अमीर ताइवान न गरीब कम्युनिस्ट चीन का था न होगा : चीन सिर्फ उसको जबरदस्ती गुलाम बना सकता है : चीन से लगातार पिछड़ता भारत कितना असहाय है ?
युक्रेन के बाद विश्व ताइवान को लेकर चिंतित है . यदि रूस को न रोका होता तो चीन अवश्य ही ताइवान पर हमला कर के हथिया लेता . अब भी चीन चीते की तरह घात लगा कर बैठा है कि कब अमरीका कमजोर हो और वह ताइवान को हथिया ले . चीन का ताइवान पर दावा गलत है . चीन मैं साम्यवादी क्रांति मुख्य ज़मीन पर ही रुक गयी थी . ताइवान एक द्वीप समूह है जिस पर कम्युनिस्ट चीन का कभी भी शासन नहीं था .
ताइवान ने एक छोटा प्रजातांत्रिक देश होने के बावजूद चीन से बहुत पहले तरक्की कर ली थी. चीन ने तिब्बत को डकार कर पचा लिया है और अब वह हथियाने के लिए नई जमीन खोज रहा है . इस के लिए छोटा सा अमीर ताइवान एक दम उपयुक्त है .चीन की इतनी प्रगति के बाद भी आज ताईवान की प्रति व्यक्ती आय चीन से दुगनी से भी ज्यादा है और वहां का औसत नागरिक चीन से कहीं अच्छा जीवन व्यतीत कर रहा है . प्रजातंत्र ने नागरिकों को बहुत स्वतंत्रता दी हुई है.
फिर क्यों ताइवान चीन से मिलेगा ?
चीन के प्राचीन इतिहास में ताइवान का उल्लेख बहुत कम मिलता है। फिर भी प्राप्त प्रमाणों के अनुसार यह ज्ञात होता है कि तांग राजवंश (Tang Dynasty) (६१८-९०७) के समय में चीनी लोग मुख्य भूमि से निकलकर ताइवान में बसने लगे थे। कुबलई खाँ के शासनकाल (१२६३-९४) में निकट के पेस्काडोर्स (pescadores) द्वीपों पर नागरिक प्रशासन की पद्धति आरंभ हो गई थी। ताइवान उस समय तक अवश्य मंगोलों से अछूता रहा।
जिस समय चीन में सत्ता मिंग वंश (१३६८-१६४४ ई.) के हाथ में थी, कुछ जापानी जलदस्युओं तथा निर्वासित और शरणार्थी चीनियों ने ताइवान के तटीय प्रदेशों पर, वहाँ के आदिवासियों को हटाकर बलात् अधिकार कर लिया। चीनी दक्षिणी पश्चिमी और जापानी उत्तरी इलाकों में बस गए।
१५१७ में ताइवान में पुर्तगाली पहुँचे, और उसका नाम ‘इला फारमोसा’ (Ilha Formosa) रक्खा। १६२२ में व्यापारिक प्रतिस्पर्धा से प्रेरित होकर डचों (हालैंडवासियों) ने पेस्काडोर्स (Pescadores) पर अधिकार कर लिया। दो वर्ष पश्चात् चीनियों ने डच लोगों से संधि की, जिसके अनुसार डचों ने उन द्वीपों से हटकर अपना व्यापारकेंद्र ताइवान बनाया और ताइवान के दक्षिण पश्चिम भाग में फोर्ट ज़ीलांडिया (Fort Zeelandia) और फोर्ट प्राविडेंशिया (Fort Providentia) दो स्थान निर्मित किए। धीरे धीरे राजनीतिक दावँ पेंचों से उन्होंने संपूर्ण द्वीप पर अपना अधिकार कर लिया। ( विकी )
चीन सिर्फ बलपूर्वक उसे अपना उपनिवेश बना सकता है पर वह तो विश्व के अनेक देश कर सकते हें .पिछली सदी ने जो स्वतंत्रता उपनिवेशों को इतनी मुश्किल से मिली थी लालची चीन अपनी हरकतों से विश्व मैं एक नया उप निवेशवाद प्रारंभ कर देगा जो हर छोटे देश के लिए घातक होगा . इसलिए सब देशों को चीन के खतरे को गंभीरता से लेना होगा .
