता है. जैसे धूल का छोटा से छोटा कण भीविशाल पृथ्वी का ही एक अंश है, ऐसे ही यह शरीर भी विशाल ब्रह्माण्ड का ही एक अंश है. ऐसा मानने से कर्म तो संसार केलिए होंगें पर योग (नित्य योग ) अपने लिए अर्थात परमात्मा का अनुभव हो जाएगा. * जड़ के साथ अपना सम्बन्ध मानना ही परमात्मा के साथ अपने नित्य संबध को भूलना है. करना, जानना और पाना शेष नहीं रहने से वह कर्म योगी अशुभ संसार बंधन से मुक्त हो जाता है. मनुष्य मैं फलेच्छा और कर्त्तव्याभिमान नहीं रहनेचाहिए क्योंकि इन दोनों से ही मनुष्य बंधता है. कामना न हो और कर्म होते रहे ऐसी अवस्था वाले मानुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं कर्म का आरम्भ और अंत होता हैपर स्वरुप सदा ज्यों का त्यों रहता है — इस तत्व को ठीक ठाक–जानना ही ज्ञान है. इस ज्ञान रूप अग्नि से सम्पूर्ण कर्मभस्म हो जातें है. अर्थात कर्मों में फल देने की ( बांधने की ) शक्ति नहीं रहती, अपनी अलग सत्ता का स्पष्ट विवेक है वह -ज्ञानयोगी है. * चेतन का जड़ से तादात्म्य होने के कारन ही उसे जीवात्मा कहते हैं. गीता का स्वाध्याय ज्ञान यज्ञ है. * ज्ञान यज्ञ में सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थो से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है अर्थात तत्वज्ञान होने पर कुछ भी करनाजानना और पाना शेष नहीं रहता क्योंकि – एक परमात्मतत्व के सिवाय सत्ता ही नहीं रहती. * यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः अभ्युस्थानमधर्मस्य तदात्मान सृजाम्यहम. (७ वां श्लोक ) जैसे आकाश में विचरण करते वायु को कोई मुट्ठी में पकड़ सकता. इसी तरह मन को कोई नहीं पकड़ सकता. ५. पंचमोअध्यायः ( सन्यासयोग ) कर्म के द्वारा ईश्वर के साथ संयोग ही कर्मयोग है. जिस कर्म में भगवान् का संयोग नहीं होता वह कर्मयोग नहीं — वह केवलकर्म मात्र है. कर्म सकाम होने से ही वह बंधन का कारण होता है और निष्काम होने पर चित्त शुद्धि क्रम से वह मोक्ष का कारण बनता है. राग मिटे बिना संसार कि स्वतंत्र सत्ता का आभाव होना बहुत कठिन है. जब तक अपने लिए कुछ भी पानेकी इच्छा रहती है तब तक कर्मों के साथ सम्बन्ध बना रहता है. * माया ही अज्ञान है, माया से अहम् ज्ञान और कर्त्तव्य बोध होता है. अहम् बुद्धि बंधन का कारण है, उसी से जीव मोह प्राप्तहो जाता है, जिससे वह आत्मस्वरूप का ज्ञान खो बैठता है. इस अहम् रूप अज्ञान से मिट जाने से ही ब्रह्म आत्मरूप से प्रगट होते हैं. * जिस दिन या जिस क्षण वैराग्य का उदय होगा तभी संन्यास आश्रम ग्रहण करना कर्त्तव्य है. श्री भगवान ने कर्म अकरमऔर विकर्म सब कुछ छोड़ कर सन्यासी हो जाने का उपदेश नहीं दिया यथार्थ में पूर्ण तथा कर्मफल का परित्याग करकेकर्मयोगी या नित्य सन्यासी होने का ही आदेश दिया है. कर्मत्याग या स्वधर्म त्याग गीता का उपदेश नहीं बल्कि स्वधर्मपालन और कर्मफल त्याग ही गीता का उपदेश है. ६. षष्ठोअध्याय: (ध्यानयोग )—- सूत में जरा सा रेशा भी रहने से वह सुई के छेद में नहीं घुसता. उसी तरह मन में मामूली वासना रहने से भी वह ईश्वर केचरणकमलों के ध्यान में लवलीन नहीं होता. * जिस विवेकयुक्त बुद्धि द्वारा मन वशीभूत है, वह मन ही जीव का मित्र है और यदि मन विजित न हुआ तो वह शत्रु की तरहजीव को हर प्रकार से हानि पहुंचता है. * जो रूप रस आदि विषयों के संस्पर्श में आकर निर्विकार रहतें हैं और मृतिका प्रस्तर तथा सुवर्ण में समदर्शी हैं वहीआत्मनिष्ठ कहे जाते हैं. मन बलवान है जो साधक को जबर्दस्ती विषयों में ले जाता है. अतः मन ही मोक्ष और बंधन का कारण हैं. * भगवान् के साथ आत्मीयता का बोध हो जाने पर फिर संसार में कोई भय नहीं रहता, वह –बाप माँ या भाई बंधु है — इस प्रकार अपनापन आने से किसी साधन भजन कि आवश्यकता नहीं रहती, किन्तु उनकी विशेष कृपा के बिना उन्हें कोई अपना नहीं सकता. * पाप या पुण्य कोई भी कर्म बिना फल के नष्ट नहीं होता अतः जितने शुभ कर्म किए गए हैं उसका फल कर्म करने वाला अवश्य पायेगा, कोई भी शक्ति या देवता इस नियम को नहीं रोक सकते, साधन योग कर विपरीत परिस्तिथि का असर कमकर सकते हैं बस ——. * ध्यान योग बहुत कठिन है, इसके लिए अनेक प्रयत्न की आवश्यकता है, यम नियम आसान प्राणायाम प्रत्याहार धारणाध्यान और समाधि में सिद्धी लाभ कर सकने से ही ध्यानयोग के लक्ष्य ब्राह्मी स्थिति की अवस्था प्राप्त होती है. यम नियमआदि कि साधना भी निष्काम भाव से ही करनी होगी. ७. सप्तमोअध्यायः (ज्ञान विज्ञानं योग )—- परमेश्वर का ज्ञान क्यों नहीं होता —स्थूल देह की उत्पत्ति के साथ जीव माया मुग्ध हो जाते हैं. अनात्म वस्तु में आत्मबुद्धिकरते हैं इसी कारण वे भगवान् को नहीं जान सकते. महामाया का द्वार पार हो सकने से ईश्वर का दर्शन होता है. अतःमहामाया की दया आवश्यक है. इसी कारण शक्ति की उपासना है. महामाया प्रसन्न होकर जीव को मोह रहित कर दे तो ईश्वरका दर्शन सम्भव है. * जैसे घड़ा बनाने में कुम्हार और सोने के आभूषण बनाने में सुनार ही निमित कारण है. ऐसे ही संसार मात्र कि उत्पत्ति मेंभगवान् ही निमित कारण हैं. ऐसा जानना ही ज्ञान है. सब कुछ भगवत्स्वरूप है. भगवान् के सिवाए दूसरा कुछ है ही नहीं –ऐसा अनुभव हो जाना विज्ञान है. * जड़ के साथ एकात्मता करने से जीव जगत कहा जाता है. परन्तु जब यह जड़ से विमुख होकर चिन्मय तत्व के साथअपनी एकता का अनुभव कर लेता है तब वह योगी कहलाता है. * जैसे सूत में सूत कि मणिया पिरोयी गयी हों तो दिखने में मणियाँ और सूत अलग अलग दीखते हैं. पर वास्तव में उनमें सूत एक ही होता है, ऐसे ही संसार में जितने प्राणी है वे सभी नाम रूप आकृति आदि से अलग अलग दिखतें हैं, पर वास्तव मेंउनमें व्याप्त रहने वाला चेतन तत्व एक ही है. ८. अष्टमोअध्यायः (अक्षरब्रह्म योग ) — जिसका क्षय या विकार नहीं है वह अक्षर वास्तु ब्रह्म है. मनुष्य जीवन का उद्देश्य है ईश्वर लाभ — ईश्वर के प्रति थोडा भी प्रेम हो तो मन मैं निर्मल आनंद का संचार होता है. उस समय एक बार राम नाम का उच्चारण करने से कोटि बार संध्या पूजाकरने का फल मिलता है. जीवन भर मनुष्य जिस विषय का सदा चिंतन करता है अंतिम समय मैं वही चिंता मन मैं उदितरहती है. मन का एक अंश ईश्वर मैं और दूसरा अंश संसार के कामों में लगाना होगा. दायित्व जितना ही घटेगा उतना ही अधिक भगवान में मन लगाना होगा. दायित्व पूर्णतया मुक्त होने पर दोनों हाथों से भगवान् के चरणों को पकडे रहने का मौका मिलेगा. तभी यह संसार आनंद कानन में परिणित होगा. भगवान् को स्मरण मनन और सवधर्मपालन साथ साथ चलाते रहना होगा. * प्रणयमपूर्वक मन को उस परमात्मा में लगाने का नाम अभ्यास है. मृत्यु के समय इसी अध्याय को सुनाया जाता है.अंतकाल में भगवान् को स्मरण करते हुए प्रयास करने पर मुक्ति मिलती है अतः सदा ईश्वर परायण करने का उपदेश विशेषमहत्वपूर्ण है. * ईश्वर में परम अनुरक्ति ही भक्ति है. ईश्वर की शरीर मन वाणी से भजन करने का नाम भक्ति है. ९. नवमोअध्यायः (राजविद्याराजगुह्य योग ) —- श्री भगवान् ने इस तत्त्व का निरूपण किया है कि – परमेश्वर तत्व अनन्य भक्ति से ही सुलभ है नहीं तो वह नहीं मिलता. जीवस्वरूपतः ब्रह्म है. किन्तु माया से वह अपने को जन्ममरणशील देह ही समझता है. किन्तु अनन्य चिंता ही भक्तों को भगवान् कृपा करके स्वरुप का ज्ञान देतें हैं और यही उनके लिए यथार्थ योग है. फिर कृपा करके वह उन्हें आत्म ज्ञान में प्रतिष्ठित भीकरते हैं और यही उनके लिए क्षेम है. * आकाश के सामान सर्वगत भगवान में समस्त भूत और प्राणी निर्लिप्त भाव से अवस्तिथ हैं. * भगवान् कहतें हैं –मैं अपनी प्रकृति को वशीभूत करके उसी प्रकृति की सहायता से अपने कर्मानुसार जन्म मृत्यु केअधीन इन समस्त प्राणियों की पूर्वजीत अदृष्ट के अनुसार बार-बार विविध रूप से सृष्टि करा हूँ. केवल भक्ति से ही परमात्माका दर्शन सम्भव है. १०. दश्मोअध्यायः ( विभूति योग ) — भगवान् कहते हैं — देवतलोग या महर्षि लोग मेरा प्रभाव या महात्मय नहीं जानते क्योंकि मैं देवताओं तथा महर्षियों काआदि कारण हूँ. अतः. मेरी कृपा बिना कोई मुझे नहीं जान सकता भक्तों के प्रति कृपा करने के लिए वह उनकी बुद्धि वृति मैंअधिष्ठित होकर दीप्तिमान तत्व ज्ञान रूप प्रदीप के द्वारा अज्ञान से उत्पन्न संसार रूप अन्धकार का नाश करतें है. * सामने जो पदार्थ दिखाई पड़ते हैं आनंद स्वरुप ब्रह्म हैं. सभी आनंदस्वरूप ब्रह्म हैं. ब्रह्म पीछे. उत्तर या दक्षिण मैं भी है. नीचेऔर ऊपर भी ब्रह्म ही व्याप्त है. यह विशाल ब्रह्माण्ड ब्रह्म ही है. इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं. * उनके हाथ पैर न होते हुए भी वह शीघ्र गमन करतें है और सब वस्तुओं का ग्रहण भी करते हैं. चक्षु न रहने पर भी दर्शनकरते हैं कर्ण न रहतें हुए भी श्रवण करतें हैं. अर्थात वह अणु से भी अणुत्तर हैं और महान से भी