भारतीय रेल का शनैः शनैः निजीकरण की चाल : देश भक्ति की सज़ा या जनता व् देश की सर्व श्रेष्ठ सार्वजानिक संस्था के साथ बहुत बड़ा धोखा है : The best way to modernise the railways would be to break the state monopoly – Economist Article
अंग्रेजी मैं एक कहावत है ‘ Fools rush where angels fear to tread ‘ .
भारतीय रेल की भारतीयता को को समाप्त करने के लिए कितने लालची सेठ आतुर हैं इसका अंदाजा इसे से लगा लीजिये की हर दुसरे साल कोई न कोई कमेटी बना दी जाती है जो निजी करण का कान घूम फिर कर पकड़ने के लिए सुझा देती है . देश की बेशुमार गरीब जनता का हित किस में सर्वोपरी है उसे कोई नहीं देखता .
ज़रा सोच के देखिये की पिछले सौ से अधिक सालों से चल रही गाडी कालका मेल या फ्रंटियर मेल कितनी बार नहीं चली ?
सिवाय बाढ़ या बहुत बड़ी प्राकृतिक आपदा को छोड़ कर कभी ऐसा नहीं हुआ की कालका मेल या फ्रंटियर मेल नहीं चली हो . देश मैं अनेकों अच्छी या बुरी सरकारें आयीं पर रेलवे की गाड़ियाँ जनता की सेवा मैं सदा चलती रहीं . जब जब युद्ध हुए भारतीय रेल ने बिना झिझक सब काम रोक कर पहले सेना को रसद पहुंचाई है . भला हो अंग्रेजों का जो रेलवे बोर्ड व् अलग बजट बना कर रेलवे को राजनीतिज्ञों के चंगुल से बचने का रास्ता बना गए . आई सी एस तो तब भी था , पर रेलवे को क्यों अलग रखा था . इसी ने रेलवे को बचा दिया.
भारतीय रेल को न समझने वाले बाहरी विशेषग्य हर साल या दो साल मैं एक रिपोर्ट बना देते हैं जिसमें रेलवे के शनैः शनैः निजीकरण को राष्ट्रीय आवश्यकता बता दिया जाता है . अब नीचे लिखा यह विदेशी मैगज़ीन का लेख भी पढ़ लें . इसके युधिष्टिर के ‘अश्वत्थामा हतो नरो न कुंजरो ‘ के जैसे झूठ से गुरु द्रोंण की तरह देश की जनता भी भ्रमित हो जाएगी व् धृष्ट दुम्न सरीखे विदेशी धन्ना सेठ इसी आपा धापी मैं धोखे से भारतीय रेल की ह्त्या कर देंगे .
इसके झूटों को एक एक कर सिद्ध करते हैं .
अक्सर यह कहा जता है की भारतीय रेल के किराये राजनितिक कारणों से नहीं बढाए गए . यह सच है की हमारी लोकल ई एम् यूं गाड़ियां अत्यधिक सस्ती हैं . परन्तु सस्ती चीज़ें तो हर राजनीतिग्य दे रहा अहि . कोई चावल बाँट रहा है तो कोई टीवी बाँट रहा है . कोई लैप टॉप बाँट रहा है . और सबसे बड़ी सब्सिडी तो मंनरेगा व् खाद्यान बिल हैं . उन्होंने तो देश की अर्थ व्यवस्था की कमर ही तोड़ दी . यदि सब्सिडी की ही बात करें तो क्या हम बूचड़ खानों को हड्डी से मांस निकलने की सब्सिडी नहीं देते ?
क्या रेल मंत्री अकेले हैं जो किराये कम रख रहे हैं ?
यह तो पिछले दस वर्षों की संस्कृति है . इन दस वर्षों मैं सब्सिडी वाजपेयी जी के ज़माने मैं ४८००० करोड़ से बढ़ कर २००००० करोड़ से ज्यादा हो गयी . दूसरी भाषा मैं सब्सिडी देश के सकल घरेलु उत्पादन का १. % से बढ़ कर २.६ प्रतिशत हो गयी . और इसका खामियाजा किसने उठाया ? रक्षा बजट घट कर देश के सकल उत्पादन का १.७६ % रह गया . देश के रक्षा व्यवस्था की कमजोरी ही है जो चीन और पाकिस्तान आज हमें आँखें दिखाते हैं और मुंबई या संसद पर हमले होते हैं . रक्षा मंत्रालय को रेल मंत्रालय की तरह होना चाहिए .
