क्यों सरल भूमि अधिग्रहण राष्ट्र की आर्थिक व् औद्योगिक प्रगति के लिए आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य है : वाराणसी के रेल इंजन व् राय बरेली के कोच फैक्ट्री के दृष्टांत
भारत जब स्वतंत्र हुआ था तो उसकी अस्सी प्रतिशत आबादी कृषि पर आश्रित थी . भारत मैं सड़कों का , सिंचाई की सुविधाओं का व् उद्योगों का अत्यन्त अभाव था . इन सब के लिए भूमि अधिग्रहण की अत्यंत आवश्यकता थी . इसलिए हमारे संविधान मैं सार्वजानिक कार्यों के लिए भूमि अधिग्रहण को न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा था जिससे देश के विकास के लिए आवश्यक प्रोजेक्ट वर्षों न्यायालयों मैं लंबित न रहें . इसका अच्छा परिणाम यह हुआ कि आज जब आबादी तैतीस करोड़ से लगभग ११० करोड़ हो कर चार गुना बढ़ चुकी है , परन्तु आज देश की मात्र ६० % आबादी ही कृषि पर आश्रित है. परन्तु यह साठ प्रतिशत लोग देश के सकल उत्पादन का मात्र १३ प्रतिशत हिस्सा देते हैं .शेष चालीस से पैंतालिस करोड़ जनसंख्या अन्य तरीकों से जीवन यापन कर रही है . निकट भविष्य मैं गरीबी कम करने के लिए अभी और तीस करोड़ लोगों को कृषि के अतिरिक्त जीवन यापन की सुविधाएं देनी होंगी. सिंचाई की व्यवस्था भी बढानी होगी. इसके लिए और भूमि का अधिग्रहण आवश्यक है. इस दौरान देश का खाद्यान्न उत्पादन भी चार से पांच गुना बढ़ गया . सिंचाई सुविधा वाली कृषि की भूमि १८.८४ मिलियन हेक्टेयर से बढ़ कर ५४ मिलियन हेक्टेयर हो गयी जिससे भारत की कृषि अब पहले की तरह पूरी तरह वर्षा पर आश्रित नहीं . खेती की भूमि १३००० हज़ार हेक्टेयर से बढ़ कर १८००० हज़ार हेक्टेयर हो गयी .कृषि की उत्पादकता बढ़ने से किसान की आय बहुत बढ़ गयी . परन्तु जनसंख्या पढने से अब एक किसान के पास कृषि की भूमि बहुत कम रह गयी है .यद्यपि बहुत लोग क्गेती छोड़ दुसरे धंधों मैं लग गए है नहीं तो स्थिति और भी खराब होती. इसलिए भूमि अधिग्रहण के संविधान के विशेष प्रायोजनों के अपेक्षित अच्छे परिणाम अवश्य मिले .
कालांतर मैं इस प्रावधान का राजनितिक दुरूपयोग होने लगा व् किसान को उसकी भूमि का समुचित मुआवजा नहीं मिलता था . बड़े डैम बनाने से विस्थापित लोगों को दशकों तक पुनर्वास या मुआवजा नहीं मिला . इसके कारण न्यायालयों ने इसमें दखल देना शुरू कर दिया . फिर शहरीकरण के लिए भूमि के दाम इतने बढ़ गए की दिल्ली , नॉएडा ,गुडगाँव इत्यादि के किसान अपनी भूमि बेच कर रातों रात करोडपति हो गए . इसके बाद भूमि के दामों मैं जो अप्राकृतिक उछाल आया वह उसकी वास्तविक कीमत या खेती की आय से कई गुना अधिक था . अब बात उचित मूल्य की नहीं रह गयी है बल्कि शहरीकरण से जो जमीन के दामों मैं वृद्धि हुयी है उसका लाभ जमीन के मालिकों को देने की है . किसी हद तक इसमें लाचारी के अतिरिक्त किसान के लालच या अधिकारों का भाव भी समावेश हो गया है.
ममता बनर्जी , वी पी सिंह व् राहुल गाँधी इत्यादि ने अपनी राजनीती इसे से चमकाई.
अब नितीश कुमार भी अपने मोदी विरोध को नयी रणनीति मैं भूमि आन्दोलन से चमकाना चाह रहे हैं .वह जानते हैं की उनके रहते बिहार मैं नए उद्योग तो आयेंगे नहीं तो क्यों न मुफ्त मैं किसानों के मसीहा बन जाएँ .
पर भ्रष्ट सोनिया कांग्रेस सरकार अपनी कुर्सी व् जान बचाने के लिए, जाते जाते कई ऐसे कदम उठा गयी जिससे भारत का आर्थिक विकास सदा के लिए अवरुद्ध हो गया और इससे देश मैं जो मंहगाई की मार पड़ी तो उसे कोई बचने का रास्ता भी नहीं बचा . कांग्रेस तो चली गयी पर देश का सत्यानाश सदा के लिए कर गयी .भूमि अधिग्रहण का कोंग्रेसी कानून भी उन्हीं आर्थिक अवरोधों मैं से एक था जिन्होंने भारत का औद्योगिक विकास सदा के लिए समाप्त कर दिया था .इसमें परिवर्तन अनिवार्य था.