महानतर हैं. समस्त प्राणियोंके हृदय रूप गुफा मैं वह आत्मा रूप से अवस्तिथ हैं. * जो अंगूठे के आकार में परिपूर्ण अंतरात्मा स्वरुप होकर जीवों के हृदय में प्रतिष्ठित हैं. * भगवान् ने कहा — मेरी विभूतियों की समाप्ति नहीं है. मैं प्राणी वर्ग का आदि अंत हूँ. आदित्यों में मैं विष्णु, ज्योतिष्यों मेंमैं सूर्य, नक्षत्रों में मैं चन्द्र, देवताओं में मैं इंद्र, रुद्रों में मैं शंकर, वायुओं में मैं मरीचि हूँ. —जो कुछ ऐश्वर्ययुक्त श्री संम्पन्न या विशेष शक्तिपूर्ण है वे सभी मेरी शक्ति का मामूली प्रकाशमात्र है. में ही एकांश से समस्तजगत व्याप्त किए हुए हूँ. * छोटा सा मनुष्य उनकी पूर्ण महिमा कैसे समझेगा? इसलिए श्री भगवान ने कृपा पूर्वक अर्जुन को लक्ष्य करजगदवासियों के लिए उन्हें पाने का सहज उपाय वता दिया है. जो लोग मुझ में चित्त अर्पण कर भक्ति से मेरी उपासना करतेंहैं वे मुझे पाने में समर्थ होते हैं. * एक भगवान के सिवाय सुश्री सत्ता है ही नहीं — ऐसा संदेह रहित दृढ़ता पूर्वक स्वीकार कर लेना ही तत्व से जानना है. ११. एकादशोध्यायः ( विश्वरूप दर्शन योग ) — अर्जुन ने श्री भगवान् के निकट विश्वरूप दर्शन के लिए कातर भाव से प्रार्थना की थी. चिन्मय रूप देखने के लिए चिन्मयदृष्टि की आवश्यकता है. इस कारण श्री भगवान् ने अर्जुन को दिव्य चक्षु दिए थे. दिव्य चक्षुओं के द्वारा अर्जुन ने श्री भगवान्का दिव्य रूप देखा था. जिस रूप का दर्शन होने से मनुष्य को परम गति मिलती है. * विराट रूप से प्रकट भगवान् के जितने नेत्र और मुख दिख रहें हैं वे सब दिव्य हैं. जितनी आकृतियां दिखतीं हैं, जितने रंगदिखतें हैं जितनी उनकी विचित्र रूप से बनावट दिखती है. सब की सब अद्भुत दिख रही है. अनेक रूपों के हाथों पैरों में, कानोंमें, नाकों में और गले में आभूषण हैं वे सब दिव्य हैं. अनेक प्रकार के आयुधों के रूप में अनेक प्रकार की मालाओं के रूप मेंवस्त्रों के रूप में प्रकट हुए हैं. इस लिए भगवान् के विराट रूप में सब कुछ दिव्य है. * कृष्ण के छोटे से शारीर के भी एक अंश में चर अचर स्थावर जंगम सहित सम्पूर्ण संसार है. वह संसार भी अनेक ब्रह्मांडो के रूप में अनेक व्यक्तियों और पदार्थों के रूप में विभक्त और विस्तृत है. * आपके इस अद्भुत विलक्षण अलौकिक आश्चर्यजनक महान देदीप्यमान और भयंकर उग्र रूप को देख कर स्वर्ग मृत्युऔर पाताललोक में रहने वाले सभी प्राणी व्यथित हो रहें हैं, भयभीत हो रहें है. * विराट रूप को देख कर अर्जुन भयानक सिंह व्याघ्र सांप आदि जंतुओं और मृत्यु को देख कर भयभीत हो गए महाप्रलय के सामान सम्पूर्ण जल को भस्म करने वाली जो अग्नि प्रकट होती है. दाढ़ों के कारन विकराल मुखों को देखकरन दिशाओं का ज्ञान होता है. अर्जुन को लगा कि भगवान् कंही अप्रसन्न हैं इसलिए वे भगवान् से प्रसन्न होने के लिएप्रार्थना करते हैं. सभी योद्धा भीष्म, द्रौण और कर्ण राजाओं समुदायों के सहित सब के सब