मानव जीवन में सभ्यता की सचेतन धारा कब आई ? इसके लिए समय के प्रवाह का चित्र सामने रखना होगा। ब्रम्हाण्ड की कहानी कहते समय सौरमंडल का एक छोटा सा प्रतिमान (model) खड़ा किया था। वैसा ही काल विमा ( time dimension) का एक छोटा सा नमूना बनाकर सभ्यता की विलक्षणता को समझा जा सकता है।
दिग्भेद (parallax) के लंबन सिद्धांत से दूरी एक सीमा तक नाप सकते हैं जो सौरमं…डल में लाखों किलोमीटर में सही हो और अंतरिक्ष में अरबों किलोमीटर में। पर हर दशा में समय नापने की एक विधि नहीं है। जीवाश्मों के काल का कुछ अनुमान पास की परतों में कार्बन समस्थानिकों (carbon isotopes) का अनुपात लगाकर हो जाता है। कार्बन के कई समस्थानिक हैं, जो उन्मुक्तावस्था में निश्चित अनुपात में रहते हैं। जब कार्बन का अंश पृथ्वी में दब जाता है तब कार्बन-१४ ( C-१४) का रेडियोधर्मिता के कारण ह्रास होता रहता है। पर कार्बन के दूसरे समस्थानिकों का वायुमंडल से संपर्क विच्छेद और कार्बन-द्वि-ओषिद न बनने के कारण उनके आपस के अनुपात में अंतर हो जाता है। पृथ्वी में दबे कार्बन में उसके समस्थानिकों का अनुपात जानकर उसके दबने की आयु का पता शताब्दी के हेर-फेर से कर सकते हैं। कुछ और नए तरीके ईजाद हुए हैं। पर सृष्टि की कहानी की अन्य घटनाओं के बारे में अटकलें ही हो सकती हैं। इसी से अभी तक कल्पों और युगों की धुँधली अस्पष्ट इकाई में बात करने की आवश्यकता पड़ी।
सूर्य की निर्मिति से आज तक समय को दिग्दर्शित करने के लिए एक पॉंच किलोमीटर लंबा पैमाना लें। इस पैमाने में एक किलोमीटर एक अरब वर्ष (१०^९) के कालखंड के बराबर है, और विक्रमी संवत् के दो सहस्त्र वर्ष का काल दो किलोमीटर द्वारा दिखाया गया है। ऐतिहासिक कालखंड के लगभग तीन किलोमीटर हैं। अब कल्पना करें कि हम समय की विमा के यात्री हैं और विहंगम दृष्टि से दुनिया को देख रहे हैं। जैसी एच.जी.वेल्स. (H.G.Wells) की कहानी ‘काल यंत्र’ (The Time Machine) में एक वैज्ञानिक ने समय में काल्पनिक यात्रा की; सोचें कि वैसी यात्रा हम कर रहे हैं।
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यदि सूर्य की निर्मिति से हम इस पॉच किलोमीटर लंबे काल-पैमाने (time scale) पर यात्रा करें तो लगभग तीन किलोमीटर की सूनी यात्रा के बाद (आज से लगभग २ x१०^९ वर्ष पहले) सौरमंडल में पृथ्वी का जन्म दिखेगा। एक किलोमीटर और जाने के पहले (लगभग १.२0 x१०^९ वर्ष पर) दिखेगा कि पृथ्वी पर पपड़ी जमकर उसके छिछले गरम पानी के पोखरों में अध:जीवन का कंपन प्रारंभ हुआ। यह आदि जैविक महाकल्प का समय है। धीरे-धीरे लसलसी झिल्ली तथा काई सरीखे पौधे दिखने लगे, जो जलीय कीट तथा सेवार में बदल गए। अंत से लगभग ५४० मीटर पर ( लगभग ५४ करोड़ वर्ष पहले) ज्यों यह काल्पनिक यात्री पुराजीवी महाकल्प में बढ़ते हैं, सागर में जीवन बढ़ता जाता है और कछुए, मछली आदि की वहॉं भरमार है। लो, अब जीवन-स्थल की बढ़ा। उभयचर पृथ्वी पर आ चुके हैं और धीरे-धीरे वनस्पति एवं जंतु दलदलों और जलमार्गो से स्थल में बढ़ रहे हैं। इसी समय उष्ण-नम जलवायु में कार्बोनी युग के जंगल दिखते हैं। तब तक हम लगभग सारी यात्रा कर आए हैं, केवल २००-१५० मीटर दूरी पैमाने पर शेष है। बीच के एक प्राय: सूने अंतराल के बाद मध्यजीवी महाकल्प की जीवन की विपुलता दिखाई देती है जब भीमकाय सरीसृप घूमते हैं और फैले हैं सदाहरित वृक्षों के जंगल। अंत से लगभग १२१.५ मीटर पहले ( आज से १.२१५ x१०^८ वर्ष पहले) भारतीय गणना के अनुसार उस ‘कल्प’ का प्रारंभ हुआ जो आज तक चला आ रहा है। कुछ वैज्ञानिक इसी समय को जीवन का आरंभ कहते हैं। इसके बाद किसी भयानक दुर्घटना के कारण पृथ्वी की धुरी एक ओर झुक जाती है। ग्रीष्म एवं शीत ऋतुऍं आरंभ होती हैं और सरीसृप संभवतया इसे सहन न कर सकने के कारण नष्ट हो जाते हैं। पून: लगभग सूना अंतराल। और जब जीवन फिर विवधिता में प्रस्फुटित होता है तब नूतनजीवी कल्प आ गया है; आ गए स्तरपायी जीव एवं पक्षी। अब कुछेक करोड़ वर्ष की यात्रा, जो हमारे पैमाने पर १०० मीटर से कम है, ही शेष है। लगभग ३० मीटर की शेष यात्रा पर भयानक भूकंपों से पृथ्वी कॉंप उठती है और ऊँची पर्वत-श्रेणियों का निर्माण होता है।
इस पॉंच किलोमीटर की यात्रा में जब केवल दस मीटर की यात्रा रह जाती है तब आता है हिमानी युग। तुलना में इस थोड़ी सी दूरी में उष्ण कटिबन्ध के आसपास तथा पर्वत रक्षित भारत छोड़कर शेष पृथ्वी हिमाच्छादन से कई बार कॉंप उठती है। इसी में अवमानव के दर्शन होते हैं। जब लगभग बीस सेंटीमीटर (दो लाख वर्ष) हमारी मंजिल रह गई तब मानव के दर्शन हुए। और मंजिल से पॉंच सेंटीमीटर पहले नियंडरथल मानव को चतुर्थ हिमाच्छादन की क्रूर ठंडक का शिकार बनते देखते हैं। पुरातत्व के अनुसार तीन सेंटीमीटर ( ३०,००० वर्ष) पहले हम दक्षिणी एशिया और अफ्रीका से यूरोप तथा उत्तरी एशिया में बढ़ती वनस्पति, घास और जंगल के साथ मानव को भी वहॉं जाते देखते हैं। इस विचार से हमारे पैमाने पर मानव सभ्यता तीन सेंटीमीटर (३०,००० वर्ष) की, जब से चिंतन प्रभावी हुआ, देन है।
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सभ्यता की प्रथम की किरणें व् दंतकथाएं – वीरेंदर
सभ्यता का दोहरा कार्य रहा है। एक ओर नग्न प्रकृति भयानकता में खड़ी है। वह आग उगलता ज्वालामुखी और मानो क्रोध में कॉंपती पृथ्वी, वह हहराती और सब कुछ ढहाती बाढ़, वह रक्त से रँगे जानवर के पंजे व दॉंत और महामारी तथा मृत्यु का दारूण दु:ख। पश्चिमी विचारधारा कहती है कि प्रकृति के ऊपर विजय प्राप्त करना सभ्यता का प्रथम लक्ष्य है। मानव के पास नवीन उपकरणों के निर्माण के लिए हाथ थे। उसके पास विकासोन्मुख वाक्-शक्ति और अत्यंत उन्नत मस्तिष्क था। इन तीन साधनों से वह धीरे-धीरे प्रकृति और अन्य प्राणियों पर प्रभुत्व पाने के लिए बढ़ा।
