Unemployment & Stunted Growth Rate: भारत मैं प्रखर राष्ट्रवाद से आर्थिक विकास क्यों कम हो जाता है ? समस्या और निदान
Rajiv Upadhyay
अभी हाल ही में रिज़र्व बैंक के भूतपूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने देश के हिन्दू विकास दर पर जाने की बहस उठा कर लोगों को भटका दिया। पर उनके द्वारा प्रस्तुत किये गए तथ्य विचार योग्य हैं।
भारत मैं दो समय ऐसे आये जब देश मैं राष्ट्रवाद अपने चरम पर था। एक समय जनता को पंडित नेहरू पर असीम विश्वास था और उन्होंने भी अपने पूरे सामर्थ्य का उपयोग देश के विकास के लिए किया। इसके बाद पिछले आठ सालों से भी मोदी जी निश्चय ही बहुत लोकप्रिय प्रधान मंत्री हैं जिन पर संसद व जनता को पूर्ण विश्वास है।
दोनों ही कालों मैं भारत स्वाबलंबन की ऒर तेजी से अग्रसर हुआ और भारत का अंतर्राष्ट्रीय सम्मान बढ़ा। नेहरू जी की मिश्रित अर्थ व्यवस्था साम्यवाद से अधिक सफल रही। आज की PIL भी उनके आधुनिक सार्वजानिक क्षेत्र के उद्यमों के विकास के समान ही है। परन्तु दोनों समय ही देश की आर्थिक प्रगति के बहुत धीमे होने के हैं। पिछले आठ वर्षों की वास्तविक आर्थिक विकास दर लगभग ३.५- ४ % की है और देश मैं बेरोज़गारी बढ़ी है और अच्छी नौकरियों का अकाल पड़ गया है। यही परिस्थितियां व विकास दर नेहरू जी के समय की थी. इसी को कभी कभी तब के अर्थशास्त्री हिन्दू विकास दर कह देते हैं क्योंकि उस दौरान पाकिस्तान की विकास दर हमसे कहीं ज्यादा थी ( ४.५- ५
%).
तो क्या कारण है कि सब कुछ अनुकूल होने पर भी देश की आर्थिक प्रगति इतनी धीरे रही जब की नेहरूजी , इंदिरा गाँधी व नरेन्द्र मोदी जी अयूब खान , सिंगापूर के ली कुआँ , चीन के देंग हिसाओ पिंग जितने ही शक्तिशाली प्रधान मंत्री हैं। फिर चाह कर भी यह देश को चीन या सिंगापूर क्यों नहीं बना पाते?
राणा प्रताप व शिवाजी से प्रेरित भारतीय राष्ट्रवाद व्यक्ति को देश के लिए मरना तो सिखाता है पर देश की प्रगति के लिए कैसे जिया जाय यह नहीं सिखाता। वह भक्ति और श्रद्धा दे सकता पर discipline ,ज्ञान व बुद्धिमत्ता नहीं। हमारे राष्ट्रवाद में ज्ञान, टीम वर्क व बड़ी उपलब्धि का नहीं बल्कि व्यक्तिगत त्याग , साहस व बलिदान का गुण गान किया जाता है. लम्बी गुलामी ने भारत को Mediocres, selfish and Risk Averse लोगों का देश बना दिया है जिनकी आकांक्षाएं भी छोटी ही होती हैं। हम विश्व विजयी सिकंदर बनना ही नहीं चाहते ! तकनीकी विषयों मैं हमें कभी भी महारथ हासिल नहीं थी.हमारे शिक्षक ,वैज्ञानिक , खिलाड़ी , नेता ,अफसर, प्रोफेसर , रिसर्च ,उद्योगपति सब Mediocres ही हैं जो छोटी सी उपलब्धि से ही संतुष्ट हो जाते हैं। । हमारी प्रेरणास्पद कहानियों में भी व्यक्ति के संयमशील , दयावान चरित्र को बहुत महत्व दिया जाता है उनकी बड़ी उपलब्धि या टीम वर्क को नहीं। नए भारत के लिए हमारे नेताओं को उच्चाकांक्षा व सफलता की नई संस्कृति को स्थापित कर उस को पुरस्कृत कर बढ़ावा देना होगा। यह बहुत कठिन कार्य है .इसके अलावा बड़े प्रयासों की असफलता को सफलता की कुंजी मान कर सहना सीखना होगा। विज्ञान व इंजीनियरिंग पर विशेष ध्यान देना होगा।अन्तरिक्ष इत्यादि अपवादों को छोड़ कर हम असफल व्यक्ति को तुरंत फांसी चढ़ाना चाहते हैं जिससे हिम्मतवाले भी डर कर चुप ही रहते हैं। अब तो झूठ के बोलबाले में सच बोलने में भी डर लगता है.
परन्तु चीन , मलेशिया , सिंगापूर भी तो कभी हमसे भी गए गुजरे थे , वह कैसे इतने आगे निकल गए ? दक्षिण कोरिया ,मलेशिया , सिंगापूर में तो प्रजातंत्र भी है। प्रजातंत्र तो अमरीका मैं भी था। वह रूस से इतना आगे कैसे निकल गया ?
