Economic Remedies Too Little Too Late : भारतीय अर्थव्यवस्था की भयंकर मंदी : सोने की अंडे देने वाली मुर्गी का पेट कब , क्यों और किसने काटा ? Babu Free Economy Needed
Rajiv Upadhyay
Finance Minister First press conference gave some hope but it it was totally belied in the boring second conference . Babus are incapable of solving our economic woes. Dr Swamy’s talks show much greater understanding.We do not need more of same solutions but need creative New Deal of Roosvelt .
भारतीय अर्थव्यवस्था की भयंकर मंदी : सोने की अंडे देने वाली मुर्गी का पेट कब , क्यों और किसने काटा ?
यदि भारत के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पादन) का ग्राफ देखें तो साफ़ हो जाता है कि २०१४ , और २०१९ के चुनाव का समय देश के विकास के लिए सबसे खराब समय था ( १४ व् १९ के आंकड़े अलग आधार पर हैं ) . २०१४ में लगा था की पिछली सरकार के चहुँ ओर फैले भ्रष्टाचार व् बेईमानी ने अर्थव्यवस्था को डुबो दिया . जनता कमरतोड़ मंहगाई से त्रस्त थी और उसने गुजरात को विकास का मॉडल मान कर देश की विकास की आशा मैं वोट दिया . तो जब चुनाव के बाद जनता व् सरकार दोनों आर्थिक विकास के लिए प्रतिबद्ध थे तो फिर आज की अर्थ व्यवस्था की दयनीय हालत , जिसमें लाखों बिना बिके घर व् कारें खडीं हैं और पाँच साल से नौकरियों का अकाल पडा है, कंस्ट्रक्शन उद्योग के लाखों मजदूर बेरोजगार हो गए , कैसे हो गयी . स्थिति व् समस्या बहुत गंभीर है क्योंकि देश के जानकार लोग डर के मारे सच बोलने से कतरा रहे हैं . परन्तु सच बोले बिना सुधार भी संभव नहीं है .
इसलिए इस सच्चाई को समझते हैं की अर्थ व्यवस्था को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझ कर किसने अज्ञान व् लालच वश उस का पेट काट दिया ?
इस स्थिति के लिए चुनाव व् वित्त मंत्रालय ही अकेले जिम्मेवार है ! सरकारों ने ही सोने के अंडे देने वाली मुर्गी का लालच व् अज्ञानवश वश पेट काट दिया !
हालांकी काटने से पहले मुर्गी के पंख नोचने की भूमिका तो वाजपेयी जी के कार्यकाल के अंत मैं रिटेल ट्रेड के धन्ना सेठों ने खाद्यान्नों पर सट्टा व् बैंक लोन देने की इंदिरा गांधी कालीन रोक को हटा कर कर दी थी .परन्तु इसका प्रथम दुरूपयोग शरद पवार जी के काल सन २००५ मैं हुआ जब गेंहूँ की कीमतें जबरदस्ती पहले गिरा कर बाद मैं उठा कर किसानों को लूटा गया . इससे जो मंहगाई फ़ैली उसे मनमोहन सिंह जी नहीं झेल सके . उन्होंने इस मंहगाई को रोकने के लिए उद्योगों के क़र्ज़ पर शिकंजा कस के की जो असफल हुई . ऐसे ही २०१४ की अरहर की दाल की कमी बाबुओं के द्वारा जान बूझ कर की गयी थी . उसके बाद फिर एक जबरदस्त मंहगाई का दौर आया . कांग्रेस पार्टी ने दुर्योधन की तरह २०१३ के चुनावों के कारण गरीबों के लिए खजाने खोल दिए . किसानों का लोन माफ़ करना ऐसा ही कदम था . Food Security Bill , land Bill , Increase in support price of crops , labour laws सबसे देश की अर्थ व्यवस्था पर इतना बोझ डाला की मंहगाई आसमान पर पहुँच गयी और औद्योगिक विकास थम गया . चुनाव के बेइंतहा खर्चे सरकारी भ्रष्टाचार से ही निकाले जाते हैं और अंत मैं अर्थ व्यवस्था को प्रजातंत्र के कीमत चुकानी पड़ती है . जो मनमोहन सिंह कभी डीजल व् रासायनिक खाद की सुब्सिडी हटाने की बात करते थे , उन्हें दरकिनार कर अर्थ व्यवस्था पर सोनिया गाँधी के चमचों की राजनीति हावी हो गयी और परिणाम स्वरूप विकास दर ८ % से घाट कर ५ % हो गयी . मनमोहन सिह जी सब कुछ जान कर असमर्थ रहे और सिर्फ चुपचाप आर्थिक पतन का तमाशा देखते रहे .
