क्या हिन्दू निष्क्रियता व् अकर्मण्यता ही पुनः हिन्दू पतन व् विनाश का कारण बनेगी –
हमारा देश कहने को तो १९४७ मैं आज़ाद हो गया पर एक हज़ार साल की गुलामी ने जो छाप हिन्दू चरित्र पर छोड़ दी है वह चाह के भी नहीं जा रही . महात्मा गाँधी के बिना देश आजाद नहीं हो सकता था पर उनकी अहिंसा तो एक माध्यम थी उस संघर्ष का जिसने हमें स्वतंत्रता दिलाई . परन्तु बाद मैं अहिंसा ने कुछ विकृत रूप ले लिया जैसे कोई एक चांटा मरे तो तुम दूसरा गाल आगे कर दो . गाँधी जी के बोस , भगत सिंह , चन्द्र शेखर आजाद इत्यादि के बलिदान को उचित सम्मान न देना उनकी एक राजनितिक मजबूरी थी जो बाद मैं एक हिन्दू चरित्र का हिस्सा बन गयी . कुछ हद तक हमारी वर्ण व्यवस्था का ध्वंस होना और उसके समानान्तर किसी व्यवस्था के नहीं उभरने ने हमें सिर्फ जीवन यापन के लिए पैसा कमाने की मशीन बना दिया . पैसे के वर्चस्व ने बाकि सभी गुणों को गौण कर दिया . पैसेवाले सर्व गुण संपन्न भी हो गए . वीर व् आदर्श् प्रेमी व्यक्ति बुद्धू व् ज़माने साथ न चलने वाले हो गए . अफसरों मैं ईमान दरी की सजा कालापानी होने लगी.
स्वतन्त्रता के बाद अचानक एक निष्क्रियता या अकर्मण्यता ही हमारी पहचान बन गयी है . हिन्दू का अदम्य साहस , वीरता , आदर्शवाद क्यों और कैसे समाप्त हो गया यह एक गूढ चिंतन का विषय है . कैसे छोटा सा पाकिस्तान हम पर बार बार हमला करता है ? हम कारगिल को शौर्य दिवस मानते हैं ! कैसे एम् ऍफ़ हुसैन पारवती का बैल से सम्भोग का चित्र बना कर ज़िंदा रह जाते हैं जबकि तसलीमा नसरीन दर आर की ठोकरें खाने को मजबूर हो जाती है,. कैसे ओवैसी खुले आम हैदराबाद का भाषण दे देते हैं . शंकराचार्य को कोई छोटा मोटा व्यक्ती अपमानित कर सकता है पर जिन पर सौ इयों केस व् वारंट हैं वह खुले आम घुमते हैं . यहाँ तक की आतंकियों के प्रभाव से पिक्चरों मैं भी हिन्दुओं का अपमान लगातार हो रहा है .हिन्दुओं का अपमान तो अब रोजमर्रा की बात हो गयी है जिस पर अब कोई प्रतिक्रिया ही नहीं होती .
जब सारे संसार मैं इस्लाम रोके नहीं रूक रहा था तो भारत मैं हिन्दू धर्म पर प्राण निछावर करने वालों ने धर्म बचाया चाहे वह महाराणा प्रताप हों या वीर शिवाजी या छत्रसाल या गुरु तेग बहादुर सबने हिन्दू धर्म को बचने मैं सक्रीय भूमिका निभाई . परन्तु अहिंसा के प्रादुर्भाव ने हमें एक बहाना सा दे दिया कायरता को छुपाने का . उससे पहले हम हारे अवश्य थे पर लड़ कर मर कर हारे थे . राणा सांगा के शरीर के अस्सी घाव व्यर्थ नहीं थे . हेमू लड़ाई का मैदान झोड़ कर नहीं भागा था . पुरु ने हार कर भी निडरता से सिकंदर का सामना किया . बन्दा बैरागी ने यातनाएं अनंत झेलीं पर टुटा नहीं . चित्तोड़ मैं जौहर की आग जली थी .उन्होंने हमारे हिन्दू पुरुषत्व को बचाने मैं बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाय्री . आक्रान्ताओं के लिए हिन्दू प्रतिरोध की चिंगारी कभी बुझी नहीं थी सिर्फ कभी लपट बनी कभी सिर्फ चिंगारी भर ही रही पर रही हमेशा . इस चिंगारी ने ही हमें अनेकों तूफानों मैं बचाया था .
हमें समझना चाहिए की अहिंसा कभी हिन्दू धर्म का मूल सिद्धांत नहीं थी . न तो भगवन राम न कृष्ण ने अहिंसा को न्याय व् सम्मान से अधिक स्थान दिया . यह तो अशोक के बाद प्रमुख होने लगी . अशोक की अहिंसा ने मौर्य साम्राज्य का अंत कर दिया .
गांधीजी के बाद यह वीरता की आग अब जगाये नहीं जग रही और इस के लिए अब जौहर व् बलिदान की आवश्यकता है .
पुनः दधिची , गुरु तेग बहादुर ,शिवाजी व् रानी झाँसी की आवश्यकता है .
हमारा जीवन अर्थ को जीवन एक माध्यम मानता था जीवन का ध्येय नहीं . पैसे को जीवन का ध्येय बनाने से जो विकृतियाँ आतीं हैं वह आज सब हमारे समाज मैं दीख रही हैं.
आर्थिक प्रगति को प्रोत्साहन देना अति आवश्यक है क्यूंकि भूखे भजन न होई गोपाला . पर देश को गरीब नहीं अमीर लूट रहे हैं . सत्यम के राजू , हर्षद मेहता , राजा या कलमाड़ी कोई गरीब नहीं था . इसलिए चारित्रिक उत्थान भी उतना ही आवश्यक है जितना आर्थिक उत्थान . चारित्रिक उत्थान सरकार से नहीं हो सकता क्योंकि वोट की राजनीती इसका अवरोध करेगी . इसे तो संत व् वास्तविक कर्म योगी ही कर सकते हैं . परन्तु संत तो अब जेलों की हवा खाते हैं . अब असली शंकराचार्य या दयानंद सरस्वती कहाँ से लायें ?
बृहत् हिन्दू समाज को मिल बैठ कर इस गंभीर समस्या का समाधान सोचना होगा . हो सकता है की चिंतन हमें पुनः मनु की और धकेल दे पर सोचना शुरू तो कीजिये .
राम धरी सिंह दिनकर की हिमालय कविता का यह अंश अति प्रासंगिक है
मत रोक युधिष्टिर को न आज
जाने दे उनको स्वर्ग धीर
लौटा दे मुझे गांडीव गदा
लौटा दे अर्जुन भीम वीर