मुखों में बड़ी तेजी से प्रविष्ट हो रहेंहैं. ऐसा दृश्य देख कर ही अर्जुन शांत भाव से भगवान् कि प्रार्थना में लग गए. १२. द्वादशोध्यायः ( भक्ति योग ) — कर्मयोग और ज्ञानयोग – ये दोनों लौकिक निष्ठाएं हैं. परन्तु भक्तियोग लौकिक निष्ठां अर्थात प्राणी कि निष्ठां नहीं है. जोभगवान् में लग जाता है वह भगवन्निष्ठ होते हैं अर्थात उसकी निष्ठां भी अर्थात भक्ति से भक्ति पैदा होती है. श्रवण कीर्तन,स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सांख्य और आत्म निवेदन – यह नौ प्रकार की साधना भक्ति हैं तथा इनके आगे प्रेमलक्षणा भक्ति साध्य भक्ति है जो कर्म योग और ज्ञान योग सबकी साध्य है. * भक्ति योग में जगत को भगवान् का अथवा भगवत्स्वरूप मानने से जगत (असत) बहुत शीघ्र लुप्त हो जाता है औरभगवान् रह जाते है. * सम्पूर्ण प्राणियों को अपना ही शारीर मानने से किसी को भी बुरा नहीं समझता जैसे अपने दांतों से अपनी जीभ कट जायेतो दांतो पर क्रोध करके उनको कोई नहीं तोड़ता. बुराई का त्याग होने पर दूसरों कि जो सेवा होती है वह बड़े से बड़े दान पुण्यसे भी नहीं हो सकती. * भक्ति योग में भगवत्परायणता मुख्य है. भगवत्परायण होने पर भगवत कृपा से अपने आप साधन होता है औरअसाधन (साधन के विघ्नों ) का नाश होता है. * भक्ति मार्ग का जब अवलम्बन कर जो लोग इन्द्रिय संयम करते हुए समत्व बुद्धि संपन्न हो कर समस्त प्राणियों में ब्रह्मका प्रकाश देखतें हैं और सभी प्राणियों के कल्याण कार्यों में निरत रहकर अव्यक्त ब्रह्म कि चिंता करतें हैं. वे भी श्री भगवान्को प्राप्त होते हैं. १३. त्रयोदशोअध्यायः ( क्षेत्रक्षेत्रज्ञ विभाग योग ) — जिस प्रकार खेत में जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही अनाज पैदा होता है. उसी प्रकार शारीर में जैसे कर्म किये जातें हैं उनकेअनुसार ही दुसरे शरीर परिस्तिथि आदि मिलते हैं. तात्पर्य है कि इस शरीर में किये गए कर्मों के अनुसार ही यह जीव बारबार जन्म मरणरूप फल भोगता है. इसी दृष्टि से इसको क्षेत्र (खेत ) कहा गया है. * जहाँ से बंधन होता है वहाँ से खोलने पर (बंधन से ) छुटकारा हो सकता है, अतः मनुष्य शरीर ही बंधन होता है औरमनुष्य शरीर के द्वारा ही बंधन से मुक्ति हो सकती है. अगर मनुष्य अपने शरीर के साथ किसी प्रकार का भी अहंता ममता रूपसम्बन्ध न रहे तो वह मात्र संसार से मुक्त ही है. * संसार से रागरहित होकर ही संसार के वास्तविक स्वरुप को जाना जा सकता है. सुख दुःख का ज्ञान होना दोषी नहीं है.प्रत्युत उसका असर पड़ना (विकार होना ) दोषी है. * हे अर्जुन! सभी क्षेत्रों में (शरीरों में ) मुझे ही क्षेत्रज्ञ अर्थात देहि आत्म रूप से जानना. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही यथार्थ ज्ञान है. यही मेरा अभिमत है. * जिस प्रकार आकाश स्वर्गगत होकर भी सूक्ष्म ( असंग ) होने के कारण कीचड आदि किसी वस्तु में लिप्त नहीं होता उसीप्रकार उत्तम मध्यम सभी प्रकार के शरीरों में अवस्तिथ रह कर भी आत्मा शरीर के दोष गुण पाप पुण्य आदि किसी से लिप्तनहीं होता. * अँधेरे को मिटाने के लिए तो प्रकाश को लाना पड़ता है. परमात्मा को कंही से लाना नहीं पड़ता. वह तो सब देश काल वस्तुव्यक्ति परिस्तिथि आदि में ज्यों का त्यों परिपूर्ण है. इसलिए संसार से सर्वथा सम्बन्ध -विच्छेद होने पर उसका अनुभवअपने आप हो जाता है. जो इस ज्ञान को ठीक ठाक जान लेता है, उनकी दृष्टि में एक चिन्मय तत्व के सिवाय कुछ नहीं रहता. १४. चतुर्दशोध्यायः ( गुणत्रयविभाग योग ) — सत्व रज तम इन तीनो गुणो और इन तीनों गुणो से अतीत त्रिगुणातीत अवस्था ही इस अध्याय में विशेष रूप से आलोचितहुई है. श्री भगवान् ही ब्रह्म की प्रतिष्ठा अर्थात भगवत्त और ब्रह्मतत्व एक की वस्तु है. * सत्व रज तम प्रकृति के ये हीं गुण है. यदपि परमपुरुष निष्क्रिय है तो भी गुणों के संग के कारण मानो पुरुष का संसारबंधन होता है. ये तीन गुण एकत्र एक ही क्षेत्र में रहते हैं जब भी देहेन्द्रिय के किसी द्वार में ज्ञान रूप प्रकाश होता है तभी उसमनुष्य को सत्वगुण – संपन्न या सात्विक कहते हैं. * रजोगुण रागात्मक है. रजोगुण की वृद्धि से लोभ काम प्रवृति उद्यम और विषय वासना उत्पन्न होती है. * तमोगुण वाधित होने पर विवेक का नाश, उद्यम आभाव, असावधानता तथा बुद्धि का विषर्यय होता है. जब किसी जीव मेंइन सबकी प्रबलता दिखाई पड़े तब उसे तमोगुणी या तामसिक प्रकृति कहतें हैं. * सत्वगुण निर्मल सुख में रजोगुण कर्म में और तमोगुण ज्ञान को आच्छादित करते हुए मोह में मनुष्य को संश्लिष्ट करताहै. सत्वगुण से ज्ञान रजोगुण से कर्म में प्रवृति और तमोगुण से अज्ञान और बुद्धि विपर्य होता है. * कामना शून्य होकर कर्म करनी की चेष्ठा करने से अंत में शुद्ध सत्व का लाभ होता है. तत्व का मनन करने वाले जिसमनुष्य का शरीर के साथ अपनापन नहीं रहा वह मुनि कहलाता है. * त्रिगुणातीत और मायातीत ब्रह्मभाव एक ही बात और एक ही अवस्था है. शरीर में तीनों गुणो के कार्ये चलते रहने से जोनिर्लिप्त साक्षी रूप से अवस्थित रहते हैंऔर सुख दुःखादि में विचलित नहीं होते वे त्रिगुणातीत है. * सत्व का सत्व विशुद्ध सत्व होने से ईश्वर दर्शन को विलम्ब नहीं रहता. जैसे अरुण का उदय होने से प्रतीत होता है किसूर्योदय में अब विलम्ब नहीं है. १५. पंचदशोध्यायः ( पुरुषोतम योग ) — भगवान् का अनन्य भक्त भगवान् पर ही आश्रित और भगवान् को ही अपना मानने के कारन सुगमतापूर्वक गुणातीत तभीहो जाता है. संसार जीव और परमात्मा का विस्तृत विवेचन इस अध्याय मैं करते है. * साधारणतया वृक्षों का मूल नीचे और शाखाएं ऊपर की ओर होती है परन्तु यह संसार वृक्ष ऐसा विचित्र वृक्ष है कि इसकामूल ऊपर तथा शाखाएं नीचे की ओर है. * संसाररूपी वृक्ष मैं सबके मूल प्रकाशक और आश्रया परमात्मा ही है. संसार एक क्षण भी स्थिर रहने वाला नहीं है. केवलपरिवर्तन के समूह का नाम ही संसार है. * जगत जीव और परमात्मा — तीनो वासुदेव रूप ही है — वासुदेव सर्वम. इसी का यंहा वृक्ष रूप से वर्णन किया गया है.