कोरोना कालीन बजट : झूठ घटा ,सद्भावना बढी, पर अनेक वर्षों तक वास्तविक आर्थिक विकास दर बांग्ला देश , विएतनाम , चीन , वाजपेयी मनमोहन युग से बहुत कम रहेगी : ज्ञान व साहस की कमी व मध्यम वर्ग से दुश्मनी बरकरार
इस भयंकर कोरोना संकट काल मैं वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बिना नये करों बजट ने गत वर्ष की आर्थिक बरबादी के बावजूद सरकार की लोकप्रियता बरकरार रखी यह छोटी उपलब्धी नहीं है . इसके अलावा विगत अनेक वर्षो की तरह उनके बजट में झूठी उपलब्धियों की शहनाई नहीं बजाई गयी न ही मूडी जैसी अन्तराष्ट्रीय संस्थाओं को खुश करने के लिए झूठे वित्तीय घाटे के आंकड़े बनाए गए . देर से और थोड़ा ही सही, पर विकास को लोक लुभावने खर्चों के ऊपर प्राथमिकता देना सात साल बाद फिर शुरू किया . रक्षा सामग्री के खरीदने के लिए लिए इस कठिन काल मैं पैसे की कमी कम की है . देश के हर जिले में स्वास्थ्य परीक्षणों के लिए लेबोरेटरी बनाना व् नए अस्पताल खोलना सब स्वागत योग्य कदम हैं . अंततः चीन के पास बायो हथियारों को देखते हुए तो हर तहसील मैं पथोलोजी लेबोरेटरी होनी चाहिए . रिसर्च को बढ़ाना अच्सछा लक्ष्य है पर यह इतना आसान नहीं है. इस लिए इस वर्ष के कठिन काल में उनके बजट की प्रशंसा सर्वथा उपयुक्त है . बहुत अच्छा होता यदि सरकार एयरलाइन , होटल ,सिनेमा हाल व् माल्स का दो वर्ष का ब्याज माफ़ कर देती . वह भी किसानों की तरह भारतीय ही हैं .
कर मुक्त बजट कर्जा लेकर बना है . परन्तु अब भी देश की आय का बीस प्रतिशत ब्याज चुकाने में लग जाता है . बिना आय बढे इसको लगातार बहुत अधिक नहीं बढाया जा सकता . आय विकास से ही बढ सकती है. पहले सरकार का निवेश प्राइवेट निवेश से तिहाई होता था . अब सिर्फ सरकार निवेश कर रही है . प्राइवेट क्षेत्र तब निवेश करेगा जब मांग होगी . मांग बढाने के लिए मध्यम वर्ग की आय बढ़ाना आवश्यक है जिस को कोई नहीं चाहता .अब तक ऐसा नहीं है कि इस वर्ष सरकार की दशा या दिशा बदल गयी हो. न ही इससे भारत की अवरुद्ध विकास दर ,बढ़ती बेरोजगारी या गरीबी व नए कारखानों के न खुलने की समस्या सुलझ जायेगी . इस दूकानदारों की सरकार का ,ज्ञानी व जानकार परन्तु वोट व पैसा विहीन और इसलिए प्रभाव विहीन , मध्यम वर्ग से द्वेष इस वर्ष भी जारी है . इसका ज्वलंत उदाहरण ज़रा से लाभ के लिए पीपीएफ या वीपीफ मैं निवेश को कर मुक्त सीमा से निकालना है . घटी ब्याज दर से पीड़ित यदि कुछ तीस प्रतिशत कर देने वाले सीनियर या सेवा निवृत लोग अपनी बचत से कुछ अधिक धन राशि पीपीएफ / वीपीफ मैं डाल देते थे तो किसका नुक्सान हो रहा था था सिवाय सरकार में प्रभाव शाली दूकान दारों के , जिन्हें मध्यम वर्ग की यह छोटी सी ख़ुशी भी खटक गयी . इसकी सीमा को ढाई के बजाय पांच लाख करना चाहिए. पिछले साल ही कि तरह इस वर्ष करों के बजाय मंहगाई बहुत बढ़ेगी . वेतन भोगी मध्यम वर्ग की आय बचत पर ब्याज दर घटने से कम हो गयी है . यह वर्ग इस साल बढ़ती मंहगाई की चक्की मैं पिसेगा . कोरोना के टीके के बाद जीवित बचे शिक्षित बच्चों की बढ़ती बेरोजगारी फिर एक विकराल सस्या बन जायेगी .जिन करोड़ों लोगों का व्यवसाय व् नौकरी को कोरोना के लोक डाउन ने खतम कर दिया वह फिर अपमान की जिन्दगी जीने को मजबूर हो जायेंगे . उनको बचाने के लिए अधिक राजनितिक साहस की आवश्यकता है .