भला हो अलग रेल बजट का नहीं तो रक्षा मंत्रालय की तरह रेलवे भी चौपट हो जाती . रेलवे मैं टैंक हैं पर गोले नहीं जैसी स्थिति तो कभी नहीं आयी . कालका मेल तो सौ सालों से रोज़ चली है .
भर्ष्टाचार पूरे देश की समस्या है . उसका उन्मूलन बहुत आवश्यक हैऔर प्रक्रिया शुरू भी हो गयी है . हम उसका व् सरकार के प्रयासों का पूर्ण समर्थन करते हैं .
फिर भी रेलवे मैं यह कम है . रेलवे सिर्फ टीटी नहीं है .टीटी तो एक बहुत छोटा अंग होता है . पर उसमें भी ज़रा सोचिये कभी आपने अपनी रिजर्व्ड सीट पर बैठने के लिए पैसे दिए हैं , नहीं न यह तो अधिकार है ! पर अपने नए घर मैं बिजली का नया कन्नेक्शन लगवाने , घर की रजिस्ट्री करवाने ,कार ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने के अनुभवों को मिलाइए . आज दिल्ली मैं घर बनवाना शुरू कीजिये अगले पोलिस आ जाती है ? क्यों ?
अब बोफोर की तोपों या हेल्कोप्तारों की खरीद की बारे मैं सोचिये . कोल ब्लाक , २ जी , सीदाब्ल्यु जी की सोचिये . रेलवे पर रोज़ आरोप मात्र बाबुओं के दो वर्गों की लड़ाई है . अन्यथा यह तो अंग्रेजी की कहावत है ‘ pot calling the kettle black ‘ की तरह ही है . परन्तु हम फिर भी कहेंगे की भ्रष्टाचार जहां भी हो उसे रोकना चाहिए परन्तु झूठमूठ के स्वांग नहीं रचने चाहिए .
अब बहुत बार कही जाने वाली अन्य बातें भी लें . जनता के हित मैं भारतीय रेल ने सदा नए सस्ते विकल्प ढूंढें हैं .
लेख और उसके पीछे के छद्म रिफोर्म वादी समर्थक , अश्वत्थामा नरो न कुंजरो की तरह यह छुपा लेते हैं की जब देश की आबादी बढ़ी तो रेलवे ने नए महंगे ट्रैक बनाने के बजाय सस्ते मैं गाड़ियाँ लम्बी कर दीं .पहले आठ कोच की गाडी चलती थीं अब चौबीस कोच की कर दीं . हर नयी एल एच बी कोच को लंबा कर दिया और १५ % सीट बढ़ा दीं .अब डबल डेकर कोच शुरू कर दीं . सामान्य जनता की सुविधा के लिए ए सी ३ टियर कोच बना दी . यही माल गाड़ियों के साथ किया . पहले एक डिब्बे मैं मात्र २२ ट न माल जा सकता था अब लगभग ६६ टन जाने लगा है . पहले एक माल गाड़ी मैं १४०० टन माल जाता था आज लगभग ४००० ट न जाता है . मोदी जी तो आज मेड इन इंडिया कह रहे हैं , भारतीय रेल ने १९५० मैं ही स्वदेशी उत्पादन की नीव डाल दी थी . आज हम हवाई जहाजों की तरह रेल इंजन या कोच आयात नहीं करते हैं . अगर देश के अन्य बाबुओं की तरह भारतीय रेल होती तो हर जगह बोफोर वाली कमीशन खोरी हो रही होती . और यह भी जान लें की रेलवे के अपने कारखानों मैं बने रेल डिब्बे व् इंजन विश्व के सबसे सस्ते इंजन हैं . जो इंजन भारत मैं पांच करोड़ मैं बनता है वह आयात करने पर दस से बारह करोड़ का पड़ता है . यही हाल हमारे डिब्बों का है . और हमारे प्राइवेट सेक्टर के वैगन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इतने सस्ते नहीं हैं . एक विदेशी कंपनी ए बी बी यही खोजती रही की भारतीय रेल इतने सस्ते मैं इंजिन कैसे बना लेती हैं .
भारतीय रेल यदि निजी करण से अच्छी हो जाय तो अवश्य कीजिये . पर यह कम्पटीशन के अभावमैं निजी करण से बिगड़ जायेगी .प्राइवेट सेक्टर बिना कम्पटीशन के डंडे के , सिर्फ जनता का खून चूसता है . एम्बेसडर कार चालीस साल प्राइवेट सेक्टर मैं बनी . उसने क्या कद्दू मैं तीर मार लिए . टेलीफोन से तुलना भ्रामक है क्योंकि वहां बेहद कम्पटीशन है जो रेल मैं संभव नहीं है .
