मैं वृक्षों मैं पीपल हूँ _ गीता : पीपल को जानिए
भारतीय ज्ञान कोष से साभार
पीपल (वानस्पति नाम:फ़ाइकस रेलीजियोसा Ficus religiosa) भारत, नेपाल, श्रीलंका, चीन और इंडोनेशिया में पाया जाने वाला बरगद की जाति का एक विशालकाय वृक्ष है, जिसे भारतीय संस्कृति में महत्त्वपूर्…ण स्थान दिया गया है तथा अनेक पर्वों पर इसकी पूजा की जाती है। पीपल का वृक्ष का विस्तार, फैलाव तथा ऊंचाई व्यापक और विशाल होती है। यह सौ फुट से भी ऊंचा पाया जाता है। हज़ारों पशु और मनुष्य इसकी छाया के नीचे विश्राम कर सकते हैं। बरगद और गूलर वृक्ष की भाँति इसके पुष्प भी गुप्त रहते हैं अतः इसे गुह्यपुष्पक भी कहा जाता है। अन्य क्षीरी (दूध वाले) वृक्षों की तरह पीपल भी दीर्घायु होता है। पीपल की आयु संभवतः 90 से 100 सालों के आसपास आंकी गई है। इसके फल बरगद-गूलर की भांति बीजों से भरे तथा आकार में मूँगफली के छोटे दानों जैसे होते हैं। बीज राई के दाने के आधे आकार में होते हैं। परन्तु इनसे उत्पन्न वृक्ष विशालतम रूप धारण करके सैकड़ों वर्षो तक खड़ा रहता है। पीपल की छाया बरगद से कम होती है। इसके पत्ते अधिक सुन्दर, कोमल, चिकने, चौड़े व लहरदार किनारे वाले होते हैं। बसंत ऋतु में इस पर धानी रंग की नयी कोंपलें आने लगती है। बाद में, वह हरी और फिर गहरी हरी हो जाती हैं। पीपल के पत्ते जानवरों को चारे के रूप में खिलाये जाते हैं, विशेष रूप से हाथियों के लिए इन्हें उत्तम चारा माना जाता है। पीपल की लकड़ी ईंधन के काम आती है किंतु यह किसी इमारती काम या फर्नीचर के लिए अनुकूल नहीं होती। स्वास्थ्य के लिए पीपल को अति उपयोगी माना गया है। पीपल का वृक्ष हमें हमेशा कर्म करने की शिक्षा देता है। जब अन्य वृक्ष शांत हो पीपल की पत्तियों तब भी हिलती रहती है। इसके इस गतिशील प्रकृति के कारण इसे चल वृक्ष (चलपत्र) भी कहते हैं।
[सम्पादन] ऐतिहासिक उल्लेख
कहा जाता है कि चाणक्य के समय में सर्प विष के खतरे को निष्प्रभावित करने के उद्देश्य से जगह – जगह पर पीपल के पत्ते रखे जाते थे। पानी को शुद्ध करने के लिए जलपात्रों में अथवा जलाशयों में ताजे पीपल के पत्ते डालने की प्रथा अति प्राचीन है। कुएं के समीप पीपल का उगना आज भी शुभ माना जाता है। सिन्धु घाटी की खुदाई से प्राप्त मोहन-जोदड़ो की एक मुद्रा में पीपल वासी देवता पत्तियों से घिरे हुए हैं। मुद्रा में ऊपर पांच मानव आकृतियां हैं। कतिपय विद्वान हड़प्पा सभ्यता को वैदिक नहीं मानते। मोहन-जोदड़ो की एक मुद्रा में पीपल पत्तियों के भीतर देवता हैं। हड़प्पा कालीन सिक्कों पर भी पीपल वृक्ष की आकृति देखनो को मिलती है। हड़प्पा मुद्रा की पांच मानव आकृतियां ऋग्वेद में वर्णित पांच जन हो सकती हैं। हड़प्पा सभ्यता में पीपल की छाया है और पीपल देवता हैं। [1]
[सम्पादन] धार्मिक मान्यता
भारतीय ग्रंथों एवं उपनिषदों में ऐसे बहुत से वृक्ष हैं, जो पवित्र और पूजनीय माने जाते हैं। इनकी पूजा श्रद्धा से की जाती है। इन वृक्षों में भी कुछ की पूजा गौणरूप से होती है और कुछ केवल पवित्र ही माने जाते हैं। प्राचीनकाल में जब लोगों का जीवन ही वृक्षों पर निर्भर था, तब वे वृक्षों का बहुत सम्मान करते थे, परंतु जब मनुष्य ने अपना बसेरा ईट-पत्थरों से बने घरों को बना लिया तब से वृक्षों के सम्मान और महत्त्व को हम भूलते गये। हिन्दुओं में पीपल, तुलसी, बेल आदि वृक्षों की पूजा की जाती है। कारण है उनका हमारे जीवन में अत्यधिक उपकार। अतः उनकी पूजा करके उनके प्रति हम अपनी कृतज्ञता का ज्ञापन करते हैं। हमारे जीवन में जिन प्राकृतिक तत्वों का अत्यधिक उपकार हैं, उनके प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित करना हमारा नैतिक दायित्व है।[2]
