Father’sDay : भगवन राम , कृष्ण , भीष्म ,श्रवण कुमार , मोरध्वज पुत्र ताम्रध्वज के देश मैं दूर पिता को ग्रीटिंग कार्ड भेजने को त्यौहार बनाने का दुस्साहस
हमारे देश में पश्चिम जगत के पैसों पर चलने वाले अख़बार व् टीवी चैनल अपनी जन संपर्क की क्षमता का दुरूपयोग कर अमरीकी त्यौहार ‘ Father’s Day ‘ मनाने का प्रचलन बढ़ाना चाह् रहे हैं हैं . निष्क्रीय देश चुप है और नव वर्ष की तरह यह भी इन राष्ट्र विरोधी संस्थाओं के चलते कभी सर्वमान्य हो जाएगा . आखिर क्या है ‘ Father’s Day ‘ . अपने बूढ़े मा बाप को वृधाश्रम में दाखिल कर विदेश मैं बसे पुत्र पिता को एक गिफ्ट या कार्ड भेज कर उर्रींण हो जाते हें . अन्यथा उनको वृद्धाश्रम में मिलने चले जाते हैं .
क्या पिता के दिए वचन को विमाता द्वारा बताये जाने वाले भगवान् राम के राज पट छोड़ कर वन जाने वाले राष्ट्र या मात्र तेरह वर्ष की आयु मैं बंदी गृह से मा बाप को छुडाने वाले भगवान् कृष्ण के राष्ट्र या पिता शांतुनु के सुख के लिए आजीवन ब्रह्मचारी रहे भीष्म के राष्ट्र या पिता के वचन के लिए आरे से चिर जाने वाले राजा मोरध्वज के पुत्र ताम्रध्वज के राष्ट्र या बूढ़े मातापिता को बह्ब्गी मैं बिठा कर तीर्थ यात्रा करने वाले श्रवण कुमार के राष्ट्र भारत मैं , क्या आदर्शों का इतना पतन हो गया है की अब हमें ‘ Father’s Day ‘ मनाना पडेगा . देश की वह मूर्धन्य संस्थाएं जो भारतीय संस्कृति को अक्षुण्य रखने को समर्पित होने को समर्पित हैं क्यों इस पाश्चात्य जगत की नक़ल में इस अंधी दौड़ से देश की जनता को आगाह नहीं कर पा रहीं . हमारी पाठ्य पुस्तकें जिन मैं इन आदर्शों का विवरण होता था पिछले तीस वर्षों मैं सब छद्म धर्म निरपेक्षता की बलि चढ गयीं .नयी सरकार सिर्फ गाय को बचाने में लगी हैं . देश की अनमोल धरोहर हमारी संस्कृति व् आदर्श हें . पश्चिमी जगत की नक़ल पहले नारी मुक्ति के दंश से पारिवारिक व्यवस्था को छिन्न भिन्न कर रही है . फिर एक बीमारी ‘ Valentine Day ‘, Dating , Live in , LGBT इत्यादि से हमारी संयम प्रधान परम्पराओं को समाप्त कर रही है . अब पैसे के प्रेम में इस नयी बीमारी Mother’s Day Father’s Day को नए त्यौहार बना कर फैला रही है .
