I am a great lover of B.R.Chopra’s Mahabharat . I am not alone in this love . There were episodes like Draupadi’s Cheer Haran in which drivers stopped trains at stations to see it . Possibly never again a TV serial will catch public imagination so much . Although it is difficult to decide who should get the credit for its success . The biggest credit ofcourse must go to B.R.Chopra who staked his life’s savings on one project . He chose the team including Rahi Masoom Raja. Credit must also go to Actors who played Krishna , Bhisham , Drauadi , Drone , Vidur , Dhritrashtra etc who brought the characters alive . So also must the credit go to Set designer who did an excellent job .
But beyond every one the credit must go also to the Script writer ie Rahi Masoom Raza. If Amitabh was as much a creation of Salim Javed as being a great actor so can be said about Rahi Masoom Raza . His dialogues showed that he had understood the total depth of not only character but the very essence of hindu beliefs in writing those dialogues. He was in category of Naushaad , Rafi and Shakeel Badauni who gave us the immortals bhajans of ‘ Baiju Bawaraa . His belief and pain is visible in his poem at the end .
I am little chagirned at the mergence of hate in communities again a la Muzzafar Nagar , Godhra .
After independence there was a visible thaw and understanding between communities at national level . M.C.Chagla , Zakir Hussain , Maulana Azad were great persons who got respect automatically .They did not need to carry their muslimness or Indianess identity like passport. Terror is possibly the biggest factor in the present impass.
कहीं देश खो गया है . यदि अब नौशाद या राही नहीं पैदा होंगे तो घाटा हम सब को ही होगा
I am not venturing into giving solutions but an only sharing his pain because his great contribution to hindu culture .
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http://www.sahityashilpi.com/2008/10/blog-post_5563.html
डॉ. राही मासूम रजा – जीवनवृत्त एवं कृतित्व [आलेख] – डॉ० फीरोज अहमद
डॉ. राही मासूम रजा का जन्म १ अगस्त १९२७ को एक सम्पन्न एवं सुशिक्षित शिआ परिवार में हुआ। उनके पिता गाजीपुर की जिला कचहरी में वकालत करते थे। राही की प्रारम्भिक शिक्षा गाजीपुर में हुई और उच्च शिक्षा के लिये वे अलीगढ़ भेज दिये गए जहाँ उन्होंने १९६० में एम०ए० की उपाधि विशेष सम्मान के साथ प्राप्त की। १९६४ में उन्होंने अपने शोधप्रबन्ध “तिलिस्म-ए-होशरुबा” में चित्रित भारतीय जीवन का अध्ययन पर पी०एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात् उन्होंने चार वर्षों तक अलीगढ़ विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य भी किया।
अलीगढ़ में रहते हुए ही राही ने अपने भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास कर लिया था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे थे।
१९६८ से राही बम्बई में रहने लगे थे। वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यन्त लोकप्रिय हो गए थे। कलम के इस सिपाही का निधन १५ मार्च १९९२ को हुआ।
