क्या स्वदेशी , स्वाबलंबन व् स्वधर्म से अधिक आर्थिक विकास संभव है ? : आयातित अर्थशास्त्रियों व् सरकारी बाबुओं की निर्मित मृगमरीचिका
Rajiv Upadhyay
यह सर्व विदित है की भारतीय मीडिया पूरी तरह से विदेशि…यों के हाथ बिका हुआ है . इसका ज्वलंत उदाहरण मोदी जी का बारह साल से चल रहा चरित्र हनन है जो अभी तक थमा नहीं है . अब उसमें राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ व् हिंदुत्व और जुड़ गए हैं . सोनिया के २३०० करोड़ रूपये हिन्दू विरोधी प्रयासों के लिए अल्पसंख्यकों को बांटना तो सही था और भगत सिंह को आतंकवादी कहना भी सही था परन्तु यदि संस्कृत को असंवैधानिक रूप से पाठ्य क्रम से निकालने को वापिस ले लिया तो ऐसा कोहराम मचा की मानों प्रलय आ गयी हो .
ठीक यही बात आर्थिक व् सांस्कृतिक मामलों मैं भी हो रही है . स्वदेशी , स्वाबलंबन व् स्वधर्म को व्यर्थ मैं दकियानूसी सिद्ध किया जा रहा है जबकी सच यह है की मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों व् बदलाव की हवा अब पूरी तरह निकल गयी है . अब उसे चले बीस वर्ष हो चुके हैं . देश को अब एक नयी सोच की आवश्यकता है . परन्तु हमारा मिथ्या अभिमान से गैस के गुब्बारे सरीखा फूला हुआ बाबु वर्ग व् आयातित अर्थशास्त्री उन्ही सूखे तिलों से तेल निकालने का प्रयास कर रहे है जो कई बार कोल्हू मैं पिर चुके हैं .
यह सच है की चीन के आर्थिक विकास मैं विदेशी पूंजी का बहुत हाथ था . उसे आज भी हमसे दस गुना विदेशी निवेश मिल रहा है . हमारा व्यापारी वर्ग जानता है की यदि हम चीन की पूंजी को भारत मैं लाना चाहते हैं तो हमें विदेशी निवेशकों को चीन से ज्यादा लाभ व् सुरक्षा देनी होगी. चीन ने विदेशी निवेश को आधुनिक तकनीक के उद्योगों को स्थापित करने मैं लगाया . आज भी चीन के निर्यात का तीस प्रतिशत माल विदेशी निवेश की फक्ट्रियों से बनता है . चीन ने निर्यात इतना बढ़ा लिया है की किसी को भी चीन के पैसा वापिस करने की क्षमता पर संदेह नहीं है . उसके पास विदेशी मुद्रा का अपार भण्डार है . अमरीका सहित पूरा पश्चिमी संसार चीन के बने सस्ते माल पर आश्रित है . अमरीका अपनी डूबते हुए डालर को बचने के लिए चीन से अपने बांड खरीदने की गुहार लगाता है . पश्चिम ने लीबिया की तरह चीन मैं भी कभी छात्रों से प्रजातंत्र की मांग कर क्रांति करने का प्रयास किया था . चीन ने निर्ममता से उसे कुचल दिया. इसलिए अब अमरीका चीन से दबता है . एक बार क्लिंटन के साथ गयी हिलेरी क्लिंटन ने कुछ महिला व् मानवीय अधिकारों की बात कर दी थी चीन ने वहीं रहते उनको धो दिया था . दूसरी तरफ वह अपार सैन्य शक्ति बटोर कर अपने को वैश्विक महा शक्ति बना रहा है .
हम कभी चीन से आगे थे . अगर हम आज भी निश्चय कर लें तो चीन जितना पूंजी निवेश ला सकते हैं . उसके लिए हमें अमरीका के चरण चुम्बन की आवश्यकता नहीं . हमें बाबुओं के बजाय अपने व्यापारी व् उद्योगपति वर्ग को सशक्त करना होगा . कानून ऐसे बदलने होंगे की नियमानुसार भी उचित लाभ हो सके . राजनीतिज्ञों व् बाबुओं पांच सौ करोड़ रूपये तक के स्थापित उद्योगों मैं छोटे विदेशी निवेश की प्रक्रिया से एकदम बाहर निकालना होगा . सिर्फ एक शर्त होनी चाहिए की वह पैसा वापसी अपने नए निर्यात से करेंगी . राजनीतिग्य व् बाबु तो जोकें हैं जो उद्योगों का खून चूस कर ही पनपती हैं . इस लिए वह उद्योगों को नहीं छोड़ेंगी .बाकि निवेश को भी सरल बनाना होगा व् उद्योगों के लिए अधिग्रहित भूमि का बैंक बनाना होगा जिसमें बिजली पानी , सड़क , रेल , टेलीफोन सुविधाएं व् पर्यावरण सम्बन्धी सुविधाएं पहले से ही हों . सिर्फ पूँजी लाओ , फैक्ट्री बनाओ और व् विकास व् निर्यात बढाओ.
