दाल में बहुत कुछ काला है : देश की सरकारों की बेरुखी का पूर्ण सत्य जानिए
आज अरहर दाल की कीमत २३० रूपये किलो तक पहुँच गयी है और देश मैं त्राहि त्राहि मची हुयी है . सरकारी तंत्र एक दुसरे पर दोषारोपण कर रहा है . केंद्र राज्यों को जमाखोरी न रोक पाने के लिए दोषी ठहरा रहा है . पूरी सरकार की इस फजीहत से प्रधान मंत्री जी की कार्य शैली की सफलता पर भी प्रश्न चिन्ह लग गया है .
आखिर वर्षों से दाल की समस्या इतनी विकराल तो नहीं थी तो अब क्या हो गया जो न केवल सारी की सारी दाल ही काली हो गयी परन्तु यह कालिख सरकार के मुंह पर भी पुत गयी ? २००७ से सरकार ने MMTC,STC,PEC& NAFED ओ दल आयात करने की जिम्मेवारी दी थी .यह सब समय पर दाल आयात कर ठीक ठाक काम कर रही थीं .सरकार ने दाल के आयात पर सब्सिडी भी दी . इन कंपनियों को सस्ती दल बेचने से १२०० करोड़ का घाटा होता था जो सरकार पूरा कर देती थी .
यदि मात्र इस वर्ष की बात करें तो समस्या यह है कि दाल के उत्पादन करने वाले क्षेत्रों मैं बारिश कम हो गयी . इससे दल का उत्पादन १९.२५ मि टन से घट कर १७.३८ मि टन रह गया . दाल की खपत २२ मिलियन टन की है. सरकार को यह पता होना चाहिए था व् दाल का आयात का आदेश बहुत पहले दे देना चाहिए था . पर बाबुओं को तो अपनी जान बचानी है इसलिए टेंडर मैं कोई खामी होने से उसे दुबारा करने का निर्णय लिया . उसमें भी बाबुओं की सीबीआई से रक्षा वाले पहले वाले कानून होते तो शायद कोई हिम्मत भी कर लेता की बाज़ार भाव पर एक मिलियन टन दाल और आयात कर लेता . पर भारत ही दालों का प्रमुख उत्पादक व् उपभोक्ता है . विश्व मैं दालों का उत्पादन बहुत अधिक नहीं है और कुल विशव का निर्यात मात्र १६ मिलियन टन ही है . भारत मैं दाल के उत्पादन मैं यदि कमी हो जाय तो विश्व मैं कीमतें बहुत बढ़ जाती हैं . बढ़ी कीमतों पर इतनी दाल कौन खरीदता. उधर थोक के व्यापारियों ने एक बड़ा पैसा बनाने का मौक़ा ताड़ लिया . यह कोई नहीं पूछ रहा की जब थोक के भाव नहीं बढ़ रहे तो खुदरा भावों में क्यों आग लग गयी .उत्तर स्पष्ट है की बिचौलिए व् जमाखोरों की चांदी हो गयी है . सरकारी छापे कितनी दुकानों पर पड़ेंगे ?
इसका इलाज़ इंदिरा गाँधी ने समझ लिया था व् बैंकों को खाद्यान के भण्डार के लिए क़र्ज़ देने पर रोक लगा दी थी . जब से यह रोक हटी है तबसे जनता खून के आंसू पी रही है . नीचे के ग्राफ से साफ़ है की थोक और खुदरा मूल्यों में अंतर बैंक क़र्ज़ खुलने के बाद से बहुत बढ़ गया है . इसलिए इस बड़ी हुयी मुनाफाखोरी की जिम्मेवार मात्र सरकार है .
सरकार जानते हुए भी खाद्यान भंडारण के लिए पर बैंकों के कर्जों पर इंदिरा गाँधी की तरह रोक नहीं लगा रही . इसलिए अब कभी प्याज सरकार को रुलाएगा तो कभी दाल कभी कुछ और . तिस पर रिज़र्व बैंक इन जमाखोर व्यपारियों के चलते उद्योगों को कर्जा महंगा कर और नैया डुबो रहा है . एक तरफ महंगाई और दूसरी तरफ नौकरियों का अकाल ? कौन बचाएगा इससे, सरकारी बाबु ?
सरकार कोयला घोटाला मैं उच्च अफसरों को फंसा कर देश को अंततः नुक्सान ही हुआ.
डरा बड़ा बाबु तो मरा बड़ा बाबु होता है . बड़े फैसलों के लिए बड़े साहस की जरूरत होती है. यदि साहसिक फैसले लेंगे तो गलतियां भी होंगी .उनपर जान लेंगे तो फिर क्यों साहस दिखाएगा .इस सीबीआई / विजिलेंस राज को बंद करना होगा नहीं तो ऐसी समस्याएं आती रहेंगी .
परन्तु दाल की वास्तविक समस्या इस वर्ष की ही तो कम उपज नहीं है ? यह तो एक लम्बी कहानी है जिस मैं अनेकों खलनायक हैं .