पर हिंदु विचारों ने यह दृष्टिकोण कभी नहीं स्वीकारा। सामी सभ्यताओं के लिए प्रकृति एक ‘स्त्री’ है। उसके ऊपर विजय प्राप्त करना, उसे दबाकर अपनी मुट्ठी में रखना, यही उन सभ्यताओं की मूल प्रवृत्ति थी। पर भारतीय दर्शन ने प्रकृति को ‘मॉं’ की संज्ञा दी। इसी से उपजा उसके प्रति भक्ति एवं श्रद्धा का भाव; प्राकृतिक सुषमा की उपासना। ऐसे सुंदर स्थल देवी-देवताओं के निवास, तीर्थ बने। इसी से संपूर्ण प्रकृति एवं चराचर सृष्टि के साथ सह-अस्तित्व की और पर्यावरण के संरक्षण की भावना आई। इसी से प्रारंभ हुआ भूमि पर कुछ करने के पहले भूमि-पूजन। प्रात: शय्या से नीचे पैर रखते समय प्रार्थना—‘समुद्रवसने देवि, पर्वतस्तन मंडले; विष्णुपत्नि: नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व में।‘ माता समान प्रकृति से सामंजस्य स्थापित कर पुत्रवत् भाव से प्राकृतिक शक्तियों का आवाहन। यह विज्ञान की ओर देखने का भारतीय दृष्टिकोण है। उसका उपयोग प्रकृति के शोषण और इस प्रकार अंततोगत्वा वनस्पति तथा अन्य जीवन के विनाश के लिए नहीं वरन् सृष्टि के संरक्षण के लिए एक माध्यम अथवा सरणि प्रदान करना है।
इसी प्रकार मानव-मानव के बीच संबंध न्यायपूर्ण एवं स्नेह से निर्मित हों, जिसपर समाज का ढॉचा खड़ा हो सके, यह दूसरा उतना ही महत्वपूर्ण कार्य है। पहले कार्य से कुछ कम प्रयत्न मनुष्यों के संबंध निर्धारण करने में और एक न्यायपूर्ण सामाजिक ढॉंचा खड़ा करने में नहीं लगे। सिग्मंड फ्रायड ने अपनी पुस्तक ‘सभ्यता के कार्य’ (The Tasks of Civilization) में यूरोपीय दृष्टिकोण से मानव सभ्यता के उद्देश्यों का मनोवैज्ञनिक विश्लेषण किया है।
प्राचीन वैदिक साहित्य में कभी-कभी शब्द- प्रयोग आते हैं ‘विद्या’ और ‘अविद्या’। ‘विद्या’ से अभिप्राय उस दर्शन या विचारों से है जो ‘मानव’ और ‘भगवान्’ के संबंधों का निरूपण करें। जैसा ‘गीता’ में कहा, समाज भगवान का व्यक्त स्वरूप है। इसलिये मानव और समाज के संबंध या दूसरे शब्दों में समाज में मानव-मानव के संबंध के विचार ही सर्वश्रेष्ठ ‘ज्ञान’ है, यही ‘विद्या’ है। अर्थात ‘समाजशास्त्र’ (social sciences), जिसे महाविद्यालयीन पाठ्यक्रम में मानविकी (humanities) कहते हैं, ‘विद्या’ है। ‘अविद्या’ कभी-कभी उस दर्शन या विचारों को कहते थे जो मानवशास्त्र से परे प्रकृति के बारे में थे। इसे अब ‘विज्ञान’ कहते हैं। यह द्विभाजन सभ्यता के दोहरे ध्येय को दर्शाता है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में इन दोनों प्रकार के शास्त्रों का समान स्थान था। जहॉं एक ओर ऋषि-मुनियों ने सामाजिक शास्त्रों का चिंतन किया वहॉं उन्होंने आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में भी कार्य किया। यह तो बाद में हुआ कि भारतीय चिंतन पर एकपक्षीय आवरण छाता गया।
किस प्रकार मानव सभ्यता अपने इन दो लक्ष्यों की ओर बढ़ी?
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लगभग दो लाख वर्ष का मानव का प्रारंभिक जीवन, जब हमें पत्थर के हथियार ही उसके अस्तित्व की याद दिलाते हैं, पाषाण युग (stone age) के नाम से विख्यात है। उस समय के जीवन का चित्ररू खड़ा करते समय मानव को जंगली कहकर कल्पनाऍं करते हैं। पर वह असमय में शरीर से वयस्क बने शिशु के समान था। पूर्व पाषाण युग में पीढियों के संचित अनुभव से प्राप्त ज्ञान ने उसे मन का स्थायित्व और बालावस्था दी। चतुर्थ हिमाच्छादन लगभग ५०,००० वर्ष ( हमारे पैमाने पर पॉंच सेंटीमीटर) पहले पराकाष्ठा पर था और उसके १०,००० वर्ष बाद संभवतया उसका प्रभाव घटने लगा। तब नव प्रस्तर युग का प्रारंभ कहा जाता है।
ऐसे समय ग्रीष्मोन्मुख जलवायु के कारण वनस्पति और जंतु के साथ मानव भी उत्तर की ओर बढ़े। यूरोपीय विचाराधारा के अनुसार इन्होंने स्पेन और फ्रांस की कंदराओं में रेनडियर और अन्य जानवरों के कलापूर्ण चित्र खींचे। उत्तरी अफ्रीका में भी ऐसे चित्र मिलते हैं। अंत में ये ज्यामितीय रेखाचित्ररू बन गए। सहस्त्राब्दियों में दूर हटते शीत ने रेनडियर को उत्तर की ओर भगा दिया। अब दक्षिण में बढ़े घास के मैदान, जंगल और पशु। शीघ्र ही रेनडियर मानव के बाद दूसरी लहरें श्यामल मानव की यूरोप में पहुँची। ये अपने साथ लाए धनुष-बाण, कृषि का प्रारंभिक ज्ञान एवं मिट्टी के बरतन, मृद्भांड।
हम भोपाल से रेल द्वारा होशंगाबाद की यात्रा करें तो दूर विंध्याचल की पहाडियों में गढ़ी भीमबेतका की खड़ी चट्टानें दिखेंगीं। यहॉं भित्ति चित्रों से युक्त कंदराऍं हैं, जहॉं संभवतया दो (बीस ?) लाख वर्ष से मानव निवास करते थे। और पूर्व पाषाण युग से लेकर कंदरा-कला का सिलसिलेवार दर्शन हो जाता है। वहॉं ४०,००० वर्ष हुए विभिन्न रंगों के रेखाचित्र बनते थे, वे कालांतर में मांसल हो गए। ऐतिहासिक कालखंड आते-आते (तीस सहस्त्राब्दी संवत् पूर्व) उस प्रकार के सांकेतिक और ज्यामितीय रेखाचित्र भी आने लगे, जैसे वर्षा ऋतु में त्योहार के दिन देहात में लोग मुख्य द्वार के दोनों ओर बनाते हैं।