प्रधान मंत्री अपने गुजरात के कार्य काल जैसा , सम्पूर्ण देश का आर्थिक विकास चाहते तो हैं परन्तु वह अटल बिहारी , मनमोहन सिंह ,कृष्णा , नायडू जैसे विकास पुरूषों की चुनावी दुर्गती देख चुके हैं . हाल मैं अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में विकास की राजनीती कर धुल चाट चुके हैं .मोदी जी की प्रारम्भ मैं दिल्ली व् बिहार की चुनावी हार ने उनको और डरा दिया है . वह आर्थिक विकास के लिए सत्ता को दांव पर नहीं लगायेंगे . वह मार्गरेट थेचर नहीं हैं . न ही चीन के डेंग पिंग की तरह समर्थ हैं. राजनितिक कारणों से वह बड़े बाबुओं पर पूरी तरह आश्रित हैं और बड़े बाबूओं की प्राथमिकता पूरे देश पर अपनी सत्ता काबिज करना है . वह सब अच्छी पोस्ट व् स्वायत्त संस्थाओं जैसे सेना , रेलवे , निति आयोग ,रिज़र्व बैंक , इसरो , डी आर डी ओ , एच ए एल को पूर्णतः अपने नीचे लेना चाहते हैं और इसके लिए प्रधान मंत्री को सही परन्तु अप्रिय राह दिखाने के बजाय सिर्फ उन की हाँ मैं हाँ मिलाते रहते हैं . प्रधान मंत्नी अर्थ शास्त्री नहीं हैं और उनका आर्थिक ज्ञान सीमित है. ज्ञानी आदमी अक्सर थोड़ा दम्भी होता है उसे प्रधान मंत्री नहीं सह सकते . इसलिए कोई रूसवेल्ट की नई डील जैसी त्वरित विकास का प्रजातांत्रिक समाधान नहीं आगे आ पा रहा . अपने विकास उन्मुखी नेत्रित्व के कारण बँगला देश व विएतनाम अपने भ्रष्टाचार के बावजूद विकास दर मैं हमसे आगे निकल गए . चीन से मुकाबले का तो अब स्वपन भी हम नहीं देख सकते . प्रजातंत्र में निर्विरोध प्रगति के लिए नरसिम्हा राव या अटल बिहारी जी जैसा की तरह विपक्ष को साथ लेना आवश्यक है जो सम्भव नहीं दीखता . ऐसे मैं आधी अधूरी प्रगती को बहुत मान लेना ही देश की नियति लगती है. देश के समग्र विकास का ब्लू प्रिंट किसी के पास नहीं है.
नौकरियाँ बढाने के सरकारी समाधान जैसे आत्मनिर्भर भारत के नाम पर आयात पर कस्टम डयूटी बढाने से कुछ दिन राहत मिलेगी . परन्तु लाईसेंस परमिट राज वापिस लाना या भारतीय उत्पाद को महँगा करना अंततः हमारे निर्यात को कम कर देंगे .एक बार हमारे उद्योगपति , रिश्वत खोर बाबू व नेता इस अफीम के फिर आदी हो गए तो कोल ब्लाक और कॉमन वेल्थ खेलों वाला रिश्वत राज का युग भी वापिस आ जाएगा . प्रतिस्परधा के अभाव में मजदूर यूनियन ठेके के मजदूरों की तनख्वाह बहुत बढवा देंगी और चीन से मैन्युफैक्चरिंग भारत लाने का व् निर्यात बढाने का स्वप्न सदा के लिए ध्वस्त हो जाएगा . बड़े टीवी की कीमतें अभी से बढ़ गयीं हैं यही मोबाइल सरीखी अन्य वस्तुओं के साथ होगा . अभी सब बड़े देश यह कर रहे हैं पर डब्लूटीओ किसी दिन जाग जाएगा और तब तक हमारे उद्योग प्रतिस्पर्धा लायक नहीं बचेंगे. इस लिए कोरोना वैक्सीन ही की तरह इन तरीकों का उपयोग बहुत सोच समझ कर बहुत सीमित मात्रा मैं ही किया जाना चाहिए. हमको बंगलादेश के नेत्रित्व से सीखने की ज़रुरत है जिसने अपने उद्योगों को प्रतिस्पर्धा के लायक बनाया .
