अद्वितीय फिल्म शोले के पचास वर्ष : इतने वर्षों मैं कोई दूसरी फिल्म क्यों इतनी अच्छी नहीं बन सकी ? क्या राष्ट्र का या बॉलीवुड का चरित्र परिवर्तन इसका कारण है ?
१९७५ मैं रिलीज़ हुई फिल्म शोले के इस पच्चीस वर्ष पूरे हो गए . कुछ वर्षों पहले हिंदुस्तान टाइम्स के एक राष्ट्रव्यापी वोटिंग मैं शोले को सदी कि सबसे अच्छी फिल्म घोषित किया गया था .बाकि डो फिल्म थीं महबूब खान कि मदर इंडिया और के आसिफ की मुगले आज़म . यह तीनों फिल्म ही अविस्मर्णीय थीं और इस सम्मान कि हक़दार थीं . पर क्योंकि जनता ने शोले को सर्व श्रेष्ठ घोषित किया था इस लिए उसी का विश्लेषण . फिल्म शोले और बी आर चोपड़ा के सीरियल महाभारत मैं एक समानता थी कि कोई विश्लेषण उनकी अभूतपूर्व लोकप्रियता का कारण नहीं ढूंढ पाया . कुछ ऐसी ईश्वरीय कृपा थी की हर पात्र ,हर डायलाग , हर किसी कि एक्टिंग , फोटोग्राफी , डायरेक्शन सब कुछ इतना उत्कृष्ट था कि इन्हें ऐतिहासिक सफलता मिली .
फिल्म शोले कि सफलता मैं उसके अद्वितीय डायलॉग्स , स्क्रिप्ट , कभी न झुकने वाले गब्बर व ठाकुर का चरित्र चित्रण . अमिताभ , धर्मेन्द्र , हेमा भी फिल्म मैं थे पर छोटे छोटे चरित्र जैसे सूरमा भोपाली , जेलर असरानी , इमाम हंगल , विधवा जया सभी जब स्क्रीन पर आये तो एक विलक्षण सजीवता आयी .
एक यह बात भी हो सकती है कि जावेद व सलीम यंग थे , रमेश सिप्पी कुछ कर दिखाना चाहते थे और जी पी सिप्पी ने सत्तर लाख के बजट कि फिल्म पर साढ़े तीन करोड़ लगा दिए जो मुगले आज़म और पाकीज़ा के साथ भी हुआ था . पर इसके अलावा भी कुछ ऐसा था जो अब नहीं है वह क्या था ?
आज की फ़िल्में उनके मुख्य निर्माता , निर्देशक व हीरो के मिथ्या अभिमान से ग्रसित हें . उनकी जन भावनाओं पर पकड़ नहीं है . इसलिए सर्व व्यापी भाई भतीजावाद बेकार और बेजान कहानियां , स्टीरियो टाइप एक्टिंग ,फूअड़ संवाद और दावूद का हिन्दू विरोधी कुप्रभाव , सब मिला कर आज की फिल्मों को बॉक्स ऑफिस धुल कहता रहा है . बूढ़े हीरो हेरोइन हट ही नहीं रहे और सुशांत राजपूत जैसे उदयीमान कलाकारों की ह्त्या कावा दी जाती है . तीन सौ करोड़ और पांच सौ करोड़ की कमाई के आंकड़े झूठे होते हें . हॉल खाली मिलते हें पर सस्ते टिकेट नहीं मिलते .सवेरे झूठी बुकिंग कर शाम को कैंसिल कर झूठी सेल दिखा दी जाती है . बड़े निर्माता के आसिफ या रमेश सिप्पी या हृषिकेश मुखेर्जी को नहीं आने देते क्योंकि सब को जल्दी बिना खतरे के पैसा चाहिए . इसी लिए जब कोई अच्छा नि र्माता छोटे बजट की कश्मीर फाइल बनाता है तो उसे जनता का भरपूर समर्थन मिलता है .
संगीत की तो बात करना ही व्यर्थ है . गुलशन कुमार की ह्त्या देश के लिए एक शाप सिद्ध हो गयी . अब तो नयी पीढी के रुझान ही अज़ान के स्वरों पर आधारित फूहड़ लिखे गानों और शोर भरे संगीत को और हो गया है . संगीत मैं तो कोई आशा कि किरण भी तो नहीं दीख रही ! इसके अलावा आधुनिक जीवन बहुत तनाव पूर्ण हो गया है . फ़ास्ट फ़ूड की तरह नै पीढी फ़ास्ट मनोरंजन खोज रही है . इन्टरनेट ने एक अकेलापन बढ़ा दिया है . पारिवारिक व्यवस्था चरमरा रही है .इन सब का भी कुप्रभाव है .
पर तब भी स्वयं रमेश सिप्पी की अगली फिल्म शान , राम गोपाल वर्मा कि अमिताभ वाली पुनर्निर्मित शोले , बहुत प्रयास के बावजूद पूरा न देख सकने वाली फिल्म जवान सब ही तो बेकार थीं . इसलिए कुछ हद तक इन तीनों फिल्म और महाभारत की सफलता दैविक भी मान सकते हें . परन्तु शोले न सही ‘छोटी सी बात , कभी कभी , मिस्टर इंडिया तो बन सकती थीं . वह क्यों नहीं बन पा रहीं ?
इसका एक मात्र उत्तर चरित्र पतन है . इस पतन के उत्तरदायी हम सब हें जो पीके जैसी फिल्म को नहीं रुकवा पाते और उसकी सफलता और अपमान का कारण बनती है .
क्या फिल्म जगत भी किसी अवतार कि प्रतीक्षा कर रहा है ?

