Failure of Make In India : स्वदेशी झंडेवालों या सरकारी बाबुओं के बस की बात नहीं है, परन्तु अब भी सफलता संभव है
राजीव उपाध्याय
सरकार के पिछले पाँच वर्षों के कार्यकाल मैं ‘ Make in India ‘ कार्यक्रम सबसे बड़ी असफलता रही है . यह कठिन कार्य है परन्तु स्वदेशी झंडेवालों या सरकारी बाबुओं के बस की बात नहीं है. परन्तु अब भी इसमें सफलता संभव है . 2015 मैं तो रक्षा क्षेत्र में मात्र ५६ लाख रूपये का विदेशी निवेश हुआ . 2017 में यह घट कर मात्र ७ लाख रूपये रह गया . विदेशी उपकरणों जैसे सुखोई हवाई जहाज या टी – ९० टैंक का लाइसेंस मैं भारत मैं उत्पादन तो सदा से होता आया है . उसमें कोई नयी बात नहीं है . रक्षा सौदों मैं ऑफसेट भी अलग नामों से पहले भी होता था . आशा यह थी की विदेशी कंपनियां भारत में फेक्टियाँ लगा कर उत्पादन का आंशिक निर्यात करेंगी . सिर्फ लॉक हीड मार्टिन ने पुराने ऍफ़ – १६ के बारे में या रूस ने बिना बिके मिग ३५ के बारे मैं ऐसा बड़ा प्रस्ताव दिया है . शेष कोई भी देश अपनी नयी रक्षा टेक्नोलॉजी भारत को नहीं देना चाहता . यहाँ तक की रूस पाँचवी पीढी के पाक – फए लड़ाकू हवाई जहाज़ के संयुक्त विकास के वादे से मुकर गया क्योंकि वह रक्षा की आधुनिकतम टेक्नोलॉजी भारत को नहीं देना चाहता था .ऐसे ही फ्रांस ने रफाले जहाज के भारत में उत्पादन मैं रुचि नहीं दिखाई .चीन से कई बड़ी अमरीकी कम्पनियाँ निकलना चाह रही हैं परन्तु Apple को छोड़ कोई बड़ी कम्पनी भारत नहीं आयी . इसी तरह विदेशी पूंजी निवेश के वास्तविक करंट अकाउंट मैं आने वाले आंकड़े भी खराब ही हैं .
दूसरी तरफ सरकार खुद स्वयं रचित आर्थिक विकास के झूठे आंकड़ों के ऊपर आधारित झूठे विकास के मकड जाल में फंस गयी .खुद उनके पूर्व आर्थिक सलाहकार ने झूठे आंकड़ों की बात स्वीकार कर ली है .निर्यात भी रूपये की भारी अवमूल्यन व् सरकार के लाख प्रयास के बावजूद बढ़ नहीं सका . बहु शिक्षित युवा भी बढ़ती बेरोजगारी में छोटी मोटी नौकरी कर रोटी खाते रहे .कोई राह सुझाने वाला नहीं बचा . बाबा रामदेव सरीखे अर्थ शास्त्री जिन्होंने काले धन को सफ़ेद कर बड़े विकास करने का सुझाव दिया था वह नोट्बंदी के बाद आयी मंदी से आज मुंह छुपा रहे हैं . सरकारी बाबु तो सदा से अज्ञान व् घमंड का गुब्बारा रहा है .पाँच साल में उसने खूब राज किया पर अब सर्वव्यापी आर्थिक असफलता से इस गुब्बारे की भी हवा निकल गयी है . सब को सरकारी बाबुओं के अज्ञानी होने का पता चल गया है हालाँकि उनकी हेकड़ी व् अकड़ अब भी बरकरार है क्योंकि मोदी जी को कोई विकल्प नहीं सूझ रहा है . इन अज्ञानी बाबुओं पर पूर्ण रूप से आश्रित मोदी जी को नरसिम्हा राव की तरह कोई मनमोहन सिंह या मोंटेक नहीं मिल रहा है .इसी तरह बिना समस्या की गहराई जाने बुझे स्वदेशी का झंडा ले कर मोर्चे लगाने वाले भी इस समस्या का समाधान नहीं कर सकते .