भारत में अधिनायक वाद भी सदा असफल रहा है और रहेगा । चीन अधिनायकवाद से प्रगति करना सीख गया है, हम नहीं। हमारे यहाँ चापलूस लोग धीरे धीरे अधिनायक को देश के बृहत उद्देश्य से भटका देते हैं। यह हमने इंदिरा गाँधी , सोनिआ गाँधी ( UPA 2) व वर्तमान में भी होता देखा है। बहुमत असहनशीलता पैदा कर देता है।कुछ लोग सत्ता पर काबिज़ हो जाते हैं जिनका ज्ञान सीमित होता है। देश को उनके अज्ञान की कीमत चुकानी पड़ती है। भारतीय अधिनायक वाद मैं बाबू सर्वोपरि हो जाता है। वह चापलूसी से अधिनायक की सब इच्छाएं तो पूरी कर देता है पर स्वयं भी बड़ा व निरंकुश और बेहद स्वार्थी अधिनायक बन जाता है।
आवश्यकता तो देश मैं लेबर , उद्योगों और कृषि की नयी नीतियों से बढ़ावा देने की है। सीधी बात है की यदि चीन , विएतनाम या बांग्लादेश से कपड़ा उद्योग वापिस लेना है तो बांग्लादेश से कम वेतन पर उससे अधिक घंटों काम कर सस्ता माल बनाना होगा। हमारी यूनियन यह नहीं होने देंगी. हमारी कृषि , रिसर्च व्औद्योगिक productivity बहुत कम है। इसका राजनितिक हल सरे देश को साथ लेकर निकालना होगा।
हम भ्रष्टाचार पर सिर्फ भाषण देते हैं.उसे रोकने में हमारी न्याय प्रणाली बहुत असफल रही है। विदेशों मैं मुकदद्मे शीघ्र निपटा दिए जाते हैं और दोषी को बहुत जल्दी सज़ा मिल जाती है. हमारे यहाँ न्याय अगर मिलता भी है तो दशकों बाद। इसलिए भ्रष्ट लोगों को डर नहीं लगता।अन्य विकसित देशों की तरह हमें न्याय व्यवस्था को बहुत तेज़ बनाना होगा और तारिख दर तारिख की न्यायिक संस्कृति समाप्त करनी होगी।
परन्तु यह भी सोचने योग्य है की जब नरसिम्हा राव व UPA 2 काल मैं भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पर था तो आर्थिक विकास भी क्यों चरम सीमा पर था। क्या उनका आर्थिक ज्ञान व समझ अधिक थी ? आज ज्ञानी लोग क्यों छुपे बैठे हैं? बाबुओं व दुकानदारों के राज मैं नीतियां भी उनके ज्ञान के अनुरूप निम्न स्तर की ही बनती हैं। हमारी प्रमुख समस्या Mediocrity ही है .यह विचारने योग्य है कि क्या हमारी आज की ईमानदारी की दिखावट और ढोल बजाने प्रवृति, हमारे आर्थिक विकास की सबसे बड़ी बाधा बन गयी है! सीबीआई / ईडी / सीवीसी /विजिलेंस राज मैं हर आदमी डरा रहता है और सिर्फ नौकरी बचाने पर ध्यान केंद्रित करता है। इससे अंततः भ्रष्टाचार भी बढ़ता है। आज देश को ख़तरा उठा कर पायी गयी बड़ी सफलता पाने वाले और बहादुर अफसरों की आवश्यकता है विजिलेंस के बाबुओं की नहीं ! यही ईमानदारी का ढोंग प्रखर राष्ट्रवाद की असफलता की सबसे बड़ी विडंबना है।
अमरीका जैसे प्रजा तंत्र में अप्रत्याशित प्रगति बड़े व्यक्तिगत सृजनात्मक प्रयासों की सफलता से आती है. पर वहां अनेक एलोन मस्क या स्टीव जॉब है और जो साहसी भी हें और जो वह चाहते हैं कर सकते हैं। भारत मैं एलोन मस्क mediocrity तथा बाबू शाही संस्कृति में न तो पैदा हो सकते हैं न ही सफल हो सकते हैं . इस संस्कृति को बदलना होगा।उद्योग , विज्ञान व रिसर्च के मामलों से दम्भी व अज्ञानी बाबुओं को पूर्णतः निकालना अति आवश्यक हो गया है. वहां विशेष ज्ञान की आवश्यकता है सांप की लकीर पर लाठी पीटने के नहीं । मनमोहन काल की सफलता के पीछे उद्योगों को बाबुओं के चुंगल से निकलने का बहुत योगदान था। चुनावी खर्चों के कारण नेताओं को भी पैसे चाहिए . हमारे उद्योग पति भी मल्ल्या व् नीरव मोदी जैसे भी हैं और नेताओं और बाबुओं के साथ मिल कर जनता का पैसा लूटने की फ़िराक मैं रहते हैं। पर सब मिला कर प्रखर राष्ट्रवाद को मनमोहन काल की उद्योगों को बाबुओं के चुंगल से निकालने से मिला कर बनी नयी नीतियों की आवश्यकता है.
आज सरकर व मीडिया में ज्ञान व ज्ञानियों की पूर्णतः अवहेलना की जा रही है। मीडिया और अखबार जनता को फालतू की तीन तलाक की बहस मैं उलझाए हुए हैं। अर्थ व्यवस्था , रक्षा व बेरोज़गारी हटाने जैसी मूल समस्यायों पर चिंतन ही नहीं होता दीख रहा है। सारा माहौल आर्थिक विकास को अवरोधित कर रहा है।
यदि बिना विकास के सत्ता मिल जाये तो विकास की मेहनत क्यों करें . ऐसा प्रतीत होता है कि लालू जी का यह कथन आज सब ने अपना लिया है .
नव भारत का सृजन नव चिंतन से ही होगा .