भारत इतना बड़ा देश हो कर भी चीन से डरता है. प्रजा तंत्र का आर्थिक प्रगति के लिए फायदा उठाने के बजाय भारत उससे नुक्सान ही उठाता रहा .चीन ही नहीं , सिंगापूर , कोरिया , मलेशिया सब हमसे कहीं आगे निकल गये हें . हम बड़ी मुश्किल से चीन से अपने को बचा पा रहे हें . ताइवान या किसी छोटे देश को हम क्या बचायेंगे .उलटा श्री लंका . नेपाल . बांग्लादेश सब चीन के पैसे से हम को चिढा रहे हें . सन २००० – २०१० तक तो हमारी आर्थिक प्रगति ठीक ठाक थी पर फिर उसे नेताओं के लालच का ग्रहण लग गया . पहले अपने भ्रष्टाचार को बचाने के लिए जनता को मुफ्त खोरी का चुग्गा डाला और बाद में यह एक आदत बन गयी . भला दिल्ली मैं महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा करने की क्या तुक है पर अब यह आदत फ़ैल रही है. इसलिए आर्थिक विकास के लिए पैसा नहीं है . पिछले दस वर्षों मैं आर्थिक प्रगति बेहद मंदी हुई है . मंहगाई के कारण व नौकरी कम होने से गरीब किसानों , मजदूरों व मध्यम वर्ग की वास्तविक क्रय क्षमता घटी ही है .
आर्थिक विकास को छोड़ें, अब तो देश की सुरक्षा भी दांव पर लगी हुई है . हज़ार साल की गुलामी को भोगे हुए देश मैं बीस साल मैं हम मात्र ३६ राफेल जहाज खरीद सके हें जब की मिग – २१ कितने ही पायलट निगल चुका है . १९६६ मैं हमारे पास ४० स्काद्रण हवाई जहाज थे जो अब मात्र ३३ रह गए हें पर हम और जहाज नहीं खरीद पा रहे हें . यही हाल पनडुब्बी व अन्य हथियारों का है . संसद पर हमले के समय हमरे पास टैंक के गोले भी नहीं थे ! हमारे अभिनन्दन को जाहिल बाबुओं की कलम ने बंदी बनवा दिया और उन बाबुओं को कुछ भी सज़ा नहीं हुई और वह आज भी सेनाओ पर राज कर रहे हैन. सेना प्रमुखों को विदेश से हथियार नहीं खरीदने की शर्त उनको बेकार कर देती है रक्षा पर ज्यादा खर्च की जरूरत है जिससे हथियारों की लम्बे समय से चली आ रही कमी को दूर किया जा सके . इसके लिए नए हथियारों की खरीद का बजट प्रति वर्ष दस बिलियन डॉलर बढ़ाना होगा।
इसी तरह तवांग की लम्बे समय तक रक्षा करना एक बड़ा सवाल है . चीन सीमा पर एक और माउंटेन डिवीज़न को तैनात करना आवश्यक है . नेपाल के गोरखाओं को सेना मैं पहले की तरह भर्ती करना होगा नहीं तो चीन वहां भी बाजी मर जाएगा. संभवतः अमरीकी ब्लैकवाटर की तरह गुरखाओं की टुकड़ी बनानी होगी। कुल मिला चीन के मुकाबले कर भारत एक बहुत कमजोर देश है जिसको ठीक करना होगा .
ऐसी हालत मैं आस पास के देश भी अमरीका को ही अपना रक्षक मानते हें . अमरीका हमें चीन से युद्ध मैं ज्यादा से ज्यादा कुछ हथियार दे देगा पर उसकी दुगनी कीमत वसूलेगा . यही हाल जापान का है . ताइवान को युद्ध के लिए पैसा तो दे देंगे पर उसे अपनी रक्षा खुद करनी होगी . छोटा सा देश चीन से कितने दिन लड़ लेगा .अमरीका दस साल बाद ताइवान को बचाने लायक भी नहीं रहेगा . इसलिए सब आस पास के देश इस दुविधा मैं हें कि चीन को ताइवान हथियाने से कैसे रोका जाय . आज तो जापान स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकता तो वह चीन की क्या मदद करेगा . दस साल मैं वह अपनी रक्षा खुद करने मैं समर्थ हो जाएगा . चीन को रोकने के लिए विश्व के सब देशों को संगठित होना होगा . इसका कोई विकल्प नहीं है . भारत को अफ्रीका से सिंगापूर तक समुद्र की रक्षा करनी होगी . भारत को अंडमान मैं अमरीका , जापान व ऑस्ट्रेलिया के जैसे हथियार ही खरीदने होंगे जिस से किसी देश पर भी हमला हो तो वह दुसरे देशों से कुछ हथियार तुरंत ले सके . इस लिए F – 35 , परमाणु पनडुब्बी के विरुद्ध युद्ध के लिए हथियार इत्यादि इकट्ठे करने होंगे . चीन के मिसाइल रोकने की क्षमता सब देशों को देनी होगी . रूस Brahmos मिसाइल न देने दे इसलिए BARAK missile भी अतिरिक्त रखने होंगे . भारत किसी सैन्य संगठन को न अपनाए पर उनकी हथियारों से सहायता लायक बनना होगा .
ताइवान भी युक्रेन की तरह एक एक प्रतीक देश है . अगर वहां चीन की विजय यात्रा शुरू हो गयी तो उसे कोई नहीं रोक पायेगा . इसलिए भारत को अपनी ताकत बढ़ा कर सब देशों के साथ ही चलना होगा .