इस लिए चुनाव मैं दुःखी जनता ने सब प्रलोभनों को दुत्कार कर सरकार बदल दी . कांग्रेस पार्टी ४४ सीटों पर सिमट कर भी बजाय मनमोहन सिंह को जीरो बनाने व अपनी आर्थिक गलतियों का पश्चाताप करने के, १९८० के इंदिरा गाँधी की जीतने जैसी आशा करने लगी . इसलिए उसने हार के तीस दिन बाद से ही आर्थिक परिणाम न आने की शिकायत शुरू कर दी . कुछ मौक़ा मोदी जी ने दिया और सूट बूट की सरकार का नारा बीजेपी को महँगा पड़ गया . ज़मीन अधिकरण पर पर गलत नीतियों को सुधारने के सरकार के प्रयास विफल हो गए . दिल्ली और बिहार के चुनाव की हार के बाद बीजेपी ने अटल बिहारी की लोकसभा की हार से ऐसा सबक ले लिया जो अर्थ व्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हो गया . एक तो सरकार ने पार दर्शिता व् इमानदारी के नाम पर इतना प्रचार किया की सरकारी बाबु तंत्र एक दम डर गया . कांग्रेस के ज़माने मैं बड़े अफसरों को सुरक्षा थी जो सीबीआई , सीवीसी , न्याय पालिका ने जोर जोर से पारदर्शिता के नाम पर बोल कर हटा दी . फलस्वरूप बाबुओं ने कोई भी खतरा लेने से पल्ला झाड किया . बेईमान बाबु अब निष्क्रीय व् अकर्मण्य भी हो गया .कुछ मोदी जी का ऐसा डर फैला की मंत्रि भी सिर्फ प्रधान मंत्रि की ओर देखने लगे . पिछले पाँच वर्षों में सड़कों के अलावा और किसी विभाग ने कुछ बड़ा कर के नहीं दिखाया . सरकार विचार शून्य हो गयी . मोदी जी काम करने मैं विश्वास रखते थे इसलिए उन्होंने बैंक अकाउंट , शौचालय, गैस कनेक्शन जैसी तुरंत फायदा देनी वाली स्कीमों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया . परन्तु इतनी बड़ी सरकार के लिए यह बहुत छोटी उपलब्धियां थीं . बड़ी उपलब्धियां तो नीतियों से आतीं हैं जिनके लिए सरकार मैं किसी के पास सोचने के लिए समय व् तत्परता नहीं थी . ज्ञानियों , विशेषज्ञों व् विचारकों ने सरकार से दूरी बना ली . छोटे प्रोजेक्टों की सरकार मैं छोटी सोच के अफसरों की तूत्ती बोलने लगी .इस सरकार मैं मनमोहन सिह सरीखे नयी व् बड़ी सोच के अफसर सफल नहीं हो सकते थे .
पर इससे बड़े दुष्परिणाम तो उद्योग जगत मैं हो रहे थे . २००७ से जो विकास हुआ उस के आधार पर उद्योगपतियों ने बड़े बड़े निवेश कर दिए . बिना बड़े आर्थिक विकास के वह सारे व्यर्थ होने लगे .बची खुची कसर मंहगे स्पेक्ट्रम , खनीज , कोयले इत्यादि ने पूरी कर दी .भारत मैं सस्ता स्पेक्ट्रम , कैप्टिव माइंस इत्यादि आवश्यक थीं . उनके हटते ही धीरे धीरे बड़े उद्योग कर्जों मैं डूबने लगे .बैंकों के एन पी ए बढ़ने लगे . पारदर्शिता मैं अंधी सरकार उद्योगपतियों को जेल में डालने लगी . बाबुओं की तरह उद्योग पति भी पूँजी निवेश से ऐसे डरे की आज भी कोई बड़ा पूँजी निवेश नहीं हो रहा . धंधे मैं लाभ या नुक्सान तो होता रहता है परन्तु पैसे की चाह में जेल कौन जाता है ?