भारत में, जहॉं चतुर्थ हिमाच्छादन का प्रभाव हिमालय की रक्षा पंक्ति और मौसमी हवाओं के कारण नगण्य था, पुरातत्व के उक्त युगों का संक्रमण अगोचर ही था। लगभग ६०,००० वर्ष पहले भी मिट्टी के बरतनस का प्रयोग यहॉं था और उसकी चित्रकारी की नकल पहाड़ी कंदराओं में मिलती है। यूरोपीय मध्य एवं नव प्रस्तर युग के पालिशदार तथा परिष्कृत हथियार, पतले धारदार फलक (blade) यहॉं पहले से थे। मानव ने ‘अमृत मंथन’ से प्राप्त धनुष-बाण धारण किया। प्रति वर्ष आती वर्षा ऋतु और उससे उत्पन्न हरियाली के अध्ययन से खेती और पशुओं से निकट संपर्क होने पर पशुपालन प्रारंभ हुआ। देखा कि मिट्टी से लिपी टोकरी जब आग में जल जाती है तब उसके आकार का पका मिट्टी का बरतन बचा रहता है। इससे मृद्भांड अनेक प्रकार के मिलते हैं-धूसर, लोहित, गेरूए तथा काले; वैसे ही पालिशदार, चमकदार या चित्रित। संभवतया फैशन के समान भिन्न प्रकार के मृद्भांड भिन्न समय में अपनाए गए। यूरोपीय पूर्व पाषाण युग के वल्कल और चमड़े (खाल) के वस्त्रों का स्थान भारत में ( जहॉं कपास पाई जाती थी) बुने वस्त्रां ने लिया। बिना खेती के ग्राम का गठन और उसके बाद नागरिक जीवन संभव न था। नगरों के प्रारंभ होने तक मानव सभ्यता के अधिकांश आधार जुट चुके थे।
प्राकृतिक संकट यातायात के साधनों के अभाव में उग्र हो जाते हैं। खेती और यातायात से संबंधित अनेक आविष्कार इसी काल में हुए। मानव ने खेती के लिए हल, बैलों को जोतने के लिए जुआ, पालदार नाव और दो या चार पहिए की गाड़ी का आविष्कार किया। इस युग का सबसे क्रांतिकारी आविष्कार था ‘पहिया’। गाड़ी का चलन भारत के मैदानों से प्रारंभ हुआ। प्रकृति ने जीव-सृष्टि में पहिए का उपयोग नहीं किया। हाथ-पैर के क्रिया-कलाप तो उत्तोलक (lever) के सिद्धांत पर आधारित हैं। आज विरली ही मशीनें मिलेंगी जो पहिए का उपयोग नहीं करतीं। पहिए के आविष्कार ने कुम्हार के चाक को जन्म दिया, जिससे मिट्टी के सुडौल और अच्छे पात्र बनने लगे। नाव में पाल के उपयोग ने यातायात का सबसे सस्ता साधन उपलब्ध किया।
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उत्तर- पाषाण (Upper Paleolithic) युग के प्रारंभ में दो बहुत बड़े परिवर्तन पृथ्वी पर हुए। प्रथम, उत्तरी अफ्रीका एवं दक्षिण-पश्चिम एशिया की जलवायु बदलने लगी। वर्षा कम हो गई और घास के मैदान मरूस्थल बनने लगे। सहारा का रेगिस्तान तभी बना और रेगिस्तान के बीच नील नदी की धारा मिस्त्र की जीवन-धारा बनी। अरब (अर्व देश, अर्वन = घोड़ा), गांधार ( आधुनिक कंधार) और थार के मरूस्थल तभी बने। जहॉं कहीं पानी बचा, वह मरूद्यान (oasis) बन गया। इन प्रदेशों के वन्य-पशु और मनुष्य इन्हीं जल-स्त्रोंतों के समीप रहने को बाध्य हुए। कुत्ता मानव के साथ पहले से था। पांडवों के साथ कुत्ते के भी हिमालय जाने की कथा है। चारा खाकर रह सकने वाले पशु –गाय, बैल, भेड़, बकरी, सुअर आदि मरूद्यानों के समीप चक्कर काटने लगे। भैंस संभवतया बाद में मानव जीवन में आई। कहते हैं, एक बार विश्वामित्र ने वसिष्ठ के यहॉं से कामधेनु को ले जाना चाहा। पर वह छूटकर वापस भाग गई तो उन्होंने एक नई सृष्टि-रचना की, जिसमें गाय के स्थान पर भैंस थीं। मनुष्य ने हिंसक जंतुओं से उनकी रक्षा की और खेत का चारा उन्हें दिया। वे मनुष्य के ऊपर निर्भर हो गई। इस प्रकार या अन्य कारणों से पशु का साथ होने पर मानव ने पशुपालन सीखा।
भारत में थार का मरूस्थल बनना शुरू हो गया था। तब राजस्थान और सिंध की भूमि ऊपर उठने से जहॉं एक ओर सॉभर जैसी खारे पानी की झील बच गई वहॉं दूसरी ओर एक बालुकामय खंड निकल आया। किसी समय राजस्थान में पर्याप्त वर्षा होती थी; पर विश्व की बदलती जलवायु ने उसे शुष्क रेगिस्तान बना दिया। यहॉं की नदियाँ सूख गई। आज भी राजस्थान के बीच सरस्वती नदी (जिसे कहीं ‘घग्घर’ भी कहते हैं) का शुष्क नदी तल सतलुज के दक्षिण, कुछ दूर उसके समानांतर,कच्छ के रन तक पाया जाता है।
कुछ पुरातत्वज्ञों का मत है कि आज जिस प्रदेश को पंजाब कहते हैं उसे कभी ‘सप्तसिंधव:’, सात नदियों की भूमि कहते थे। कुछ कहते हैं कि यमुना भी पहले सरस्वती के साथ राजस्थान और कच्छ या सिंधु सागर में गिरती थी। गंगावतरण के बाद गंगा की किसी सहायक नदी ने धीरे-धीरे यमुना को अपनी ओर खींच लिया। उनके कहने के अनुसार आधुनिक पंजाब की पॉंच नदियॉं—सतलुज (शतद्रु), व्यास (विपाशा), रावी (परूष्णी), चेनाब (असक्री),झेलम (वितस्ता) और सरस्वती तथा यमुना मिलकर सात नदियॉं सिंधु सागर में मिलती थीं। इन्हीं के कारण ‘सप्तसिंधव:’ नाम पड़ा। कुछ अन्य कहते हैं कि सप्तसिंधु में सरस्वती एवं सिंधु नदी और उनके बीच बहती पॉंच नदियॉं गिननी चाहिए। परंतु विष्णु पुराण के एक श्लोक में सात पवित्र नदियों के नाम इस प्रकार हैं—‘गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती। नर्मदे सिंधु कावेरी (जलेस्मिन सन्निधिं कुरू)।‘ इस प्रकार हिमालय के दक्षिण के संपूर्ण देश को ही ‘सप्तसिंधु’ कहते थे।
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दूसरी बहुत बड़ी घटना जल प्लावन की है। तृतीय हिमाच्छादन के समय भूमध्य सागर का अस्तित्व दो झीलों के रूप में था, जो नदी द्वारा संबद्ध हो सकती थीं। पूर्वी झील में, जो शायद मीठे पानी की थी, नील नदी और आसपास का जल आता था। भूमध्य सागर आज भी एक प्यासा सागर है। सूर्य के ताप से पानी अधिक उड़ने के कारण वह सिकुड़ता है, जैसे आज कश्यप सागर और मृत सागर (Dead Sea) सिकुड़ रहे हैं। इस संकुचन को दूर करने के लिए आज पानी अटलांटिक महासागर से जिब्राल्टर जलसंधि होकर तथा काला सागर से दानियाल (Dardanelles) जलसंधि होकर भूमध्य सागर में आता है। काला सागर को आवश्यता से अधिक जल नदियों से प्राप्त होता है। जब भूमध्य सागर की घाटी दोनों ओर सागरों से संबद्ध न थी तब जहॉं आज नील सागर लहराता है वहॉं हरी-भरी घाटी में मनुष्य स्वच्छंद घूमते थे।