यह गंभीर चिंतन का विषय है जिस संस्कृति को दो सौ साल का अंग्रेजी शासन व् आठ सौ साल का मुग़ल शासन नहीं समाप्त कर सका वह अमर संस्कृति स्वाधीनता के सौ साल भी न देख सकने की हालत मैं क्यों आ रही है . इसका मुख्य कारण हमारी पाठ्य पुस्तकों से हमारे सांस्कृतिक गौरव व् आदर्शों को बताने वाले पाठों को निकाल देना है . इस नए आदर्शहीन समाज के निर्माण में छद्म धर्म निरपेक्षता को सर्वो परी बनाने वाली व्यवस्था का बड़ा हाथ है . यह खेद की बात है की अंग्रेजी मीडिया के खिल्ली उड़ाने डर से हमारे शिक्षा मंत्रि मुरली मनोहर जी के शुरू किये प्रयासों को आगे नहीं बढ़ा पाए . सिर्फ कांग्रेस के दुराग्रही संस्कृत को पाठ्यक्रम से हटाने को पलट कर अपनी जिम्मेवारी पूरा कर लेने के भ्रामक सुख मैं डूब गए .हमारे जीवन की खुशियों का आधार हमारी कर्तव्यों पर आधारित पारिवारिक व्यवस्था थी . उस जीवन मैं हर किसी की एक निश्चित भूमिका थी और हर किसी को अपने से अधिक परिवार को महत्व देना था . पुरुष अपने लिए पैसा नहीं कमाता था न ही स्त्री अपने लिए भोजन बनाती थी . दोनों बच्चों की हर ख़ुशी के लिए सब कुछ न्योछावर कर देते थे .बच्चे बड़े होकर मा बाप का सहारा बन जाते थे .परिवार मैं दूसरों के लिए कर्तव्य निर्वाहन व् त्याग जो व्यवस्था इतनी सदियों की गरीबी को आसानी से झेल गयी वह स्वतंत्रा के बाद ज़रा सी समृद्धि से कैसे छिन्नभिन्न हो गयी यह भी गंभीर चिंतन का विषय है . राजाओं के विशिष्ट वर्ग से आने के कारण जनता दिग्भ्रमित हो गयी .इसमें विशेष भूमिका पाश्चात्य जगत की चमक धमक की चौंधियाहट से हमारी बुद्धि हरण की भी है. पश्चिम को मैं को हर चीज़ मैं श्रेष्ठ मानने की गलती में तथाकथित आधुनिकता को अपनाने की दौड़ का भी हाथ था . इसमें कुछ हाथ पश्चिम के अखबारों व् टीवी पर मालिकाना हक़ का भी था जिन्होंने भारतीय बाज़ार पर कब्ज़ा करने के लिए भारतीय संस्कृति के अवमूल्यन का यह सरल रास्ता अपना लिया . हमें साडी छोड़ जीन पहनने मैं जीवन का उत्थान दीखने लगा .
कहने को यह कहा जा सकता है की हमारे पुराने दैनिक जीवन मैं व् धार्मिक आदर्शों का मात्र दिखावा था . मात्र पूजा पाठ बाकि सद्गुगुणों का पर्याय बन चुके थे व् पाखण्ड सब पर हावी था . वर्ण व्यवस्था एक सामाजिक श्राप थी .स्वार्थ व् लालच तो बहुत पहले से जीवन का अंग थे जिसका सबसे बड़ा उदाहरण महाभारत की लड़ाई ही थी . परन्तु हमारे गाँव व् गरीब जीवन में भयंकर दुःख बिना अविचलित हुए सहर्ष जो झेल लेते थे उस का मूल आधार भी धर्मिक शिक्षा ही थी . अमीरी सदा लालच स्वार्थ व् व् धर्म के नाश का कारण बनी . पर साधारण परिवार कर्तव्य निभाने के अक्षुण्य सुख मैं जीवन व्यतीत कर लेता था . अब क्योंकि समृद्धि बढ़ गयी है इस लिए हम पश्चिम जगत की कौड़ियों को अपने हीरों से अधिक मूल्यवान मान बैठें हैं .
इसलिए सरकार व् समाज के प्रबुद्ध वर्ग का यह दायित्व है की जनता का सही मार्ग दर्शन करे व् अपनी संस्कृति के मूल्य को समझाएं न की सिर्फ चुनावी मंजिल को पाने के लिए संस्कृति का सीढी सामान उपयोग करें जो ऊपर पहुँचते ही महत्वहीन हो जाती है .
भारत मैं valentine day , father’s day , mother’s day ka कहीं स्थान नहीं है .