साधारण भाषा मैं कहें तो यदि नए उद्योगों को लगाने के लिए आवश्यक ज़मीन नहीं मिलेगी तो क्या वह हवा मैं लगेंगे . दूसरा यदि भारत मैं एक कार फैक्ट्री के लिए सोने के दाम जमीन खरीदनी पड़ेगी तो क्या पास के थाईलैंड मैं जहां जमीन सस्ती है , वहां सारी विदेशी पूंजी नहीं चली जायेगी . उदाह्रंतः यमुना एक्सप्रेस वे के लिए भूमि का अधिग्रहण २५००० डालर प्रति एकड़ की दर पर हुआ जबकि यूरोप व् अमरीका मैं जमीन की कीमत मात्र २५०० डालर प्रति एकड़ है . तो यदि भारतीय उद्योग जमीन की दस गुना कीमत देंगे तो उसे कहाँ से वसूल करेंगे . इस लिए आज की वैश्वीकरण के युग मैं इस विषय का अध्ययन इक तरफ़ा नहीं हो सकता . यदि भारत का औद्योगिक विकास करना है तो भूमि अधिग्रहण तो करना ही पडेगा .यदि खाली या पड़ती जमीन मिल जाये तो बहुत अच्छा है अन्यथा कृषि की भूमि ही लेनी होगी .
उद्योगों के उपयोगिता जानने के लिए पहले हम प्रधान मंत्री के क्षेत्र वाराणसी व् सोनिया गाँधी के क्षेत्र राय बरेली के रेल कारखानों को लेते हैं . वाराणसी का डीजल इंजिन बनाने का कारखाना सन १९६१ मैं १३०० एकड़ ज़मीन पर लगा था . आज उसमें ४५०० मजदूर काम करते हैं और उसके ३००० सेवा निवृत कर्मचारी अपने आज के होने वाले वेतन से आधी पेंशन पा रहे हैं . इस कारखाने मैं २५० इंजिन प्रतिवर्ष बनते हैं व् उसके सकल उत्पाद की सालाना भारतीय कीमत ३००० करोड़ है और अंतर्राष्ट्रीय कीमत ७००० करोड़ रूपये है जिसमें से लगभग आधा इसी कारखने मैं होता है और आधा भारत के अन्य क्षेत्रों जैसे भोपाल के बी एच ई एल इत्यादि से आता है . यदि एक परिवार भरण पोषण के लिए पांच एकड़ भूमि मानी जाय तो इतनी भूमि से कृषि से सिर्फ २६० परिवार पल सकते थे. इसके अलावा उन परिवारों की वार्षिक आय मात्र एक लाख रूपये ही होती . इस कारखाने से ७५०० से अधिक परिवारों को औसतन २-३ लाख रुपये प्रतिवर्ष की आय होने लगी .इसके अलावा अधिक आय से शहर की अन्य सुविधाओं को मुहैया करने मैं लगभग ७५०० और लोगों को रोजगार मिला . कुल मिला कर इस कारखाने से कृषि के मुकाबले अंदाज़न ७० गुना अधिक लोग रोजी रोटी कमा रहे हैं .
इसी प्रकार राय बरेली की कोच फैक्ट्री के लिए १३४० एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया गया . आज इसमें ४००० मजदूर काम करते हैं . कृषि से सिर्फ २५० परिवारों का पेट पल सकता था वह भी पानी की कमी के कारन असंभव था. उद्योगों से ३० गुना अधिक परिवारों का पेट पल रहा है . यह कहा जा सकता है की रेलवे कारखानों मैं वेतन व् मजदूर अधिक होते हैं . तो भी यदि निजी क्षेत्र मैं ४० % रोजगार व् चालीस प्रतिशत ही वेतन मन जाय तो भी उद्योगों मैं कृषि से १५ गुना अधिक लोग जीवन यापन कर सकते हैं . पश्चिम मैं कम जन संख्या के कारण अधिक आधुनिकीकरण है और शायद २०% लोग ही इतना उत्पादन कर सकते हैं . यदि भारत मैं मजदूरी बढानी है तो अन्य चीज़ें जैसे बिजली , भूमि , किराये , पेट्रोल , डीजल तो सस्ते करने होंगे . अन्यथा क्यों कोई भारत के महंगे उत्पाद को खरीदेगा .
इसलिए यदि सरकार उद्योगों की मदद करती है तो यह आज की आवश्यकता है . इसे रक्षा व् विदेश नीति की तरह ही राजीनीति से दूर रखने की अति आवश्यकता है .
किसानों को चालीस साल के बांड जिन पर जीवनोपरांत कृषि बराबर आय मिलती रहे या एक नौकरी देना भी एक समाधान हो सकता है .बाद मैं यह बांड व् नौकरी उनकी संतानों को मिल सकते हैं . परन्तु हर हालत मैं भारत जैसे बढ़ती आबादी वाले देश मैं नए उद्योगों का लगना अत्यंत आवश्यक है. इसके लिए भूमि अधिग्रहण को सरल बनाना व् राजनीती से दूर रखना अति आवश्यक है .