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क्या भारतीय रेलवे प्रजातंत्र की कीमत चुका रही है या भारतीय प्रजातंत्र की सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है ?

 

क्या भारतीय रेलवे प्रजातंत्र की कीमत चुका रही है या भारतीय प्रजातंत्र की सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है  ?
राजीव उपाध्याय         ( इस लेख के विचार पूर्णतः निजी है )
steam train
आज रेलवे बजट के दिन यह सोचने की आवश्यकता है कि ;diesel train
क्या भारतीय रेलवे प्रजातंत्र की बड़ी कीमत चुका रही है  ?
हाँ ,अवश्य !
परन्तु क्या  भारतीय  रेलवे भारतीय प्रजातंत्र की सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है
हाँ , पर भारतीय सेना से बराबरी का मुकाबला है .
यह दो विरोधाभासी कथन कैसे सच हो सकते हैं यह जानने की आवश्यकता है .
पूर्व प्रधान मंत्री चंद्रशेखर के स्थान बलिया पर राजधानी एक्सप्रेस को रोक दिया गया जहाँ शायद श्री चंद्रशेखर एक मात्र यात्री थे . यह बीमारी मात्र रेल रोकने तक सीमित नहीं है परन्तु विभाग के अनेकों पहलुओं पर विगत बीस वर्षों मैं राजनीती का प्रभुत्व बढ़ता गया है .साठ  के दशक मैं रेल मन्त्रियों ने लगभग हर टकराव मैं यूनियन का साथ दिया जिसके चलते रेल के  पहले  सुपरवाइजर बाद मैं धीरे धीरे अफसरों ने भी अपना साहस खो दिया .इसकी परिणिति मैं १९७२ की अखिल भारतीय हड़ताल  थी . तब तक इंदिरा गाँधी रोज़ रोज़ के चक्का जैम से यह सीख चुकी थीं की रेलवे सरकार की दृढ़ता के बिना नहीं चल सकती .अगले दस वर्ष रेलवे ने शांति से बिताये .
पर फिर भ्रष्टाचार पनपना शुरू हुआ . रेलवे मंत्री घनी खान चौधरी ने मालदा का समग्र विकास रेलवे से करवा लिया जिससे वह अंत समय तक मालदा के राजा बने रहे . परन्तु यह बीमारी बढ़ती गयी . जाफ़र शरीफ का काल रेलवे का सबसे कलुषित काल था जिसमें बड़े भ्रष्टाचार को पूरा सरकारी संरक्षण दिया गया .पर यह उस काल की कहानी है जब प्रधान मंत्री भी हर्षद मेहता , लखु पाठक व् जेमेम घुस काण्ड मैं दोषी करार दिए गए . देश की पूरी सरकार एक जैसी थी . यही दृश्य पिछले दस वर्षों मैं रहा जब सी डब्लू जी , २ जी पनडुब्बियों हेली कोप्तारों के सौदे का असर रेलवे पर पड़ना भी अवश्यम्भावी था .इसकी पूर्णाहुति रेल मंत्री घुस काण्ड मैं पड़ी .
इसी तरह रेलवे के नए कारखानों व् अन्य सभी विनिवेशों का राजनीती करण   हो गया .
रेल के किरायों की व् बहालियों की राजनीती ममता बनर्जी ने शुरू की जो लालू युग मैं भी चली और रेलवे के लिए पैसों की अत्यंत कमी हो गयी .
इस लिए जैसे जैसे देश का राजनैतिक पतन हुआ भारतीय रेल का भी उसी तरह पतन हुआ . परन्तु अंग्रेजों की बनाई यह संस्था इतनी मज़बूत थी की अनेकों ख़राब मंत्रियों के बावजूद इस की कार्य क्षमता पर इतना असर नहीं हुआजितना बाकी देश पर  .
पिछले सौ वर्षों मैं शायद बीस दिन ऐसे होंगे जब कालका या फ्रोंतियर मेल न चली हों . सर्दी हो बारिश हो , बेईमानी का युग हो या  इमानदारी का  रेलवे का पहिया कभी नहीं रुका .देश की जनसख्या बढती गयी , औद्योगिक उन्नति होती गयी पर रेलवे देश की प्रगति मैं कभी बाधा  नहीं बनी बल्कि देश से सदा आगे चलती रही .
इसका  मूल कारण था रेलवे सदा नयी उन्नत टेक्नोलॉजी को लाती रही . जहाँ पचास के दशक मैं एक गाड़ी मैं आठ डिब्बे होते थे वहां अब चौबीस होते हैं . यदि आबादी तीन गुनी बढ़ी तो गाड़ी की लम्बाई भी तीन गुनी बढा  दी  .यही मॉल गाड़ियों का किया गया . पहले एक मालगाडी पन्द्रह् सौ टन  की होती थी अब पैंतालिस सौ टन की होती है . वही एक ड्राईवर और एक इंजन अब तीन गुना माल ढोता  है .इसलिए तीस सालों मैं रेलवे कर्मचारियों की संख्या बढ़ने के बजाय घट गयी . ए सी डिब्बे चले ,कंप्यूटर से रिजर्वाशन बहुत सरल हो गया . घर बैठे टिकट खरीदने की सुविधा हो गयी .कुछ मामलों मैं जैसे सफाई मैं इतनी उन्नती नहीं हो सकी जितनी अपेक्षित थी परन्तु निष्पक्ष आंकलन से यही सिद्ध होगा कि,
भारतीय आज भी रेल निश्चय ही देश की रीढ़  की हड्डी ही नहीं बल्कि देश की सर्वश्रेष्ठ संस्था है जिसने देश के इतने राजनितिक पतन को सबसे अच्छे ढंग से झेला है .
भारतीय रेल का मुकाबला सिर्फ भारतीय सेना से है जिसमें भी टक्कर कड़ी है .
अक्सर  रेलवे के प्रजातांत्रिक राजनीती करण को गलियाँ देते हैं . कहते हैं की इससे रेलवे का समुचित विकास नहीं हुआ .देश ने प्रजातंत्र को चुना और जब एमेंर्जेंसी  के बाद मौक़ा मिला तो प्रजातंत्र मैं पुनः आस्था व्यक्त करी . इसलिए हमारे प्रजातंत्र के दोष को सुधरने की आवश्यकता है . जिस ई एम् यु किराये के कम होने को हम दोष देते हैं वह ही लाखों लोगों को घर से दूर रह कर रोज़ काम पर आने देता है . भारत के रेल किराये सबसे कम हैं ठीक उसी तरह जैसे हमारे मोबाइल की दर सबसे कम है . इससे गरीब की जीवन शैली  सुधरी है . यदि राजा या ममता जैसे  मंत्री अती  करते  हैं तो उसका कारण समझौते की सरकार है .
रेलवे को सरकार का विभाग ही रहना चाहिए . इस से देश का हर नागरिक का हित जुडा  है . इंग्लैंड मैं रेल का प्राइवेट हाथों मैं देना पूर्णतः विफल रहा है . जब तीस साल तक एम्बेसडर कार थी तो क्या निजी क्षेत्र से क्या फायदा मिला था . रेलवे निजी क्षेत्र मैं भी उससे बदतर होगी .
इसलिए भारतीय रेल के निजीकरण की मांग पूर्णतः  अनुचित है .
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