पर हिमाच्छादनस की बर्फ पिघलने से महासागरों के जल की सतह ऊपर उठने लगी। तभी संभवतया किसी आकाशीय पिंड ने पास आकर भयंकर ज्वार-तरंगे उत्पन्न कीं। फलत: अटलांटिक महासागर का जल पश्चिम से यूरोप और अफ्रीका के बीच की घाटी में फूट निकला। उसने मिट्टी बहा दी। आज भी अटलांटिक महासागर से जिब्राल्टर जलसंधि होकर भूमध्यसागर तल तक एक गहरा गलियारा रूपी महाखड्ड विद्यमान है। वहॉं की सीधी चट्टानों को ‘हरकुलिस’ के स्तंभ (Pillars of Hercules) कहते हैं। हरकुलिस (हरि + कुलि:, बलराम का दूसरा नाम) के साहसिक कार्यों की कहानियॉं विदित हैं। इस महा विपत्ति की कल्पना करें। सारे संसार में ज्वार तरंगे उठीं। पहले थोड़ी धारा में और फिर भयंकर गहराता सागर ‘भूमध्य घाटी’ की झीलों के किनारों की आदिम बस्तियों पर उमड़ पड़ा। शनै:-शनै: वह खारा पानी बस्तियों और पेड़ों के ऊपर पहाड़ों को छूने लगा। वहॉं पनपता सभ्यता का बीज मिट गया और अफ्रीका का यूरोप से स्थल-संबंध टूट गया। अफ्रीकी प्रजातियों का बड़ी मात्रा में यूरोप में निर्गमन समाप्त हुआ। प्रारंभिक मानव इतिहास के कुछ रहस्यों को गर्भ में धारण किए आज भूमध्य सागर लहरा रहा है।
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यातायात के साधनों के आविष्कार के बाद धातु का युग आया, जिससे मानव जीवन में एक बड़ा परिवर्तन आना था। वेदों में धातुओं का वर्णन है। ऋग्वेद में अयस (लोहा) एवं हिरण्य (सोना) और यजुर्वेद में इनके अतिरिक्त तॉंबा (copper), कॉंसा (bronze), सीसा (lead)और रॉंगा (tin) का भी वर्णन है। यजुर्वेद में अयस्ताप यंत्र (iron smelter) का भी उल्लेख आया है जो खनिज को लकड़ी, कोयला आदि के साथ तपाकर धातु बनाता था। भारत को इतिहास में स्वर्ण देश ( जहॉं सोना पैदा होता है) कहा गया है। भारत ने संसार को स्वर्ण मानक (gold standard) दिया। राजस्थान में तॉंबे की प्राचीन अपसर्जित खदानों के चिन्ह हैं, जिनमें दो-तीन सहस्त्र वर्ष पूर्व खनिज समाप्त होने पर काम बंद हो गया। तॉंबे का प्रयोग हथियार, औजार और पात्र बनाने में होता था। धीरे-धीरे प्रस्तर का स्थान ताम्र उपकरणों ने ले लिया।
तॉंबे की धार जल्दी नष्ट हो जाती है, पर यदि तॉंबे और रॉंगे की मिश्र धातु (alloy) बनाई जाए तो कॉंसा होकर कठोर हो जाती है। इसका प्रयोग सिंधु घाटी की सभ्यता के प्रारंभ से हम देखते हैं। भारत में तॉंबा और जस्ता (Zinc) के खनिज साथ-साथ प्राप्त होते हैं। इनकी मिश्र धातु पीतल (brass) का बीसवीं सदी तक भारत में प्रयोग होता रहा है। पुरातत्वज्ञ इन यूरोपीय प्रागैतिहासिक कालखंडों को कॉंस्य काल (bronze age) कहकर पुकारते हैं। तभी लौह काल (iron age) आया। संभवतया लौह पाइराइट (iron pyrites) को भट्ठी में कोयला (यह भारत में साथ-साथ उपलब्ध है) तथा लकड़ी के साथ जलाकर लोहा प्राप्त किया गया। वैसे ही जैसे बस्तर के वनवासी आज तक करते चले आए हैं। लोहे के सर्वश्रेष्ठ हथियारों के लिए भारत प्रसिद्ध था। लोहे के हथियारों से मानव जीवन की कायापलट हो गई। कहते हैं कि लौह युग आज तक चला आता है। पर भारत में बहुत पहले से धातु का कालखंड था और भिन्न धातुओं के कालखंड का विभाजन न था।
सुमेर और मिस्त्र, दो प्राचीन सभ्यताओं के प्रदेश में तॉंबा, लोहा आदि धातुओं के खनिज अप्राप्य थे। इसी प्रकार राल, लकड़ी तथा कोयला भी बाहर से आयात करना पड़ता था। ये सब वस्तुऍं भारत में आसपास प्राप्त होती थीं। स्पष्ट है कि खान से धातु का ओषिद (oxide) प्राप्त कर उसे कोयला, राल तथा लकड़ी के साथ जपाकर, अर्थात उस क्रिया द्वारा जिसे रसायन शास्त्र में अपचयन (reduction) कहते हैं,धातु प्राप्त करने की विधि पहले-पहल भारत में खोजी गयी।
सभ्यता के चरण धातु के अन्वेषण के बाद द्रुत गति से बढ़े। जहॉं कृषि एवं पशुपालन द्वारा मानव ने विज्ञान में पहला कदम उठाया वहॉं दूसरा बड़ा कदम नए-नए आविष्कारों का था। मकान, मृद्भांड और वस्त्र बनाने की विधि का आविष्कार पहले हो चुका था। गाड़ी और पालदार नाव सरीखे यातायात के साधनों का उपयोग करना आ गया था। हथियार तथा बरतनों के लिए धातु का प्रयोग प्रारंभ हुआ। नए आविष्कारों ने सामाजिक क्रांति कर दी। प्रथमत: विशेष कार्य करने वाले कुछ वर्ग –ठठेरा, बढ़ई, कुम्हार, लोहार आदि बने। धीरे-धीरे ये अपने व्यवसाय पर आश्रित हो गए और खेती से इनका संबंध टूट गया। व्यक्ति और ग्राम स्वयं में पूर्ण न होकर परस्परावलंबी बने। दूसरे, नए-नए अन्वेषणों से संपत्ति का सृजन हुआ। इससे व्यापार प्रारंभ हुआ। यह सारा क्रम भारत में स्पष्ट है। सिंधु, सुमेर और मिश्र में घटती वर्षा और शुष्क होती भूमि ने मानव को नदी के किनारे बसने के लिए विवश किया, जहॉं कृषि तथा व्यक्तिगत आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त जल था। नदी किनारे के दलदलों का जल निकालने, झाड़-जंगल साफ करने, बाढ़ को सँभालने के लिए बॉंध बनाने और दूर शुष्क स्थान पर नहरें ले जाने तथा व्यापार की आवश्यकताओं ने मानव को बड़े समूहों में, नगर में बसने के लिए बाध्य किया। नदियों द्वारा व्यापार आसानी से होता था। इस प्रकार नगर-क्रांति मानव जीवन में आई। प्राचीन ग्रंथों में अर्जुन को नगर सभ्यता का जन्मदाता कहा गया है।