लम्बे रस्ते का ही अंत आ सकता है, पर गोल रस्ते का अंत कैसे आएगा ? कोल्हू के बैल की तरह जन्मने के बाद मरना औरमरने के बाद जन्मना – यह गोल रास्ता है. * मनुष्य शारीर में मिले विवेक की इतनी महिमा है ही उससे जीव संसार के यथार्थ तत्व को जानकर भगवान् के सदृश्यवेदवेत्ता बन सकता है. * भगवान् कहते हैं कि — मैं प्रत्येक मनुष्य के अत्यंत नजदीक हृदय में रहता हूँ अतः किसी भी साधक को (मेरे दूरीअथवा वियोग अनुभव करते हुए भी ) मेरी प्राप्ति से निराश नहीं होना चाहिए. इसलिए पापी, पुण्यात्मा, मुर्ख, पंडित,निर्धन,धनवान, रोगी, निरोगी आदि कोई भी स्त्री पुरुष किसी भी जाती वर्ण सम्प्रदाय आश्रम देशकाल परिस्तिथि आदि में क्यों न होभगवत्प्राप्ति का वह पूरा अधिकारी है. * आवश्यकता केवल भगवत्प्राप्ति की ऐसी तीव्र अभिलाषा लगन व्याकुलता है जिसमे भगवत्प्राप्ति के बिना रहा न जाये. * ब्रह्म वाक्य और मन अगोचर है. ब्रह्म का स्वरुप मुख से नहीं कहा जा सकता, मौन हो जाना पड़ता है. अनंत को कौन मुखसे समझायेगा ? १६. षोडशोअध्यायः ( देवासुर सम्पदि भाग योग ) — देव योग्य संपत्ति मुक्ति के लिए है और असुरयोग्य संपत्ति संसार बंधन का हेतु है. * असुर स्वाभाव वाले लोग धर्म मैं प्रवृत्ति और अधर्म से निवृत्ति नहीं जानते उनमे न पवित्रता न सदाचार भी और न सत्यव्यवहार ही है. * देवी सम्पदा – भय रहित्य चित्त शुद्धि आत्मज्ञान में निष्ठां कर्म योग परायणता सत्य अक्रोध त्याग शांति जीवों पर दयालोभशून्यता धैर्य अहिंसा अहंकार शून्यता आदि देवी सम्पदाएँ हैं. * काम क्रोध लोभ इन तीनो आसुरी स्व्भाव का मूल कारन जानना तथा नरक के द्वार स्वरुप समझना इन तीनों कापरित्याग कर सकने से ही स्वभाव का संशोधन होगा. सवधर्मपालन ही श्रेष्ठ धर्म है तथा धर्माधर्म के निर्णय में शास्त्र प्रमाणहै. * क्रूर से क्रूर कसाई में भी दया रहती है, चोर से चोर में सहकारी रहती है, इसी तरह दैवी संपत्ति स्वतः स्वाभाविक है औरआसुरी संपत्ति अपनी बनाई हुई है. * मनुष्य को जिस पुण्य से मनुष्य शरीर मिला है उसको नष्ट करके और नए नए पाप बटोर कर पशु पक्षी आदि योनियोंतथा नरकों की तरफ जा रहे है. अतः ये तो विवेकी नहीं हुई. * दुर्गुण दुराचारों का त्याग करके सद्गुण सदाचारों को भी ला सकता है. मनुष्य इसमें सर्वथा स्वतंत्र है क्योंकि वह साधनयोनि है. * मनुष्य जन्म कि सार्थकता यही है ही वह शरीर प्राणों के मोह में न फंसकर केवल परमात्मा प्राप्ति के उद्देश्य से शास्त्रविहित कर्मों को करे. १७. सप्तदशोध्यायः ( श्रद्धात्रय विभाग योग ) —- सत्व नाम अंतः करण का है. अंतः करण के अनुरूप श्रद्धा होती है अर्थात अंतः करण जैसा होता है उसमें सात्विक राजस व तमस जैसे संस्कार होते हैं वैसी ही श्रद्धा होती है अर्थात ये स्वाभाव से पैदा होती है.