दूसरी तरफ बाबा रामदेव और स्वदेशी जागरण सरीखे नवोदित अर्थशास्त्री अपने लोक प्रिय परन्तु अर्थ व्यवस्था के लिए घातक फोर्मुले देने लगे . इनमें कालाधन अचानक देश की प्रमुख समस्या बन गया . स्वयं मोदी जी ने विदेशी पैसे को ला कर बारह लाख रूपये हर किसी को देने की बात कर दी . एशियन ड्रामा के लिए नोबेल प्राइज जीते गुनार मैरडल से मनमोहन, मोंटेक तक हर अर्थ शास्त्री जानता है की कालाधन विकास शील देशों में अर्थ व्यवस्था को इतना नुक्सान नहीं करता जितना कहा जाता है . कहीं कहीं तो यह निष्क्रीय बाबुओं को सक्रीय करने मैं सहायक हो जाता है .परन्तु बाबा रामदेव को यह कौन समझाता .विदेशों से पैसा न आना था न आया परन्तु इनकम टैक्स इत्यादि विभागों के बाबुओं को अमीरों के उत्पीडन का नया फोर्मुला मिल गया जिसका जम कर दुरूपयोग हुआ . नया औद्योगिक विकास तो नहीं हो रहा था पर उन्हीं उद्योगपतियों से सरकारी स्कीमों के लिए बढे टैक्स वसूले जाने लगे . इनकम टैक्स को आतंकवाद गलत नहीं कह रहे हैं .इसका आतंकी दुरूपयोग हुआ . इंस्पेक्टर राज कहीं ज्यादा भयंकर रूप से वापिस आ गया . जिनके पैर न फटी बिवाई तिन जानी न पीड़ परायी .जिसने उद्योग चलाया हो उससे पूछो की बिना रिश्वत के इस देश मैं क्या हो सकता है . राज नेताओं को चुनावी फण्ड चाहिए और चपरासी को घर के खाने के लिए रिश्वत चाहिए . परन्तु रिश्वत देने वाला उद्योगपति चोर है और बाकी सब इमानदार ! काले धन की मुहीम ने देश को बहुत नुक्सान पहुचाया विशेषतः नोट बंदी के दुष्परिणाम से अगले पाँच साल भी देश नहीं निकलेगा . हालाँकि नोट बंदी बुरे मन से नहीं की गई थी पर किसी को इतने बड़े दुष्परिणाम की आशा नहीं थी .न तो किसी का पैसा जब्त हुआ पर हर कोई गरीब हो गया सिवाय बैंकों व् इनकम टैक्स के बाबुओं के . अचानक चार्टर्ड अकाउंटेंट की मांग बेहद बढ़ गयी .
पर सोने की अंडे देने वाली मुर्गी का पेट काटने की सबसे अधिक जिम्मेवारी सरकार के वित्त विभाग की है. वित्त विभाग के मंत्रि से लेकर चपरासी तक कोई इसकी कालिख से नहीं बच सकता .पहले साल तो ठीक काम किया और मंहगाई पर रोक लग गयी . पर कोई घटते विकास को नहीं देख रहा था . कोई उद्योगों की बढ़ती उधारी को नहीं देख रहा था . उदाहरण के लिए रिंलाइनस के गैस उत्पादन बहुत कम होने से जिन बिजली के उद्योगों ने गैस टरबाइन खरीदे थे वह सब पैसा डूब गया .सरकार भी इसकी बराबर की हिस्सेदार थी . सरकार ने बड़ी गैस के ऊपर लाइसेंस दिए थे .पर बेईमानी पकडे जाने के डर से सरकार चुप हो गयी . कौन बोल कर फंसता .सो बेचारे बैंकों से उधार लेने वाले उद्योगपति और उधार देने वाले बैंक मारे गए .जो अफसर पंसारी की दूकान नहीं चला सकते वह भारतीय उद्योग पतियों को अमरीकी व् चीनी विकास का ज्ञान देने लगे .उनकी अज्ञानी , मिथ्या व् दम्भी बकवास के बीच देश की अर्थ व्यवस्था डूबती रही .