आज भ्रमवश नगर-क्रांति को मानव सभ्यता का उदय कहते हैं। पर सभ्यता के चरण वहॉं से प्रारंभ हुए जब कुटुम्ब मानव जीवन की इकाई बना अथवा मानव ने कबीले के रूप में रहना प्रारंभ किया। यह भी कारण है कि यूरोपीय विद्वानों ने संसार के प्रथम कृषि देश, भारत को दुर्लक्ष्य किया। सभ्यता का सबसे बड़ा पग था कृषि उद्योग के कारण ग्राम्य बस्तियों का सृजन। इस कृषि सभ्यता का लाख वर्ष का जीवन, जिसके बाद नगरों की अथवा बड़ी बस्तियों की हलचल प्रारंभ हुई, इन्होंने ओझल कर दिया।
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सन १९५० के दशक में प्रयाग विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग ने कौशांबी में उत्खनन प्रारंभ किया। गौतम बुद्ध के समय राजा उदयन की इठलाती राजधानी, जहॉं राजप्रासाद में दो सौ मीटर लंबे और सौ मीटर चौड़े एक दरबार का विशाल कक्ष था और उसके बीच था कमल पुष्पों से सुशोभित कुंड। कैसा योजित नगर। उन्होंने मकानों में पाया मल-जल निपटारे के लिए एक-दूसरे के ऊपर धरी तलहीन नॉंदें, जो जमीन में छह-सात मीटर नीचे तक जाती थीं और ऐसे निर्मित सोख गड्ढे। सिंधु घाटी की सभ्यता (जिसके चिन्ह सरस्वती नदी के लुप्त मार्ग से सब जगह बिखरे हैं) नियोजित नगरों के लिए-सड़कें, मार्ग, नालियॉं, जल-निकास, मंदिर, भंडार और निवास के सुख-साधनों के लिए प्रसिद्ध हैं। ये संसार के प्राचीनतम नगर थे।
मेरे साथ एक साम्यवादी मित्र कौशांबी गए थे। दरबार के विशाल कक्ष का ऐश्वर्य देखकर वे चकराए। पूछा, ‘कहॉं है इतने बड़े सम्राट की साम्राज्ञी का महल?’ तो प्राध्यापक ने एक चार मीटर लंबे, ढाई मीटर चौड़े कक्ष को, जहॉं से सीढियॉं यमुना में जाती थीं, दिखाकर कहा, ‘केवल यह कक्ष सम्राज्ञी का रनिवास दिखता है।‘ आश्चर्यचकित होकर मेरे मित्र ने पूछा, ‘बस, इतना छोटा कमरा?’ पाश्चात्य इतिहास की कल्पना थी किसी आलीशान महल की। ‘एक मनुष्य के लिए कितना स्थान चाहिए?’ प्राध्यापक बोल पड़े। कभी-कभी भारत के प्राचीन जीवन के बारे में विकृत, पूर्वाग्रहजनित धारणाऍं कैसी भ्रमित कल्पनाओं को जन्म देती है।
व्यापार अदला-बदली या वस्तु-विनिमय (barter) द्वारा प्रारंभ होना कहा जाता है। पर शीघ्र ही इसके लिए मुद्रा की आवश्यकता हुई। वस्तु के लिए स्वर्ण में मूल्य देना भारत में ही प्रारंभ होकर सारी सभ्यताओं में फैला। व्यापार का प्रमुख केन्द्र भारत था। इसके कारण यहॉं के विचार एवं रीति-रिवाज दूसरी सभ्यताओं में पहुँचे। स्वर्ण विनिमय ने मुद्रा (currency) में स्वर्ण मानक (gold standard) को जन्म दिया, जो संसार पर बीसवीं सदी तक छाया रहा। स्वर्ण का भारतीय जीवन में बहुत बड़ा महत्व है। संसार की सबसे पुरानी ( और गहरी) सोने की खान, कोलार, भारत में है। यहॉं सदा से स्वर्ण आभूषण पहनने का चलन था। प्राचीन काल में यहॉं के स्वर्ण ने भारत को स्वर्ण देश (‘सोने की चिड़िया’) नाम दिलाया।
लौकिक उन्नति के साथ न्यायपूर्ण सामाजिक रचना और उसके लिए उपयुक्त विचारों की आवश्यकता पड़ती है। विचारों ने मानव जीवन को सार्थक और उदात्त बनाया, ‘सत्यं शिवं सुंदरम्’ की अनुभूति दी। दूसरी ओर कभी-कभी क्रूरतम, नीच, राक्षसी और भयंकर विकृति तथा दारूण दु:ख को जन्म दिया। यह चिंतन समाज के उष:काल का होने पर भी इसके पीछे मानव की पिछली सभी पीढ़ियों के संचित अनुभव हैं और है उसके मन की सानुबंध निर्मिति। इस भूमिका में ही उस काल के चिंतन का अनुमान कर सकते हैं।
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आज फ्रॉयड (Freud) , यूँग (Jung) और ऍडलर (Adler) की खोजों और मनोविश्लेषण (psycho-analysis) से हम शिशु जीवन की मनोरचना का और सामाजिक जीवन के लिए किस प्रकार उसके अहम् भाव और वासनाओं का ढका जाना, दमन, नियंत्रण,परिष्कार तथा उदात्तीकरण होता है, इसका अनुमान लगा सकते हैं। दूसरे उस समय की लोककथाऍं, रीति-रिवाज तथा अंधविश्वासों से आदि मानस की झलक पा सकते हैं। इस विचारधारा के अवशेष हमारे चाल-चलन एवं रीति-रिवाजों में रूढ़ हो गए हैं। इसके अतिरिक्त उसके बनाए चित्र, मूर्तियॉं, प्रतीक और सबसे अधिक पूजा-वस्तुऍं उसकी कल्पना के झरोखे हैं। पुरातत्व के अनुसार आदिकालीन मानव शिशु की भॉंति कल्पना चित्रों में सोचते, उसी प्रकार जनित भावावेश में काम करते थे। व्यवस्थित क्रमबद्ध विचार बाद में पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार, लगभग ३०,००० वर्ष पहले मानव जीवन में आना प्रारंभ हुआ। भारतीय विचारकों के अनुसार यह बहुत पहले से था।
इसके पहले कि कबीले (tribe) के लोग एक साथ रह सकते, सामाजिकता का तकाजा था कि व्यक्तिगत मनोविकारों, कुप्रवृत्तियों और दुर्वासनाओं पर अंकुश लगे। भय, क्रोध आदि सभी पशुभाव मानव में हैं। स्तनपायी जीवों के समय से, जब से जीव का सामूहिक जीवन प्रारंभ हुआ, अंत:प्रवृत्ति के निर्माण का अविच्छिन्न क्रम मानव तक चलता आया है। यह मानव की पूर्व रचित मनोभूमिका है। उसके चाल-चलन की रचना आगे विधि-निषेधों द्वारा हुई। पर कुछ उसे वंशानुक्रम में पूर्व योनियों से भी प्राप्त हुआ। अनेक जातियों में सहजात निषेध ( taboo) पाए जाते हैं।
पुरातत्वज्ञों का अनुमान है कि पूर्व पाषाण युग के कबीले मातृप्रधान थे। उनके अनुसार इसका कारण स्त्रियों द्वारा खेती का अन्वेषण था। पर बाद के अन्वेषण पुरूषों द्वारा होने के कारण उनका महत्व बढ़ गया। इसलिए ये पुरातत्वज्ञ कहते हैं, ‘समाज पितृप्रधान हो गए।‘ यह दिमागी सैर मात्र है। आज से दो-तीन शताब्दी पहले जो अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया या अफ्रीका में प्रस्तरयुगीन मानव के बचे-खुचे कबीले पाए जाते थे, वे साधारणतया पितृप्रधान थे। कुछ पुरातत्वज्ञ कहते हैं कि मातृप्रधान समाज अधिक ‘सभ्य’ अवस्था है। केरल में कुछ मातृप्रधान समाज हैं। वहॉं विवाहोपरांत पति को पत्नी के मायके में जाकर रहना पड़ता था। वहीं उन्हें उत्तराधिकार मिलता था। पर नए हिंदू कानून से उत्तराधिकार बदल गया। प्रस्तर युग में संभवतया समाज-व्यवस्था में स्त्री-पुरूष दोनों की समान साझेदारी थी।