मुख्य प्रश्न यह है कि ‘ Make in India ‘ क्यों असफल हुआ और अब उसे कैसे सफल बनाया जाय .
असफलता का कारण तो स्पष्ट है . विदेशी कंपनियां निवेश से पहले लम्बे समय तक फायदे के बारे मैं आश्वस्त होना चाहती हैं. मारुती कार में जापानी कंपनी सुजुकी निवेश कर रही है क्योंकि उसे लम्बे समय तक लाभ की आशा है . इसी तरह बड़े अमरीकी निवेशकर्ता जैसे अमेज़न ,गूगल , फेसबुक भारत मैं लम्बे समय तक लाभ कमाने के बारे मैं आश्वस्त हैं .सऊदी अरेबिया भारत में बड़ी रिफाईनरी मैं निवेश करने को तैयार है क्योंकि लम्बे उसमें समय तक फायदे की गुंजाइश है . रक्षा क्षेत्र में किसी को नहीं पता की एक राफेल के सौदे के बाद भारत फिर हवाई जहाज खरीदेगा की नहीं . एक बार यदि भारत मैं Enron की तरह निवेश कर फंस गए तो सरकारी बाबुओं की पूरी जमात खून चूस कर दिवालिया कर ही निकलने देगी .भारत में ऐसी क्या विशेषता है कि विदेशी रक्षा उपकरणों की कंपनियां भारत मैं फेक्ट्रिरियाँ लगाएं ?
तो फिर क्या हम सदा ही अपनी रक्षा के लिए विदेशियों पर आश्रित रहें ?
नहीं , यह आवश्यक नहीं है , परन्तु इस बड़े परिवर्तन के लिए उतने ही बड़े राजनितिक साहस की आवश्यकता है जितना नरसिम्हा राव जी ने मनमोहन सिह के वित्त मंत्रि कार्य काल में दिखाया था . इस साहस के कई आयाम हैं . पहला तो डॉक्टर ऐसा ढूँढें जिसने पहले ऐसी बीमारियों का सफलता पूर्वक इलाज़ किया है . आई ए एस ने कभी कोई ऐसा काम नहीं किया है न ही कर सकता है .मेक इन इंडिया की असफलता का एक प्रमुख कारण अनुभव हीन डोक्टरों द्वारा किया गया गलत इलाज़ भी था . सरकारी विभागों में अन्तरिक्ष के क्षेत्र में हम बहुत प्रगति कर रहे हैं. श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा प्रारंभ में प्रोत्साहित करने से भारत मिसाइल क्षेत्र मैं भी बहुत उन्नति कर रहा है .रेलवे का यांत्रिक विभाग इंजन , कोच व् माल डिब्बों के निर्माण में गत पचास वर्षों से पूर्णतः स्वदेशी हो गया है . इस विभाग को भारतीयकरण व् उद्योगों के साथ समन्वय का बहुत पुराना अनुभव है .इसी तरह HAL , BHEL , BEL इत्यादि को को भी इस विषय का व्यापक अनुभव है .इस के लिए किसी ऐसे डॉक्टर को चुनें जिसने यह इलाज़ पहले किया हो .