समस्या यह है की फिर बाबुओं को चंदा व् चढ़ावा कैसे मिलगा ? अपनी इम्मंदारी के लिए विख्यात मोदी जी से यह आशा तो की जा सकती है की इस प्रक्रिया को राजनीती से दूर कर देश को त्वरित विकास का मौक़ा देंगे .
स्वाबलंबन की मुख्य परिभाषा आर्थिक व् निर्यात के आयात से अधिक होने की होनी चाहिए . खाद्यान व् रक्षा मैं पूर्णतः सक्षम होना अति आवश्यक है . स्वदेशी की परिभाषा पश्चिम से तकनीकी पिछड़ेपन को समाप्त करने की होनी चाहिये. सच यह है की हम आज भी तकनीकी ज्ञान मैं पश्चिम से लगभग तीस वर्ष तो पीछे हैं ही बल्कि नए डिजाईन व् अन्वेषण मैं तो आज भी पचास साल पीछे हैं .
हमारा शिक्षा व् चरित्र का स्तर अत्यधिक खराब हो गया है . उसके सुधार के लिए स्वधर्म की प्रेरणा की आवश्यकता होती है . हमें अपनी विज्ञान व् तकनीकी शिक्षा को बहुत तेजी से सुधारना होगा . स्वधर्म को उसका गौरव दिलाना होगा .
ओबामा के आने की खबर से हमारे आयातित तोते अमरीकी राष्ट्रगीत गाने लगे थे . अब इन्हें भारतीय राष्ट्रगान सिखाने की भी आवश्यकता है . यदि भारतीय उद्योगपतियों दुधारू गाय न समझ उनको समुचित सुविधा दें तो भारत निश्चय ही तेजी से विकास कर सकता है . See More
Rajiv Upadhyay
यह सर्व विदित है की भारतीय मीडिया पूरी तरह से विदेशि…यों के हाथ बिका हुआ है . इसका ज्वलंत उदाहरण मोदी जी का बारह साल से चल रहा चरित्र हनन है जो अभी तक थमा नहीं है . अब उसमें राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ व् हिंदुत्व और जुड़ गए हैं . सोनिया के २३०० करोड़ रूपये हिन्दू विरोधी प्रयासों के लिए अल्पसंख्यकों को बांटना तो सही था और भगत सिंह को आतंकवादी कहना भी सही था परन्तु यदि संस्कृत को असंवैधानिक रूप से पाठ्य क्रम से निकालने को वापिस ले लिया तो ऐसा कोहराम मचा की मानों प्रलय आ गयी हो .
ठीक यही बात आर्थिक व् सांस्कृतिक मामलों मैं भी हो रही है . स्वदेशी , स्वाबलंबन व् स्वधर्म को व्यर्थ मैं दकियानूसी सिद्ध किया जा रहा है जबकी सच यह है की मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों व् बदलाव की हवा अब पूरी तरह निकल गयी है . अब उसे चले बीस वर्ष हो चुके हैं . देश को अब एक नयी सोच की आवश्यकता है . परन्तु हमारा मिथ्या अभिमान से गैस के गुब्बारे सरीखा फूला हुआ बाबु वर्ग व् आयातित अर्थशास्त्री उन्ही सूखे तिलों से तेल निकालने का प्रयास कर रहे है जो कई बार कोल्हू मैं पिर चुके हैं .