दो शताब्दी पूर्व तक कुछ कबीले संसार में पाए जाते थे। यह आदि समाज की विकृति भी हो सकती है। फिर भी इनके जनमानस में मानसिक तथा सामाजिक विकास की प्रक्रिया दिख सकती है। ऐसे ऑस्ट्रेलिया के आदि निवासियों का धार्मिक, सामाजिक जीवन टोटेमवाद ( totemism) पर आधारित था। हर कबीले का एक गण-चिन्ह (totem) था, जो साधारणतया कोई जानवर या विरल वनस्पति या प्राकृतिक शक्ति होती थी। कबीला उस गण-चिन्ह को अपना पूर्वज मानता और उसके नाम पर जाना जाता। कबीले का विश्वास था कि वह उनकी रक्षा करता है और देववाणी द्वारा मार्गदर्शन करता है। गण-चिन्ह के साथ अनेक निषेध जुड़े थे। वे उस जानवर को मारते न थे, वरन् संरक्षण करते थे। एक गण –चिन्ह के लोगों में परस्पर विवाह-संबंध का निषेध था। रामायण काल की वानर तथा ऋक्ष (रीछ) जातियॉं ऐसी ही थीं, जिनके गण-चिन्ह वानर एवं ऋक्ष थे।
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प्रारंभ में आदि मानव ने संसार को वैसे ही देखा होगा जैसे शिशु अपने मकान के छोटे से संसार को देखता है। ‘यह है’, इतना ही भाव उसके लिए पर्याप्त है। धीरे-धीरे वह मस्तिष्क दौड़ाने लगा। अन्वेषण का भाव उत्पन्न हुआ। उसके साथ जागी आश्चर्यजनक तथा अबोध्य लगने वाले कार्य-कलापों के प्रति जिज्ञासा। कठोपनिषद में नचिकेता का प्रसंग है, जिसने अपने पिता के विचारों को चुनौती दी। अंत में जब तक यम ने उसे जीवन और मृत्यु का रहस्य नहीं बताया तब तक वहॉं से हटने से इनकार किया। यह वैचारिक साहस और मानव की अमर जिज्ञासा का प्रतीक है। इस जिज्ञासा के कारण दर्शन और विज्ञान संभव हो पाया।
कार्य-कारण भाव मन में आना स्वाभाविक है। ‘तुम ऐसा करते हो तो यह हो जाता है’, यह संबंध एक सीमा तक पशुओं के मस्तिष्क में भी रहता है; और धीरे-धीरे उनकी अंत:प्रवृत्ति में बदल जाता है। आदि मानव बहुत व्यवस्थित और विवेकपूर्ण ढंग से सोचने का आदी न होगा। इसलिए कई बातों में असंगति थी। कुछ बातें प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध हो जातीं—यदि विषैला फल खाओगे तो मर जाओगे। पर आदि मानव के लिए अनेक अहम समस्याऍं थीं, जिनके हल की खोज में गलत कारण मन में आए, पर जो इतने गलत न थे कि उनकी गलती पकड़ में आ सके। इसने अंधविश्वासों को जन्म दिया। कुछ अंधविश्वासों को मानव आज तक भुगत रहा है। इसलिए कौन सा आश्चर्य है कि हजारों प्रकार के जादू-टोना, झाड़-फूँक, मंत्र-तंत्र, शकुन-अपशकुन और तावीजों आदि में उसका विश्वास बढ़ा। आज भी वनवासी एवं अशिक्षित लोगों में इस प्रकार के अंधविश्वास पलते हैं और शिक्षितों में उनकी छाया।
बालक के समान आदि मानव के स्वप्न और कल्पना-चित्र अधिक सजीव तथा विशद थे और भीति तीव्र थी। वह पशुओं में और यहॉं तक कि जड़ वस्तुओंमें भी अपनी तरह के मनोभाव आरोपित करता। ऊफनती नदी और उठती ऑंधी को वह किसी के क्रोध के लक्षण समझता। कबीले के प्रधान की मृत्यु के बाद भी उसके सजीव स्वप्न आदि मानव को विश्वास दिलाते होंगे कि वह (मुखिया) मरा नहीं बल्कि किसी परोक्ष काल्पनिक जगत में विचरण कर रहा है। उसके हृदय में प्रधान के प्रति आदर तथा भय नया हो जाता। शायद पूर्व प्रस्तर युग में इसी से कहीं-कहीं शव को दफनाते समय व्यक्ति के हथियार और हड्डी आदि के अलंकार साथ दफना दिए जाते थे। इनको देखकर भारतीय सामाजिक जीवन (एवं शवदाह) और चिंतन की अलौकिकता को समझा जा सकता है।
आदि मानव के लिए बीमारी और मृत्यु अपना भयंकर रहस्य छिपाए खड़ी थी। कभी महामारी लंबे डग भरती हुई सारे प्रदेश में महानाश उपस्थित करती। उसका भयग्रस्त भावुक हृदय आतंक में कभी इधर कारण खोजता और कभी उधर दोष देता। गाढ़े में सहायता के लिए कभी इस वस्तु या प्राणी की, कभी उसकी शरण में भटकता। प्रकृति की क्रूरता को उसने मृदु बनाने का यत्न किया। अपनी तरह के मनोभाव इन विपत्तियों तथा जड़ वस्तुओं पर आरोपित कर उनको तुष्ट कर अनुकूल बनाने का प्रयास किया। इसी से वस्तु-पूजा, उनके समक्ष जीव-बलि प्रारंभ हुई। इस प्रकार उसने अनेक कठोर परिस्थितियों को जीवन में सहनीय बनाया। प्रकृति की क्रूरता को सहने की शक्ति अर्जित की। पर भारत में इसे वैज्ञानिक दृष्टि से देखना प्रारंभ हुआ।
इसके साथ आया अनजानी शक्तियों को प्रसन्न करने का भाव। फिर यह कि मानव कुछ त्याग करे, अपनी प्रिय-से प्रिय वस्तु देवताओं को अर्पण करे। इसी से बलि की प्रथा आई। नव प्रस्तर युग के प्रारंभ में खेत बोने के पहले उर्वरता (fertility) की देवी को नर-बलि देने की प्रथा भी कहीं-कहीं थी। कोई नीच, बहिष्कृत व्यक्ति की बलि नहीं बल्कि चुने हुए सुंदर युवक या युवती की, जिसको वे श्रद्धा से देखते और बलिदान के पहले पूजते। इसके पीछे एक कर्मकांड था और एक मानसिक बाध्यता। प्रस्तरयुगीन मानव को बलि होने वाले व्यक्ति और उसके प्रियजनों को भी इसकी क्रूरता का भास नहीं होता था। भारत में जब अकाल पड़ता तो सोने के हल से प्रमुख या राजा खेत जोतता। ऐसी राजा जनक द्वारा पुत्री सीता को प्राप्त करने की कथा है। सबका ध्यान आकर्षित करने के लिए यह किया जाता होगा। केवल एक अपवाद भारत में कहा जाता है सतयुग की शुन:शेप कथा। जब बारह वर्ष तक अनावृष्टि के कारण अकाल हुआ तो वर्षा के देवता इंद्र को प्रसन्न करने के लिए स्वेच्छा से अपने को बलि के निमित्त एक ब्राम्हण पुत्र ने, जिससे माता-पिता तथा समाज की दुर्दशा नहीं देखी गई, अर्पित किया। उसे बलि चढ़ाने खेत पर ले जाया गया। पर हवन प्रारंभ करते ही वर्षा हुई और नर-बलि की नौबत नहीं आई। भारत ने नर-बलि को कभी नहीं स्वीकारा।