वास्तव मैं शाकाहारी भारत मैं जो शरीर के विकास के लिए आवश्यक प्रोटीन के लिए दाल पर निर्भर है , १९६० से पिछले पचास वर्षों मैं प्रति व्यक्ति दाल की खपत सन १९६० में ७० ग्राम प्रति दिन प्रति व्यक्ति से घट कर सन २००९ में मात्र ३९ ग्राम रह गयी है . इसलिए औसतन भारतीय की लम्बाई बढ़ने के बजाय घटेगी . यह कमी इस लिए हुई की भारत मैं सब तरह की दालों का उत्पादन इस समयावधि में ५.५ मि टन से बढ़ कर ६.७५ मि टन हुआ जब की आबादी ढाई गुनी बढ़ गयी . देश ने दाल का आयात करना शुरू कर दिया पर आयात तो महंगा होता है . इसलिए दाल के दाम बढ़ते गए . यु पी ए – २ सरकार मैं जब मन आया तो आयात खोल दिया और जब मन आया तो बंद कर दिया की नीति अपनाई . कोई दाल का भण्डार नहीं बनाया . इसलिए विश्व मैं और भारत मैं किसान दाल की खेती बढाने के लिए उत्साहित नहीं हुए .
परन्तु गेहूं या चावल मैं तो ऐसा नहीं हुआ . आज भारत गेंहूँ व् चावल दोनों का निर्यात कर रहा है . चावल के तो हम विश्व के सबसे बड़े निर्यातक देश हैं . तो फिर दाल ही में क्यों फिस्सडी रह गए ?
वास्तव मैं नेहरूजी के समय में वैज्ञानिक बोर्लौग द्वारा गेहूं की ज्यादा पैदावार वाली किस्में विकसित करने पर ध्यान दिया जा रहा था . हरित क्रांति ने गेहूं का उत्पादकता को बहुत बढ़ा दिया . ऊपर से समर्थन मूल्य इतने बढ़ा दिए गए कि देश का किसान गेहूं आवश्यकता से अधिक पैदा करने लगा . यही हाल चावल का हुआ . परन्तु दाल की उत्पादकता ५०० – ७०० किलो / हेक्टेयर तक ही पहुंची . अरहर दाल का समर्थन मूल्य भी २००३-४ में १३ रूपये किलो से बढ़ा कर २०१० मैं ३० रूपये कर दिया . परन्तु इस मैं कम उपज के कारण किसान को फायदा नहीं है .
सरकारी समार्थन ने व् विकसित सिंचाई ने देश को चावल का सबसे बड़ा निर्यातक बना दिया
परन्तु दाल व् तिलहन के साथ बहुत सौतेला व्यवहार हुआ . उनको अपने हाल पर छोड़ने के बहुत बड़ी कीमत देश ने चुकाई . आज किसान को दाल उगाने से प्रति हेक्टेयर मात्र ८०१४ रूपये की आय होती है जबकि गेहूं उगाने से ३४००० रूपये की ( २००९) . तो कौन किसान भूखों मरने के लिए दाल उगाएगा ? दाल की उत्पादकता पचास सालों मैं नाम मात्र को ४०- ५० प्रतिशत बढ़ी है . इसी समय मैं गेहूं की उत्पादकता पांच गुनी व् आलू की उत्पादकता दस गुनी बड़ी है .
परिणामस्वरूप आज भारत १२ मिलियन टन खाने का तेल ( भारतीय उत्पादन ८ मिलियन टन ) ६०००० करोड़ रूपये का खाने का तेल व् $ २.८ बिलियन ( १८००० करोड़ ) की दालें ( ५० लाख टन ) आयात कर रहा है जो देश की आवश्यकताओं का ६० प्रतिशत व् ३०% प्रतिशत है . कुछ वैज्ञानिक दबी जबान से रिसर्च को उचित प्रोत्साहन न देने की बात भी करते हैं . क्या कोई देशी या विदेशी हसतक्षेप है तो हमें नहीं पता. वरना जो देश दूध , गेहूं , चावल मैं क्रांति ला सकता है वह तिलहन व् दालों मैं क्यों फिस्सडी रह गया .
दाल में अवश्य कुछ काला है .
यदि भारत से नहीं हुआ तो इजराइल की सरकारी प्रतिष्ठानों को इन दो फसलों की कम पानी मैं उत्पादकता बढाने का सरकारी स्तर पर बिना टेंडर के ठेका दे दें . वह खजूर के साथ यह जादू कर चुका है और सात वर्षों मैं वह उन्नत प्रजाति के बीज विकसित कर देगा . वैसे यदि बाबुओं को हटा दिया जाय और वैज्ञानिकों को प्रोत्साहन के साथ निर्बाध व्यय की राशि दे दी जाय तो भारतीय वैज्ञानिक भी शायद सात साल मैं यह करतब दिखा सकते हैं . दोनों मैं खुली स्पर्धा होने दें . परन्तु बाबु हैं कि मानते ही नहीं . एक वैज्ञानिक पर सौइयों चौकीदार हैं .
पर यदि सरकार को जनता की ज़रा भी चिंता है तो झूठ मूठ के आरोपों या दिलासे देने के बजाय इंदिरा गाँधी की तरह सबसे पहले खाद्यान के भण्डारण के लिए बैंक लोन पर रोक पुनः लगाये . यही पिछ्ले सात वर्षों की मंहगाई का वास्तविक कारण है .
पर यदि जो बोले वही कुंडी खोले , तो चुप ही रहना अच्छा है !