[सम्पादन] पीपल में भगवान और देवताओं का वास
भारतीय ग्रंथों में यज्ञों में समिधा के निमित्त पीपल, बरगद, गूलर और पाकर वृक्षों की काष्ठ को पवित्र माना गया है और कहा गया है ये चारों वृक्ष सूर्य की रश्मियों के घर हैं। इनमें पीपल सबसे पवित्र माना जाता है। इसकी सर्वाधिक पूजा होती है। क्योंकि इसके जड़ से लेकर पत्र तक में अनेक औषधीय गुण हैं। इसीलिए हमारे पूर्वज-ऋषियों ने उन गुणों को पहचान कर आम लोगों को समझाने के लिए उन्हीं की भाषा में कहा था इन वृक्षों में देवताओं का वास है तथा इसे देववृक्ष यानी देवताओं का वृक्ष माना गया है। यह किसी अंधविश्वास या आडंबर के चलते नहीं है बल्कि इसके अनेक दिव्य गुणों के चलते ही है। पीपल विष्णु, शिव तथा ब्रह्मा का एकीभूत रूप है। अतः उस को प्रणाम मात्र से ही समस्त देवता प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिए यह वृक्ष न केवल गाय, ब्राह्मण व देवता के समान पावन माना जाता है, बल्कि पूजनीय भी है। [2]
हमारे प्राचीन साहित्य में पीपल वृक्ष के महत्त्व का विस्तार से वर्णन किया गया है। पीपल अक्षय वृक्ष, पीपल को कभी क्षीण न होने वाला अक्षय वृक्ष माना गया है। जड़ से ऊपर तक का तना नारायण कहा गया है और ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही इसकी शाखाओं के रूप में स्थित है। पीपल के पत्ते संसार के प्राणियों के समान है। प्रत्येक वर्ष नए पत्ते निकलते हैं पतझड़ होता है, मिट जाते हैं, फिर नए पत्ते निकलते हैं, यही जन्म-मरण का चक्र है। पीपल के वृक्ष के नीचे गौतम बुद्ध को इस तथ्य का बोध हुआ था और वे बुद्ध कहलाये थे। महात्मा बुद्ध (भगवान बुद्ध) का बोध–निर्वाण पीपल की घनी छाया से जुड़ा हुआ है। इस वृक्ष के नीचे एकाग्रचित बैठकर देखें तो यह अनुभव होगा कि पत्तों के हिलने की ध्वनि एकाग्रचित्तता में सहायक होती है। पीपल से निरन्तर आक्सीजन का निकलना तथा पत्तों की आवाज़ हमारे चित्त को साधना में सहायक बनाती है। पीपल की छाया तप, साधना के लिए ऋषियों का प्रिय स्थल माना जाता था। पीपल की जड़ के निकट बैठ कर जो जप, दान, होम, स्तोत्र पाठ, ध्यान व अनुष्ठान किया जाता है, उनका फल अक्षय होता है। पीपल के नीचे किया गया दान अक्षय हो कर जन्म-जन्मान्तरों तक फलदाई होता है।[3] [सम्पादन] पीपल से जुड़ी भ्रांतियाँ
जन सामान्य में पीपल के संबंध में अनेक भ्रांतियाँ और अंध-विश्वास व्याप्त है। यह आम धारणा है कि पीपल के वृक्ष पर ब्रह्म राक्षस एवं भूत-प्रेतों का वास होता है। दाह-संस्कार के बाद जो अस्थियाँ चुनी जाती हैं उन्हें एक लाल कपडे में बाँध कर एक छोटी सी मटकी में रख पीपल के वृक्ष पर टांगने की प्रथा भी है। यह इसलिए कि विसर्जन के लिए चुनी गयी यह अस्थियाँ घर नहीं ले जायी जा सकती, अत: उन्हें पीपल के वृक्ष पर टांग दिया जाता है। इस कारण भी पीपल के विषय में अंध-विश्वास बढ़ा है। कर्म कांड में विश्वास रखने वाले लोगों की मान्यता है कि पीपल के वृक्ष पर ब्रह्मा का निवास होता है। मरणोत्तर क्रियाकर्म भी पीपल की छाँव में इसलिए किये जाते हैं कि प्रेतात्मा की शीघ्र ही मुक्ति हो और भगवान विष्णु के धाम बैकुण्ठ को चला जाये।