पर सरकार को पहले साल ही पता चल गया की आर्थिक विकास की दर बहुत कम है .बजाय सच बोलने वित्त विभाग के सरकारी तंत्र ने विकास के फोर्मुले बदल दिए और पुराने साढे पाँच प्रतिशत विकास दर को सात प्रतिशत कहने लगे .इस झूठ के अंतर्राष्ट्रीय मच पर चल जाने के बाद तो झूठ बोलने के आदत हो गयी . झूठे विकास के बढ़ चढ़ कर दावे करने मैं कोई पीछे नहीं था . परन्तु जिस वित्त विभाग का काम सच को बताना व् प्रधान मंत्रि को सचेत करना था वही इस पाप का सबसे बड़ा भागीदार है . फिर आगे बढ़ कर विकास को सच बताने के लिए टैक्स के प्राप्ति बढ़ाना था . इसलिए उन्हीं गिने चुने अमीर लोगों से हर साल ज्यादा टैक्स वसूला जाने लगा .हज़ारों अमीर लोग देश छोड़ कर भाग गए पर किसी को चिंता नहीं हुई. क्योंकि विकास कहीं दीख नहीं रहा था इसलिए बढ़ते टैक्स को विकास बताया जाने लगा . पर पहले नौकरियां गायब हो गयी फिर इंजीनियरिंग व् मैनेजमेंट के कोलेजों की सीट खाली जाने लगीं क्योंकि मंहगी पढ़ाई का लोन नहीं चुका पाते थे .मध्यम वर्ग पिसता रहा पर इस नोट व् वोट विहीन वर्ग की किसी को चिंता नहीं थी .
कुछ इमानदार अफसर इतना झूठ बर्दाश्त नहीं कर सके . उनकी जगह नए विश्वसनीय लोग लगा दिए गए जो बिना शर्म के झूठ बोल सकते थे .सात अर्थ शास्त्रियों ने इस्तीफा दे दिया पर सरकारी बाबुओं ने दबा दिया .अंत मैं जब रघु राम राजन व् अरविन्द सुब्रमण्यम ने सब कुछ उगल दिया तो सब सकते मैं आ गये .
२०१९ के चुनाव सबसे मंहगे थे. उसकी कीमत भी उद्योगों ने भरी . एक स्टॉक मार्किट चलता था उस को टैक्स ने डुबो दिया .बाज़ार से जब सब पैसा गायब हो गया तो खर्च कौन करता .
अंत मैं जब पाँच लाख बिना बिकी कार व् लाखों बिना बिके घर इकठठे हो गए तो भारत के झूठे विकास का सच जग जाहिर हो गया .
प्रश्न है की वित्त विभाग के जिन सचिवों व् बड़े अफसरों की जिम्मेवारी सच बताने की थी , जिन्होंने हज़ारों अमीर भारतियों के पलायन को समय रहते उत्पीडन को समाप्त कर नहीं रोका , जिन्होंने प्रधान मंत्रि को यह बताने का साहस नहीं किया की काला धन पकड़ना छोटी समस्या है और नोट बंदी से सम्पूर्ण अर्थ व्यवस्था चरमरा जायेगी उनका क्या किया जाय . उनको सारे देश की अर्थ व्यवस्था को बिगाड़ने के जुर्म मैं क्यों नहीं जेल मैं डाला जाय .
मोदी जी की नियत अच्छी है , बड़े फैसले लेने की क्षमता अद्भुत है , इमानदारी जग विदित है पर वह अकेले देश नहीं चला सकते . उनके आर्थिक सलाहकार निकम्मे हैं .उनको अपना मनमोहन खोजना होगा . .
इन्हीं लोगों ने सोने के अंडे देने वाली मुर्गी का पेट काटा है अब नयी मुर्गी कहाँ से लायेंगे !