अनुभव से मानव ने बीमारी का संबंध अनेक प्रकार की गंदगी और छूत से लगाया। इसी से शुचिता के भाव उत्पन्न हुए। भारतीय जीवन में छुआछूत के विचार इसी से आए। इनकी विकृति भी बाद में आई। इसका संबंध किसी आर्य-अनार्य भाव से न था। अनेक लोगों के साथ रहने पर यह आवश्यक था कि सामाजिक जीवन चलाने के लिए शरीर-मन-कर्म की शुद्धता पर बल दिया जाता। इस त्रिविध पवित्रता और उसमें उत्कर्ष करने के भाव से श्रेष्ठ सामाजिक जीवन यहॉं उत्पन्न हो सका।
पूर्व प्रस्तर युग में कुछ प्रौढ़ स्थिरमति लोग होंगे, जो भावनाओं और अंधविश्वासों में सहभागी होते हुए भी अधिक आग्रही तथा साहसी होंगे। इनके ऊपर कबीले के नेतृत्व का भार आ पड़ा। प्रकृति के कोप को शांत करना और दैवी विपत्तियों के निराकरण का मार्ग सुझाना, शकुन-अपशकुन का विचार करना आदि कार्य इनके मत्थे थे। यही परामर्शदाता एवं पुरोहित बने। संकट-निवारण तथा सौभाग्य बुलाने के अनेक टोटकों के ज्ञाता। यह समझना भूल होगी कि उस समय के ये पुरोहित नेता छल-कपट या चालबाजी करते और कबीले उनके शिकार बनते थे। इन सब टोटकों, झाड़-फूँक एवं मंत्र-तंत्र पर उनका विश्वास था और कबीले के सर्व-कल्याण के लिए ही यह सब किया जाता था। यह पुरोहितों का आदिकालीन व्यावरिक विज्ञान था। प्रारंभ में पुरोहित धार्मिक व्यक्ति न होकर तत्कालीन विज्ञान के अभ्यासकर्ता थे।
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कृषि के लिए ऋतुओं का ज्ञान आवश्यक था। प्रथम काल-गणना तो दिन एवं चंद्रमास द्वारा प्रारंभ हुई। आज भी अरब देशों में चंद्रमास से वर्ष गिनने के कारण मुसलमानी त्योहार कभी जाड़े में आते हैं तो कभी गरमी में। ईसा के क्रूसारोपण (crucifixion) और पुनर्जीवन (resurrection) के दिन ग्रेगरी पंचांग (Gregorian calendar) के अनुसार एक तिथि को नहीं पड़ते। बीज कब बोया जाय,यह सौर वर्ष पर आधारित है। दसियों सहस्त्राब्दियों से मानव ने तारों के उदय-अस्त पर ध्यान दिया। नक्षत्रों (तारा समूहों) को देखकर उनके स्वरूप की कल्पनाऍं उसके मन में उठीं। नक्षत्र ऋतु में निश्चित समय पर उदय होते हैं। इससे सौर वर्ष की कल्पना आई। भारतीय पंचांग चंद्रमास और सौर वर्ष के बीच संगति बैठाने का तरीका है।
पंचांग संभवतया सबसे प्राचीन विज्ञान है। यहॉं अनेक कल्पनाओं की कलई चढ़ने के बावजूद प्राकृतिक नियमों ने मानव को तर्कशुद्ध चिंतन के लिए बाध्य किया। पर मानव का मन फलित ज्योतिष की भूलभुलैया में भटकता रहा है। काल-गति ऐसी विचित्र है कि उसका अंतिम दार्शनिक या वैज्ञानिक विश्लेषण आज भी संभव नहीं। अनजाने भविष्य को पढ़ने के आकर्षण ने मानव कमजोरियों का उपयोग कर अंधविश्वासों को भी जन्म दिया।
मनुष्य समाज के रूप में रह सके, यह जीवन-दर्शन ‘धर्म’ कहलाया। प्राकृतिक तथ्यों और घटनाओं में मानव भाव आरोपित कर जहॉं प्रकृति पर प्रभुत्व की ओर उसने पग उठाया वहॉं आपसी व्यवहार के विधि निषेध ‘धर्म’ ने अपनाए। इन विचारों ने पूजा-वस्तुओं, टोटका, मंत्र-तंत्र और अंधविश्वासों के साथ एक व्यावहारिक ताना-बाना तैयार किया। इसे भारतीय परिभाषा में ‘पंथ’ या ‘संप्रदाय’ कहते हैं। ‘धर्म’ वह है जिसके द्वारा समाज की धारणा हो। अंग्रेजी का ‘रिलिजन’ (religion) शब्द लैटिन के ‘रेलिगेयर’ (religare) से बना है, जिसका अर्थ है ‘बॉंधना’। अंग्रेजी के इस शब्द के लिए हिंदी में ‘संप्रदाय’ या ‘पंथ’ अधिक उपयुक्त है। ‘रिलीजन’ से अर्थ उन विश्वासों, रीति-रिवाजों से है जो संप्रदाय या पंथ के अनुयायियों को एक साथ रखते हैं, भावना के एक सूत्र में बॉधते हैं। इसका मूल लक्षण एक प्रकार की उपासना-पद्धति है। पर धर्म वे मूलभूत विचार तथा विश्वास हैं जिनके बिना सभ्य समाज संभव न था। एक पंथ संबंधी है तो दूसरा सार्विक। यह बुनियादी अंतर न समझने और पंथ के दुराग्रह के कारण अनेक झगड़े हुए हैं और इसमें ‘हिंदु धर्म’ के प्रति हुई गलतफहमियों या जानबूझकर फैलाई गई भ्रांतियों का उत्स है।
फ्रायड ने धर्म के मनोभावों का एक नास्तिक (atheistic) अथवा अज्ञेयवादी (agnostic) निरूपण अपने ग्रंथ ‘एक माया का भविष्य’ (Future of an Illusion) में किया है। पर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि पंथ और संप्रदाय ने मानव को सभ्य बनाने का कार्य किया। इन्होंने संसार का कुछ सीमा तक मानवीकरण किया और सभ्यता का एक विस्तृत ढॉंचा खड़ा किया। पर पंथ या संप्रदाय का आग्रह और स्वार्थ कभी-कभी मानव प्रगति में बेड़ी बनकर आया, झगड़े उत्पन्न किए और स्वतंत्र विचारों की राह में विभीषिका बनकर खड़ा हुआ। यह सभी सामी पंथों के लिए सत्य है।
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आदि मानव ने घटनाओं को अपने स्वप्न और कल्पना में घोलकर कहानियॉं रचीं। विशेषकर सर्वनाशी भयानक विपत्तियों और उनके निराकरण के प्रसंगों ने, वीर कृत्यों, तात्कालिक सामाजिक जीवन-मूल्यों या अपने देवी-देवताओं एवं अंधविश्वासों को प्रस्थापित करने वाली अथवा चमत्कारी तथा आश्चर्यजनक घटनाओं ने एक अमिट छाप किसी प्रदेश में या कबीले में छोड़ी, जिसका अतिरंजित वर्णन किया जाता रहा। उस पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी समय की आकांक्षाओं के अनुसार रंग भी चढ़ता गया। बहुत सी बातें प्रतीकात्मक शैली में उसके मन से फूट निकलीं। कहानियों की एक परंपरा बनी। यही जनश्रुतियॉं या दंतकथाऍं हैं।