* सांसारिक श्रद्धा में भोग की, धार्मिक श्रद्धा में भाव की और पारमार्थिक श्रद्धा में तत्व की प्रधानता है. इसमें सात्विकी श्रद्धाभगवान् कि तरफ लगाने वाली होती है और राजसी – तामसी श्रद्धा संसार कि तरफ. सात्विकी श्रद्धा दैवी संपत्ति हुई और राजसी तामसी श्रद्धा आसुरी सम्पती हुई. * परमात्मा के लिए और उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए दैवी संपत्ति के जो सत्य क्षमा उदारता त्याग आदि श्रेष्ठ गुण है उनके लिए सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है जैसे – सत तत्व सद्गुण सदभाव आदि.
* भगवान् का सम्बन्ध होने से भी कर्म सत अर्थात सत फल देने वाला हो जाता है और असत के सम्बन्ध का त्याग होने सेभी कर्म सत हो जाता है. * पुण्य कर्म से पुण्य की उत्पत्ति होती है, और पाप कर्म से पाप की उत्पत्ति होती है. रमणीय आचरण करने वाले श्रैष्ठ योनियोंमें जन्म ग्रहण करतें हैं और निन्दित आचरण करने वाले निकृष्ट योनि में जाते हैं. यही संसार का शास्वत नियम है. * इस कर्मपाश से मुक्त हुए बिना मनुष्य के सेंकड़ो कल्प बीतते जा रहे हैं उसके कर्म समाप्त नहीं होते. कुछ कर्मों के फलस्वरूप शरीर धारण करके सुख दु:ख का भोग चलता रहता है, सुख दु:ख के भोग के समय फिर नए नए कर्म होते रहते हैं.
* ब्रह्मज्ञान रूप अग्नि ( प्रारब्ध कर्म को छोड़ कर ) समस्त शुभाशुभ कर्मों को भस्म कर देती है.
१८. अष्टादशोध्यायः ( मोक्ष योग ) — मनुष्य पदार्थों और क्रियायों को अपना मानता है तो सर्वथा परतंत्र हो जाता है और भगवान् को अपना मानता है और उनके अनन्य शरण होता है तो सर्वथा स्वतंत्र हो जाता है. प्रभु के शरणागत होने पर परतंत्रता लेश मात्र भी नहीं रहती — यह शरणागति की महिमा है.
* स्वयं भगवान् के शरणागत हो जाना — यह सम्पूर्ण साधनो का सार है. सर्व समर्थ प्रभु के शरण भी हो गए और चिंता भी करें — ये दोनों बात बड़ी विरोधी हैं.– क्योंकि शरण हो गए तो चिंता कैसी? और चिंता होती है तो शरणागति कैसी?
* भगवान् के साथ कर्मयोगी का नित्य सम्बन्ध होता है. सम्बन्धो में संसार के अनित्य सम्बन्ध का त्याग है. नित्य सम्बन्धो में शांत रस है. * ज्ञान योगी का तात्विक सम्बन्ध होता है. तात्विक सम्बन्ध में तत्व के साथ एकता (तत्व बोध ) है. तात्विक सम्बन्ध में अखंड रस है. * भक्त शरणागत का आत्मीय सम्बन्ध है. आत्मीय सम्बन्ध में भवान के साथ अभिन्नता (प्रेम ) है. आत्मीय सम्बन्ध में अनन्तर रस है. अनन्तर कि प्राप्ति हुए बिना जीव कि भूख सर्वथा नहीं मिटती. अनन्तर रस कि प्राप्ति शरणागति से होती है. इसलिए शरणागति सर्वगुह्यतम एवं सर्वश्रेष्ठ साधन है.
* यह शरणागति गीता का सार है. जिसको भगवान् ने विशेष कृपा करके कहा है. इस शरणागति में ही गीता के उपदेश की पूर्णता होती है. इसके बिना गीता अधूरी रहती. इसलिए अर्जुन द्वारा ‘करिष्ये वचनम् तव ‘ कहकर पूर्ण शरणागति स्वीकार करने पर फिर भगवान् नहीं बोले. जैसा कहेंगे वैसा करूँगा.
* परमात्मा का अत्यंत प्यारा बनने में ही मनुष्य जन्म की सफलता है. “ईश्वर कृपा ही केवलम” ॐ तत सत श्री कृष्णार्पणमस्तु