निजी क्षेत्र में टाटा मोटर , महिंद्रा , L&T इत्यादि को उच्च तकनीक के उत्पादन का प्रचुर अनुभव है . टाटा व् भारत फोर्ज ने बोफोर जैसी तोप विकसित की है . सिर्फ चुनी हुई बड़ी कंपनियों को ही नए काम सौपें जाने चाहिए . इसके लिए नए नियमों की आवश्यकता होगी और विपक्षी पार्टियों को साथ लेने की भी आवश्यकता होगी . इन नए सौदों को ऑडिट व् सीवीसी से अलग रखना होगा जैसा नेहरु जी ने अटोमिक एनर्जी के साथ किया था .रक्षा मैं रिसर्च व् डिजाईन मैं तेजी के लिए सरकारी नियम बाधा बन जाते हैं . इसलिए यह काम RITES या ओएनजीसी ( विदेश) जैसी कंपनी को सौंपना अधिक उपयोगी होगा जिसमें फैसले जल्दी लिए जा सकते हैं . इन कंपनियों को समय बचाने के लिए बिना टेंडर के भी तुरंत काम दिया जा सकता है .परन्तु अनुसंधान में असफलता को सफलता की पहली पायदान मानना पड़ता है . अनुसंधान वाली कंपनियों को देसी या विदेशी प्रतिभा को किसी भी उचित वेतन पर लेने की सुविधा होनी चाहिए .बाबूगिरी अनुसंधान संस्था मैं ज़हर होती है .इसलिए इस काम को भी अनुभवी व् विश्वसनीय व्यक्ति को ही सौंपना होगा .उसे बजट के अन्दर बिना किसी और की अनुमति के खर्च करने की पूरी आजादी देनी होगी . सरकारी मंत्रालयों व् संसदीय समितियों को इन से दूर रखना होगा . रक्षा मैं अनुसंधान को सरकारी अनुदान की सहायता देनी होगी जो संभव है .
पर सबसे बड़ी समस्या रक्षा सेनाओं की है . देश मैं अंतर्राष्ट्रीय असहयोग के कारण टेक्नोलॉजी विकसित करने में बहुत समय लगता है . अगले पच्चीस वर्षों तक भारत के स्वदेशी रक्षा उत्पाद अमरीकी उत्पादों से क्वालिटी मैं सदा कम होंगे . चीन की सेनायें इस को मान लेती है . चीनी जे – २० हवाई जहाज़ अमरीकी ऍफ़ – २२ या ऍफ़ – ३५ के बराबर नहीं है पर चीन उन्हें बना रहा है . हम अर्जुन टैंक या तेजस की खाल उधेड़ते रहते हैं .भारतीय सेनायें युद्ध मैं सर्वोत्तम हथियार चाहती हैं जिससे वह दुश्मन को परास्त कर सकें . हाल की बालाकोट घटना मैं पाकिस्तानी मिसाइल हम पर भारी पड गए और हमारे राडार व् रेडियो भी जैम कर दिए गए . इसलिए हमारी सेना सदा आधुनिकतम हथियार चाहती है जिससे दुश्मन हम पर हावी न हो सके . इस लिए भारत को आधे हथियार स्वदेशी व् आधे अत्याधुनिक रखने होंगे . स्वदेशी हथियार भी धीरे धीरे उन्नत होते जायेंगे और बीस वर्षों मैं हम इस क्षेत्र की शक्ति बन जायेंगे .अन्यथा रक्षा में स्वाबलंबन सदैव सपना ही बना रहेगा .
बड़े निवेश के लिए चुनी हुयी कंपनियों को बीस साल तक कुछ लगातार निर्धारित आर्डर देने होंगे जैसे दस लड़ाकू हवाई जहाज या हेलिकोप्टर या प्रतिवर्ष या दो समुद्री जहाज या पनडुब्बी प्रतिवर्ष जिससे वह न्यूनतम लाभ तो कमा सकें . अंग्रेजों ने भी भारतीय रेलवे बनाने के लिए पूँजी निवेश पर ब्याज नियमित किया था .इसके लिए कंपनियों को सहयोगी मानना होगा दुधारू गाय नहीं जो हमारे आज सत्ता के अभ्यस्त नेता व् बाबु मानते हें . एक समस्या दाम की भी है .आज भारतीय सुखोई या तेजस आयातित सुखोई से महँगा होता है . परन्तु दस वर्ष बाद यह नहीं रहेगा . इसको स्वीकारने की आवश्यकता है .
मेक इन इंडिया की असफलता का मुख्य कारण ही यही था की हम १८५८ की आई सी एस के लिए बनाये हुए नियमों से २०१५ के मेक इन इंडिया की सफलता सुनिश्चित करना चाहते थे .