[सम्पादन] पीपल में पितरों का वास
पीपल में पितरों का वास भी माना गया है। विश्वास है कि पितृ-प्रकोप अर्थात पितरों की नाराज़गी के कारण भी कोई व्यक्ति जीवन में विकास नहीं कर पाता। पितरों को प्रसन्न करने के लिए इस विधि से पीपल की पूजा की जाये, तो तत्काल फल मिलता है। उनकी विधि इस प्रकार है- पीपल के नीचे संकल्प रविवार की रात्रि को भोजन के बाद पीपल की दातून से दांत साफ़ करे, फिर स्नान कर पूजन सामग्री लेकर पीपल के वृक्ष के नीचे जाएँ। जल लेकर संकल्प करें कि मै इस जन्म एवं पूरे जन्म के पापों के नाश के लिए यह पूजन कर रहा हूँ। फिर यह संकल्पित जल जड़ में छोड़ दें। गणेश पूजन कर पीपल वृक्ष को गंगाजल तथा पंचामृत से स्नान कराए और तने में कच्चा सूत लपेट कर, जनेऊ अर्पण करे। पुष्प आदि अर्पण कर आरती करे, नमस्कार कर वृक्ष की 108 बार परिक्रमा करे। प्रत्येक परिक्रमा पर वृक्ष को मिष्ठान अथवा एक फल अर्पित कर दीप जलाये। सोमवती अमावस्या पर इस तरह पीपल पूजन से तत्काल फल मिलता है। तंत्र मंत्र में पीपल तंत्र मंत्र की दुनिया में भी पीपल का बहुत महत्त्व है। इसे इच्छापूर्ति धनागमन संतान प्राप्ति हेतु तांत्रिक यंत्र के रूप में भी इसका प्रयोग होता है। सहस्त्रवार चक्र जाग्रत करने हेतु भी पीपल का महत्त्व अक्षुण्ण है। पीपल भारतीय संस्कृति में अक्षय ऊर्जा के स्रोत के रूप में विद्यमान है।
[सम्पादन] पौराणिक उल्लेख
स्कन्द पुराण में वर्णित है कि अश्वत्थ (पीपल) के मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में श्रीहरि और फलों में सभी देवताओं के साथ अच्युत सदैव निवास करते हैं। पीपल भगवान विष्णु का जीवन्त और पूर्णत: मूर्तिमान स्वरूप है। यह सभी अभीष्टों का साधक है। इसका आश्रय मानव के सभी पाप ताप का शमन करता है। भगवद्गीता में भी इसकी महानता का स्पष्ट उल्लेख है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम् (अर्थात् समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूं) कहकर पीपल को अपना स्वरूप बताया है। स्वयं भगवान ने उसे अपनी उपमा देकर पीपल के देवत्व और दिव्यत्व को व्यक्त किया है। इसलिए धर्मशास्त्रों में पीपल के पत्तों को तोडना, इसको काटना या मूल सहित उखाड़ना वर्जित माना गया है। अन्यथा देवों की अप्रसन्नता का परिणाम अहित होना है। जो व्यक्ति पीपल को काटता या हानि पहुंचाता है उसे एक कल्प तक नरक भोग कर चांडाल की योनी में जन्म लेना पड़ता है। शास्त्रों में वर्णित है कि अश्वत्थ: पूजितोयत्र पूजिता: सर्व देवता:। अर्थात् पीपल की सविधि पूजा-अर्चना करने से सम्पूर्ण देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं। अथर्ववेद में पीपल के पेड़ को देवताओं का निवास बताया गया है – अश्वत्थो देव सदन:। पीपल का वृ़क्ष आधुनिक भारत में भी देवरूप में पूजा जाता है। श्रीमद्भागवत् में वर्णित है कि द्वापर युग में परमधाम जाने से पूर्व योगेश्वर श्रीकृष्ण इस दिव्य पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान में लीन हुए थे। इसका प्रभाव तन-मन तक ही नहीं भाव जगत तक रहता है। अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों का अनेक असाध्य रोगों में उपयोग वर्णित है। पीपल एक ऐसा वृक्ष है, जो आदि काल से स्वर्ग लोक के वट वृक्ष के रूप में इस धरती पर ब्रह्मा जी के तप से उतरा है। श्रद्धालु पीपल के पेड़ को नमस्कार करते हैं और पीपल के हर पात में ब्रह्मा जी का निवास मानते हैं। पीपल का वृक्ष इसीलिए ब्रह्मस्थान है। इससे सात्विकता बढती है। विश्व-दर्शन में पीपल का महत्त्व है। गीता में इसे वृक्षों में श्रेष्ठ ’अश्वतथ्य’ को अथर्ववेद में लक्ष्मी, संतान व आयुदाता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। [3]