जनश्रुतियों का दायरा जीवन से बड़ा और अधिक सुंदर होता है। वे निराधार नहीं गढ़ी गई अपितु सत्यांश ले मानव के अंतर से विकसित हुई हैं। वैसे कभी-कभी किसी बात को या साधारण व्यवहार समझाने के लिए भी कहानियॉं गढ़ी जाती रहीं। इन आश्यायिकाओं में पशु-पक्षी और जड़ वस्तुऍं भी बोलती हैं, मानव समान प्रकृति एवं अनेक स्वरूप धारण करती हैं और मानवीय भावों से प्रेरित होती हैं। ऐसी ‘ईसप की कहानियॉं’ या ‘पंचतंत्र की कथाऍं’ अलग दिखती हैं और सर्वप्रिय एवं प्रचलित होते हुए भी जनश्रुतियों की परंपरा में नहीं हैं।
जनश्रुतियों को पुरातत्वज्ञ कपोल कल्पना कहकर टाल देते थे। उनके अंदर अलौकिक (supernatural) तत्व का समावेश होने से उसे ‘मिथक’ (myth, अर्थात् मिथ्या) कहकर उपेक्षा की जाती थी। इनमें ऐतिहासिक तथ्य हो सकता है, यह दिखाने का श्रेय एक जर्मन व्यापारी हेनरिख श्लीमान को है। उसे आधुनिक पुरातत्व तथा उत्खनन प्रणाली का प्रणेता कहते हैं। हेनरिख श्लीमान नेत्रहीन कवि होमर के प्राचीन महाकाव्य ‘इलियड’ (Iliad) और ‘ओडेसी’ (Odyssey) का प्रेमी था। उसने इन्हें सत्य सिद्ध करने की ठानी।
इलियड यवन कबीलों की वीरगाथा (epic) है। ट्रॉय (Troy) के राजकुमार पेरिस ने एक यवन राजकुमार की पत्नी हेलेन का अपहरण कर लिया। इस पर यवन कबीलों ने ट्रॉय को घेर लिया। पर न नगर का फाटक टूटा और न प्राचीर ही लॉंघी जा सकी। अंत में यवन सेना ने एक चाल चली। एक लकड़ी का खोखला घोड़ा पहिएयुक्त पटले पर जड़ा गया। उसे छोड़ एक दिन यवन अपने जहाजों से चल दिए। ट्रॉय के लोगों ने सोचा कि यवन अपने देवता की मूर्ति छोड़कर निराश हो चले गए। वे उसे खींचकर नगर में लाए तो मुख्य द्वार के मेहराब को कुछ काटना पड़ा। रात्रि को जब ट्रॉय खुशियॉं मना रहा था, खोखली अश्व मूर्ति से यवन सैनिकों ने निकलकर चुपचाप ट्रॉय का फाटक खोल दिया। यवन सेवा, जो पास में जाकर छिप गई थी, ट्रॉय में घुस गई। एक हेलेन के पीछे ट्रॉय नष्ट हो गया। जैसे सीता के पीछे रावण की स्वर्णमयी लंका नष्ट हुई। इसी से अंग्रेजी में ‘द ट्रॉजन हॉर्स’ (The Trojan Horse) का मुहावरा बना। ‘ओडेसी’ मनीषी यवन कप्तान ओडेसस की साहसिक वापसी यात्रा की गाथा है।
होमर वर्णित दंतकथाओं का अध्ययन कर श्लामान ने अनातोलिया ( जिसे अब एशियाई तुर्की कहते हैं) में कुछ स्थानों पर उत्खनन प्रारंभ किया। अंत में एक स्थान पर दबे हुए एक के ऊपर एक बसे नौ ट्रॉय नगर उसने खोज निकाले। उसके बाद यूनान ( Greece) में होमर द्वारा वर्णित ‘टिरीस’ राजप्रासाद तथा अन्य अवशेष खोजे। इस प्रकार उसने इन जनश्रुतियों की ऐतिहासिकता सिद्ध की। काश ! भारतीय पुरातत्वज्ञ श्लीमान से सीखते। राम और कृष्ण के अवशिष्ट चिन्ह सारे देश में फैले हैं। इन ऐतिहासिक महापुरूषों के जीवन का शोध आज तक हम नहीं कर पाए।
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इन जनश्रुतियों में अंतर्निहित ऐतिहासिक तथ्य क्या हैं, यह खोजना पुरातत्व का कार्य है। मेरे छोटे बाबाजी (चौ. धनसराजसिंह) ने इसके लिए अपना तरीका निकाला। इनके तुलनात्मक अध्ययन से कुछ सामान्य अनुमान हम लगा सकते हैं। अनेक देशों की जनश्रुतियों में एक विचित्र साम्य है। इसके कई कारण हो सकते हैं। प्रथम, मानव स्वभाव एक होने से एक तरह की कल्पनाओं में इनका सृजन हुआ। द्वितीय, जिसका सार्वदेशिक प्रभाव हुआ और वंशानुवंश स्मृति बनी रही, ऐसी किसी घटना के चारों ओर प्रसूत जाल ये हैं। तृतीय, किसी देश के सांस्कृतिक प्रभाव के कारण वहॉं की जनश्रुतियॉं दूसरे देश में रूढ़ हुईं या उत्प्रवास और व्यापार के कारण गईं।
भारतीय पुराणों का विशेष महत्व है। इनमें रूपक में कही गई कहाजियॉं भी हैं। अपने देश की ऐतिहासिक घटनाओं और जनश्रुतियों के अतिरिक्त कुछ दुसरे देशों की भी जनश्रुतियॉं हैं। वेद ग्रंथों में जिस प्रकार संसार का ज्ञान संकलन करने का प्रयत्न हुआ, वैसा ही उस समय की सभी देशों की ज्ञात घटनाओं का संग्रह पुराणों में किया गया। इसलिए पुराणों में अनेक प्रकार के लोगों का वर्णन मिलता है। इनमें से बहुतों को, जैसे –यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग आदि—हम भूल गए कि कौन थे, कहॉं के निवासी थे। पुराणों में वर्णित अनेक प्रदेश आज हम संसार के मानचित्र में नहीं बता सकते। आज पुराण वर्णित सभी घटनास्थल कूपमंडूक बनकर भारत में ढूढ़ते हैं। इनमें से कुछ घटनाऍं भारत के बाहर की हो सकती हैं। कम-से-कम अनेक देशों में प्रचलित उसी प्रकार की जनश्रुतियों से यह कहा जा सकता है कि वे सार्वभौमिक हैं। तो फिर दुनिया में इनके रंगमंच की खोज करनी होगी। पर इनके प्रमुख स्त्रोत होंगे भारत के पुराण ग्रंथ।
कालांतर में जनश्रुतियों में परिवर्तन हुए। अनेक विकृतियाँ तथा क्षेपक इनमें जुड़ गए। भिन्न-भिन्न मत-मतांतरों के विभेदों ने इन्हें तोड़-मरोड़ डाला। अपने मत के प्रतिपादन में कल्पना तथा अलौकिकता का सहारा और देवी-देवताओं की दुहाई इन कथाओं में आ गई। इसलिए इन सब प्रकार के आवरणों को हटाकर और रूपक को भेदकर पुराणों का अर्थ समझने की आवश्यकता है। उनसे ऐतिहासिक घटना-तत्व प्राप्त कर उसका समर्थन पुरातत्व के अन्य तरीकों से खोजा जा सकता है। क्या जनश्रुतियों के सत्यांश को पहचानकर, कभी मानव सभ्यता, जो प्राचीन काल में भारतीय अथवा हिंदु सभ्यता से प्रभावित थी, का वास्तविक इतिहास हम खड़ा कर सकेंग