यह सच है की चीन के आर्थिक विकास मैं विदेशी पूंजी का बहुत हाथ था . उसे आज भी हमसे दस गुना विदेशी निवेश मिल रहा है . हमारा व्यापारी वर्ग जानता है की यदि हम चीन की पूंजी को भारत मैं लाना चाहते हैं तो हमें विदेशी निवेशकों को चीन से ज्यादा लाभ व् सुरक्षा देनी होगी. चीन ने विदेशी निवेश को आधुनिक तकनीक के उद्योगों को स्थापित करने मैं लगाया . आज भी चीन के निर्यात का तीस प्रतिशत माल विदेशी निवेश की फक्ट्रियों से बनता है . चीन ने निर्यात इतना बढ़ा लिया है की किसी को भी चीन के पैसा वापिस करने की क्षमता पर संदेह नहीं है . उसके पास विदेशी मुद्रा का अपार भण्डार है . अमरीका सहित पूरा पश्चिमी संसार चीन के बने सस्ते माल पर आश्रित है . अमरीका अपनी डूबते हुए डालर को बचने के लिए चीन से अपने बांड खरीदने की गुहार लगाता है . पश्चिम ने लीबिया की तरह चीन मैं भी कभी छात्रों से प्रजातंत्र की मांग कर क्रांति करने का प्रयास किया था . चीन ने निर्ममता से उसे कुचल दिया. इसलिए अब अमरीका चीन से दबता है . एक बार क्लिंटन के साथ गयी हिलेरी क्लिंटन ने कुछ महिला व् मानवीय अधिकारों की बात कर दी थी चीन ने वहीं रहते उनको धो दिया था . दूसरी तरफ वह अपार सैन्य शक्ति बटोर कर अपने को वैश्विक महा शक्ति बना रहा है .
हम कभी चीन से आगे थे . अगर हम आज भी निश्चय कर लें तो चीन जितना पूंजी निवेश ला सकते हैं . उसके लिए हमें अमरीका के चरण चुम्बन की आवश्यकता नहीं . हमें बाबुओं के बजाय अपने व्यापारी व् उद्योगपति वर्ग को सशक्त करना होगा . कानून ऐसे बदलने होंगे की नियमानुसार भी उचित लाभ हो सके . राजनीतिज्ञों व् बाबुओं पांच सौ करोड़ रूपये तक के स्थापित उद्योगों मैं छोटे विदेशी निवेश की प्रक्रिया से एकदम बाहर निकालना होगा . सिर्फ एक शर्त होनी चाहिए की वह पैसा वापसी अपने नए निर्यात से करेंगी . राजनीतिग्य व् बाबु तो जोकें हैं जो उद्योगों का खून चूस कर ही पनपती हैं . इस लिए वह उद्योगों को नहीं छोड़ेंगी .बाकि निवेश को भी सरल बनाना होगा व् उद्योगों के लिए अधिग्रहित भूमि का बैंक बनाना होगा जिसमें बिजली पानी , सड़क , रेल , टेलीफोन सुविधाएं व् पर्यावरण सम्बन्धी सुविधाएं पहले से ही हों . सिर्फ पूँजी लाओ , फैक्ट्री बनाओ और व् विकास व् निर्यात बढाओ.
समस्या यह है की फिर बाबुओं को चंदा व् चढ़ावा कैसे मिलगा ? अपनी इम्मंदारी के लिए विख्यात मोदी जी से यह आशा तो की जा सकती है की इस प्रक्रिया को राजनीती से दूर कर देश को त्वरित विकास का मौक़ा देंगे .
स्वाबलंबन की मुख्य परिभाषा आर्थिक व् निर्यात के आयात से अधिक होने की होनी चाहिए . खाद्यान व् रक्षा मैं पूर्णतः सक्षम होना अति आवश्यक है . स्वदेशी की परिभाषा पश्चिम से तकनीकी पिछड़ेपन को समाप्त करने की होनी चाहिये. सच यह है की हम आज भी तकनीकी ज्ञान मैं पश्चिम से लगभग तीस वर्ष तो पीछे हैं ही बल्कि नए डिजाईन व् अन्वेषण मैं तो आज भी पचास साल पीछे हैं .
हमारा शिक्षा व् चरित्र का स्तर अत्यधिक खराब हो गया है . उसके सुधार के लिए स्वधर्म की प्रेरणा की आवश्यकता होती है . हमें अपनी विज्ञान व् तकनीकी शिक्षा को बहुत तेजी से सुधारना होगा . स्वधर्म को उसका गौरव दिलाना होगा .
ओबामा के आने की खबर से हमारे आयातित तोते अमरीकी राष्ट्रगीत गाने लगे थे . अब इन्हें भारतीय राष्ट्रगान सिखाने की भी आवश्यकता है . यदि भारतीय उद्योगपतियों दुधारू गाय न समझ उनको समुचित सुविधा दें तो भारत निश्चय ही तेजी से विकास कर सकता है . See More