परन्तु अब यह स्थिति भयावह है . एक साल तो कोरोना खा गया . अब भी पूर्ण सामान्यता दिसंबर के बाद ही आयेगी . वैक्सीन के टीके के बाद भी दो तीन महीने लोग देखेंगे और फिर बाहर निकलना शुरू करेंगे . कंपनियों ने लाभ के लिए सारे ट्रेनिंग जैसे खर्चे बंद कर दिए हैं . बहुत संस्थाओं ने कर्मचारियों की नौकरी बचा कर वेतन आधे तक कर दिए हैं . होटल मॉल सिनेमा लोग नहीं जा रहे हैं . सरकारी कर्मचारियों जैसे बहुत लोगों को बिना काम या उत्पादन किये वेतन तो मिल गया है पर उत्पादन नहीं हुआ है . यातायात के अभाव मैं निरी सब्जियां , फल , अंडे , मछली बर्बाद हुए जो किसानों व गरीबों को मार गए . स्कूल ,टैक्सी , रिक्शा , ठेला, बाज़ार , दरजी , मोची , बढई की दुकानें सब बंद रहीं . बंद रहे . यह सब विकास के सरकारी आंकड़ों मैं नहीं आते हैं .इसलिए पिछले वर्ष वास्तविक नुक्सान सरकारी अनुमान से कहीं ज्यादा था . यह वर्ष भी बहुत कम वास्तविक विकास का वर्ष रहेगा और २०२१ के अंत मैं हम वहीं होंगे जहां मार्च २०२० मैं थे .
परन्तु २०२० मैं भी तो हमारी विकास दर मात्र ४.५ प्रतिशत थी जो पुरानी तीन प्रतिशत के लगभग ही है यानी नेहरु इंदिरा गांधी युग के समकक्ष है . इसमें यदि जनसंख्या की वृद्धि को जोड़ लें तो वास्तविक विकास नगण्य ही था . यही भयावह स्थिति २०२२ की मार्च मैं होगी . चीन , वियतनाम , बंगलादेश हमसे कहीं आगे निकल चुके होंगे .क्या यह सदा के लिए रहने वाला आर्थिक पिछ्ड़ा पन देश को मान्य है ? क्या देश को अपने प्रजातंत्र की कीमत विकास विहीन रह कर चुकानी होगी . क्या २००२ – २०१२ दस वर्ष की प्रगति एक स्वप्न और अन्ततः गरीबी ही हमारी नियति है ?
इस परिस्थिति से सफलता पूर्वक निकलना संभव है .
यदि सरकार को विपक्ष से परहेज़ है तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ , विवेका नन्द इंटरनेशनल फाउंडेशन जैसी संस्थाओं को एक सार्वजानिक चिंतन करने की आवश्यकता है . पर इन संस्थाओं मैं हिन्दू गरिमा , इतिहास व देश के लिए बलिदान व प्राण न्योछावर करने के लिए तत्पर लोग तो बहुत हैं पर जिन देश के आर्थिक विकास के लिए जिन प्रखर ज्ञानियों की आवश्यकता है वह यहाँ नहीं है. क्योंकि इन संस्थाओं की स्थापना किसी विशेष उद्देश्य से हुयी थी जिसमें चीन के समकक्ष परन्तू प्र्जातांत्रिक विकास शामिल नहीं था . इसी तरह आई सी एस या उसकी संतान आई ए एस की स्थापना ब्रिटिश हुकूमत बचने के लिए हुई थी विकास के उद्देश्य से नहीं . इसलिए यहाँ भी लोग इस बेहद जटिल समस्या का समाधान नहीं दे सकते . रूसवेल्ट या मार्गरेट थैचर या नरसिम्हा राव जी की पारखी नज़र व् तीक्ष्ण बुद्धि की आवश्यकता प्रधान मंत्री जी को है . विगत छः वर्ष बहुत सामन्य आर्थिक उपलब्धियों के थे जिनको झूठ बोलके छुपाया गया था . वह झूठ तो बंद हो गया पर यदि इन बचे तीन वर्षों मैं वह इस कार्य मैं सफल हो जाते हैं तो कुछ विकास संभव हैं अन्यथा हम सब सदाके लिए बाबरी मस्जिद , राम मंदिर या जातिवाद के झूलों पर चढ़े पर वोट देते रहेंगे और अंततः पुनः गरीबी से घिर जायेंगे .
भारत कब तक अवतारों की प्रतीक्षा मैं जियेगा इसका निर्धारण मोदी जी को करना है . इस बजट को एक क्रांतिकारी अवसर मानना उपयुक्त होगा .