सेना व् सैन्य बलों को राजनीती ,मीडिया व् न्यायालयों से दूर ही रखना श्रेयस्कर है
हाल के कुछ दिनों मैं एक बुरा बदलाव देखने मैं आया है जो राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध हो सकता है .
एक बी एस ऍफ़ के जवान ने फेसबुक पर खराब खाने की शिकायत भरा एक विडियो डाल दिया . उसे तुरंत देश द्रोही मीडिया ने बढचढ के उछाला . और तो और एक व्यक्ति की शिकायत पर किसी न्यायलय ने उस पर सुनवाई करने का फैसला ले लिया. इसके पहले कश्मीर मैं सैन्य बालों की खूब बुराई हुयी थी .पुलिस व् सेना पर पत्त्थर फैंकने वाले हीरो बन गए . उन्हें जेल से छोड़ दिया गया और गोली से मरने वालों को मुआवजा भी दिया गया . भला पत्थर फैंकने वालों से क्यों कोई सहानुभूति दिखा रहा है . अब यदि महिलाओं या बाल आत्मघाती आतंकवादियों को मैदान मैं उतारा जाएगा तो सेना की गोली उन पर अवश्य चलेगी. उनका कवच के रूप मैं प्रयोग करना बुरा है उन पर गोली चलाना नहीं .
सेना देश की अंतिम रक्षा पंक्ति है .उस के काम मैं दखल देना देश के लिए घातक सिद्ध होगा . वही सेना आतंकियों से लडती है और वही पाकिस्तान से . उसकी सफलता के लिए स्वायत्ता व् अनुशासन बहुत आवश्यक है .सेना की परम्पराओं मैं किसी तरह का हस्तक्षेप तब तक उचित नहीं है जब तक कोई बड़ी लक्ष्मण रेखा पार नहीं हो . अन्यथा सेना को सेना के अपने कानूनों मैं चलने देना चाहिए .यही हाल सीमा सुरक्षा बल व् अन्य सैन्य बालों का है .उनको सैनिकों को अनुशासन की लकीर नहीं लांघने दी जा सकती .हमारी सेना का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा है और उस पर पूर्ण विश्वास किया जा सकता है .
इस नयी विडियो को ही लें . यदि किसी मेस मैं दाल पतली बन गयी तो क्या उच्च न्यालय इसका संज्ञान लेंगे या उस के अफसर ? विशेषतः न्यायालयों मैं इतने सारे मामले निलम्बित पड़े हैं की उनका मुकद्दमों के शीघ्र निपटाने पर ध्यान देना अति आवश्यक है .प्रचार के लिए न्यायलय मैं सिनेमा एक्टरों पर निरे केस डाले जाते हैं .इससे फिल्मों को पब्लिसिटी मिलती है और निर्माता का फायदा होता है .इस लत को सैन्य बालों मैं लाना बहुत अहितकारी होगा .
इसके अलावा विगत दशकों मैं संसद व् देश की सरकारें बहुत कमजोर हुयी हैं .उनकी अधिकारों व् सीमाओंसीमाओं का बहुत अतिक्रमण हुआ है . न्यायाधीशों का एक अपना ज्ञान क्षेत्र होता है . उन्हें उसी क्षेत्र मैं रहना चाहिए . जन हित याचिका एक विकल्प अवश्य है परन्तु उस का प्रयोग ब्रहास्त्र की तरह बहुत कम होना चाहिए .
न्यायालयों को स्वयं व् सरकार को भी न्यायालयों के बड़े फैसलों के दूरगामी परिणामों की समीक्षा करनी चाहिए जिससे उन्हें अपनी सीमा निर्धारण मैं मदद मिलगी . उदाहरण के लिए निम्न निर्णयों को सोचें .
१.दिल्ली मैं ईंट के भट्टों की मजदूरी तो तीस सालों मैं बहुत बढ़ गयी परन्तु उत्पादकता वही है.
२.नयायालयों ने सेवा निवृत पेंशन धारियों का खर्च इतना बढ़ा दिया की सरकार ने अंततः सरकारी नौकरियों मैं पेंशन स्कीम बंद कर दी.
३.रेलवे मैं कैजुअल गंग मैंन को रेगुलर करने से इतनी कठिनाईयां आयीं की अंततः रेल पटरी के बहुत जरूरी काम अब ठेके पर दिया जाने लगे .
चाहे इन फैसलों का जो भी कारण रहा हो और वह उस समय उचित भी प्रतीत हुए हों पर अंततः कालांतर मैं इन फैसलों से नुक्सान ही हुआ . यही सेना के काम मैं दखलंदाजी का दूरगामी परिणाम होगा .
अब तो सरकार मैं काम करने वाली भेड़ें कम व् निरक्षण वाले गरडीये ज्यादा हो गए हैं . यदि आप कोई निर्णय ले लें तो औडिट से लेकर सीबीआइ तक पीछे पड सकती है . यदि आप कोई काम न करें सिर्फ बॉस की हाँ मैं हाँ मिलते रहें तो आप ऊपर चढ़ते जायेंगे .जो अफसर उच्च पदों पर काम कर चुके हैं वह जानते हैं कि ओछी राजनीती ने देश को किस हद तक बर्बाद किया है .अब यही बर्बादी यदि सेना मैं आ गयी तो दुश्मनों की चांदी हो जायेगी क्योंकि एक बार यदि हमारी सेना बर्बाद हो गयी तो उसे कोई नहीं संभाल सकता .
ध्यान रहे की पानीपत की एक हार ने हमें सदियों के लिए गुलाम बना दिया था.
राजनीतिज्ञों , मीडिया व् न्यायलयों को तो विशेषतः सेना से दूरी ही बनाए रखनी चाहिए . स्वयं रक्षा मंत्री व् रक्षा मंत्रालय को सेना के अंदरूनी कामों मैं दखल नहीं देना चाहिए .इसी तरह सेनाध्य्क्षों व् उच्च अधिकारियों को मीडिया से परहेज़ रखना ही श्रेयस्कर होगा .मीडिया पर बयानबाज़ी से कोई लाभ नहीं होता बल्कि युद्ध हारने की संभावनाएं बढ़ती ही हैं .
देश को इन दूरगामी विषयों पर पुनः चिंतन करना चाहिए .
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