रही बात पूँजी की तो यह तो देश की जनता पर टैक्स से ही ली जाएगी चाहे उसे आय कर कह लें या रेल किराया बात एक ही है . पूँजी से बिजली घर बनेंगे या नयी लाइन यह तो सदा संसद ही तय करेगी .
रेल के किराये बढ़ाने के लिए कोई संस्थागत परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है . अगले बजट मैं बढ़ा लें . पर उसे रिफार्म के नाम पर बर्बाद न करें !
पर देश की सर्वोत्कृष्ट संस्था को इस झगड़े मैं मत डालो . उसे चुप चाप देश की गरीब जनता की सेवा करने दो . प्राइवेटाइजेशन के लिए इतने नए उपयुक्त क्षेत्र हैं उन्हें खोजें .
जनता को सचेत हो कर भारतीय रेल को बिना प्रत्यक्ष सार्वजानिक बहस के इस रिफार्म के ओट मैं गिद्ध दृष्टी से बचाना चाहिए !
चीन से क्या तुलना . हम किस क्षेत्र मैं चीन के बराबर हैं ? तो फिर रेलवे ही क्यों बर्बाद करें ?
The best way to modernise the railways would be to break the state monopoly – Economist Article
May 23rd 2015
In need of private input
A WHIRL OF activity fills the dimly lit carriage. Passengers jostle and rip open paper bags containing linen for their bunks. It is a relief to leave the stench of Bangalore station, where tracks double as latrines. The Hospet overnight service departs a few minutes late, trundles along for 400km (250 miles) and arrives on time at dawn.
Like all Indian trains, it is crammed. Its cabins are worn and a bit grubby, the toilets holes in the floor. It is also cheap. A nine-hour trip on the best, air-conditioned berths costs 3,200 rupees ($50) for a family of four. Ticket prices were frozen by populist politicians
who long ran the network, and only recently started to rise modestly.The railways are a huge business: each day 19,000 trains carry 23m people and 3m tonnes of freight. But the state-owned monopoly is badly run. A former cabinet minister points to overstaffing, factionalism and bureaucracy.
A comparison with China is instructive. In 1990 that country had less track than India, but since then China’s rail network has grown by well over half, to 112,000km, whereas India’s has remained much the same, at 65,000km. As a share of GDP, China invests three times as much in its railways as India does. Spending per person is 11 times higher.
India’s politicians levied high freight charges to subsidise cheap rides for passengers.
That diverted goods to less efficient, more polluting, overcrowded roads. Now rail carries just 30% of India’s freight, compared with 65% in the 1970s. Delivering coal to power plants is a crucial task for railways in both countries. In India this is a third costlier than in China, and a third slower—one reason for so many power cuts.
In a test of its efforts at state-directed modernisation, the new government wants to fix this. An official estimate suggests that for every rupee that the output of the railways goes up, the economy as a whole will be lifted by 3.3 rupees as other industries benefit from
improved efficiency. Suresh Prabhu, the capable railways minister, plans a capital spending splurge of $140 billion over five years. He plans to introduce marketmechanisms where possible. To stimulate competition, he is creating 20 state-run corporations and perhaps 60 special-purpose vehicles that will be given autonomy to run parts of the network. Private (including foreign) partners can take part in much of this.
Eventually units that run schools and hospitals and produce bottled water could be sold 0ff.
But outright privatisation of the country’s oldest government institution is not envisaged. The industry’s 1.3m employees and strong unions would not wear it.
In an early experiment, beginning in Bhopal, private investors will get the chance to overhaul decrepit railway stations. Thanks to better management, punctuality, revenues,safety, catering and hygiene are also improving. Traffic is up by 15% this year, says Mr Prabhu, and will rise steeply next year.
Adding tracks is harder. In the long-promised Delhi-Mumbai freight corridor, which is meant to open by 2019, the previous government managed to award only 600km of a 1,500km line to contractors.
“What matters is to be market-friendly, completely transparent,” says Mr Prabhu.
Crucially, he needs to make it impossible for any successor to return to the old political meddling, when employment and tracks were handed out (and sold) to cronies. Somepowers currently held by the minister will soon be devolved to an independent regulator.
“I am rushing to give my powers away,” says Mr Prabhu, “so no populist politician would again want to have this job.”