राही का कृतित्त्व विविधताओं भरा रहा है। राही ने १९४६ में लिखना आरंभ किया तथा उनका प्रथम उपन्यास मुहब्बत के सिवा १९५० में उर्दू में प्रकाशित हुआ। वे कवि भी थे और उनकी कविताएं ‘नया साल मौजे गुल में मौजे सबा’, उर्दू में सर्वप्रथम १९५४ में प्रकाशित हुईं। उनकी कविताओं का प्रथम संग्रह ‘रक्स ए मैं उर्दू’ में प्रकाशित हुआ। परन्तु वे इसके पूर्व ही वे एक महाकाव्य अठारह सौ सत्तावन लिख चुके थे जो बाद में “छोटे आदमी की बड़ी कहानी” नाम से प्रकाशित हुई। उसी के बाद उनका बहुचर्चित उपन्यास “आधा गांव” १९६६ में प्रकाशित हुआ जिससे राही का नाम उच्चकोटि के उपन्यासकारों में लिया जाने लगा। यह उपन्यास उत्तर प्रदेश के एक नगर गाजीपुर से लगभग ग्यारह मील दूर बसे गांव गंगोली के शिक्षा समाज की कहानी कहता है। राही नें स्वयं अपने इस उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि “वह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफर था। मैं गाजीपुर की तलाश में निकला हूं लेकिन पहले मैं अपनी गंगोली में ठहरूंगा। अगर गंगोली की हकीकत पकड़ में आ गयी तो मैं गाजीपुर का एपिक लिखने का साहस करूंगा”।
राही मासूम रजा का दूसरा उपन्यास “हिम्मत जौनपुरी” मार्च १९६९ में प्रकाशित हुआ। आधा गांव की तुलना में यह जीवन चरितात्मक उपन्यास बहुत ही छोटा है। हिम्मत जौनपुरी लेखक का बचपन का साथी था और लेखक का विचार है कि दोनों का जन्म एक ही दिन पहली अगस्त सन् सत्तईस को हुआ था।
उसी वर्ष राही का तीसरा उपन्यास “टोपी शुक्ला” प्रकाशित हुआ। इस राजनैतिक समस्या पर आधारित चरित प्रधान उपन्यास में भी उसी गांव के निवासी की जीवन गाथा पाई जाती है। राही इस उपन्यास के द्वारा यह बतलाते हैं कि सन् १९४७ में भारत-पाकिस्तान के विभाजन का ऐसा कुप्रभाव पड़ा कि अब हिन्दुओं और मुसलमानों को मिलकर रहना अत्यन्त कठिन हो गया।
सन् १९७० में प्रकाशित राही के चौथे उपन्यास “ओस की बूंद” का आधार भी वही हिन्दू-मुस्लिम समस्या है। इस उपन्यास में पाकिस्तान के बनने के बाद जो सांप्रदायिक दंगे हुए उन्हीं का जीता-जागता चित्रण एक मुसलमान परिवार की कथा द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
सन् १९७३ में राही का पांचवा उपन्यास “दिल एक सादा कागज” प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के रचना-काल तक सांप्रदायिक दंगे कम हो चुके थे। पाकिस्तान के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया था और भारत के हिन्दू तथा मुसलमान शान्तिपूर्वक जीवन बिताने लगे थे। इसलिए राही ने अपने उपन्यास का आधार बदल दिया। अब वे राजनैतिक समस्या प्रधान उपन्यासों को छोड़कर मूलतः सामाजिक विषयों की ओर उन्मुख हुए। इस उपन्यास में राही ने फिल्मी कहानीकारों के जीवन की गतिविधियों आशा-निराशाओं एवं सफलता-असफलता का वास्तविक एवं मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।
सन् १९७७ में प्रकाशित उपन्यास “सीन ७५” का विषय भी फिल्मी संसार से लिया गया है। इस सामाजिक उपन्यास में बम्बई महानगर के उस बहुरंगी जीवन को
विविध कोणों से देखने और उभारने का प्रयत्न किया गया है जिसका एक प्रमुख अंग फिल्मी जीवन भी है। विशेषकर इस उपन्यास में फिल्मी जगत से सम्बद्ध व्यक्तियों के जीवन की असफलताओं एवं उनके दुखमय अन्त का सजीव चित्रण किया गया है।
सन् १९७८ में प्रकाशित राही मासूम रजा के सातवें उपन्यास “कटरा बी आर्जू” का आधार फिर से राजनैतिक समस्या हो गया है। इस उपन्यास के द्वारा लेखक यह बतलाना चाहते हैं कि इमरजेंसी के समय सरकारी अधिकारियों ने जनता को बहुत कष्ट पहुंचाया।
राही मासूम रजा की अन्य कृतियाँ है – मैं एक फेरी वाला, शीशे का मकां वाले, गरीबे शहर, क्रांति कथा (काव्य संग्रह), हिन्दी में सिनेमा और संस्कृति, लगता है बेकार गये हम, खुदा हाफिज कहने का मोड़ (निबन्ध संग्रह) साथ ही उनके उर्दू में सात कविता संग्रह भी प्रकाशित हैं। इन सबके अलावा राही ने फिल्मों के लिए लगभग तीन सौ पटकथा भी लिखा था। इन सबके अतिरिक्त राही ने दस-बारह कहानियां भी लिखी हैं। जब वो इलाहाबाद में थे तो अन्य नामों से रूमानी दुनिया के लिए पन्द्रह-बीस उपन्यास उर्दू में उन्होंने दूसरों के नाम से भी लिखा है। उनकी कविता की एक बानगी देखिये जिसे “मैं एक फेरी बाला” से साभार उद्धरित किया गया है:
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फ़ैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।
राही जैसे लेखक कभी भुलाये नहीं जा सकते। उनकी रचनायें हमारी उस गंगा-जमनी संस्कृति की प्रतीक हैं जो वास्तविक हिन्दुस्तान की परिचायक है।