[सम्पादन] पीपल की पूजा-अर्चना से लाभ
प्रसिद्ध ग्रन्थ व्रतराज में अश्वत्थोपासना में पीपल वृक्ष की महिमा का उल्लेख है। इसमें अर्थवण ऋषि पिप्पलाद मुनि को बताते हैं कि प्राचीन काल में दैत्यों के अत्याचारों से पीड़ित समस्त देवता जब विष्णु के पास गए और उनसे कष्ट मुक्ति का उपाय पूछा, तब प्रभु ने उत्तर दिया – मैं अश्वत्थ के रूप में भूतल पर प्रत्यक्षत: विद्यमान हूं। आप सभी को सब प्रकार से पीपल वृक्ष की आराधना करनी चाहिए। इसके पूजन से यम लोक के दारुण दु:ख से मुक्ति मिलती है। अश्वत्थोपनयन व्रत में महर्षि शौनक वर्णित करते हैं कि मंगल मुहूर्त में पीपल के वृक्ष को लगाकर आठ वर्षो तक पुत्र की भांति उसका लालन-पालन करना चाहिए। इसके अनन्तर उपनयन संस्कार करके नित्य सम्यक् पूजा करने से अक्षय लक्ष्मी मिलती हैं। पीपल वृक्ष की नित्य तीन बार परिक्रमा करने और जल चढाने पर दरिद्रता, दु:ख और दुर्भाग्य का विनाश होता है। पीपल के दर्शन-पूजन से दीर्घायु तथा समृद्धि प्राप्त होती है। अश्वत्थ व्रत अनुष्ठान से कन्या अखण्ड सौभाग्य पाती है। शनि की साढ़े साती में पीपल के पूजन और परिक्रमा का विधान बताया गया है। अनुराधा नक्षत्र से युक्त शनिवार की अमावस्या को पीपल वृक्ष के पूजन और सात परिक्रमा करने से तथा काले तिल से युक्त सरसो तेल के दीपक को जलाकर छायादान से शनि की पीड़ा का शमन होता है। श्रावण मास में अमावस्या की समाप्ति पर पीपल वृक्ष के नीचे शनिवार के दिन हनुमान की पूजा करने से बड़े संकट से मुक्ति मिल जाती है। आदि शंकराचार्य ने पीपल की पूजा को जहां पर्यावरण की सुरक्षा से जोड़ा है, वहीं इसके पूजन से दैहिक, दैविक और भौतिक ताप दूर होने की बात भी कही है। महामुनि व्यास के अनुसार प्रात: स्नान के बाद पीपल का स्पर्श करने से व्यक्ति के समस्त पाप भस्म हो जाते हैं तथा लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। उसकी प्रदक्षिणा करने से आयु में वृद्धि होती है। अश्वत्थ वृक्ष को दूध, नैवेद्य, धूप-दीप, फल-फूल अर्पित करने से मनुष्य को समस्त सुख-वैभव की प्राप्ति होती है। पीपल में सभी तीर्थों का निवास माना गया है, इसिलिए मुंडन आदि संस्कार भी पीपल के नीचे करवाने का प्रचलन है। पीपल वृक्ष की प्रार्थना के लिए अश्वत्थस्तोत्र में दिया गया मंत्र है-
अश्वत्थ सुमहाभागसुभग प्रियदर्शन। इष्टकामांश्चमेदेहिशत्रुभ्यस्तुपराभवम्॥ आयु: प्रजांधनंधान्यंसौभाग्यंसर्व संपदं। देहिदेवि महावृक्षत्वामहंशरणंगत:॥ पौराणिक काल से ही पीपल को पवित्र और पूज्य मानने की आस्था रही है। संपूर्ण भारतवर्ष में पीपल से लोगों की आस्था जुड़ी है। श्रद्धा, आस्था, विश्वास और भक्ति का यह पेड़ वास्तव में बहुत शक्ति रखता है। पवित्र और पूज्य पीपल का पेड़ बहुत परोपकारी गुणों से भरा होता है। शास्त्रों के अनुसार, जो लोग अश्वत्थ वृक्ष की पूजा वैशाख माह में करते हैं और जल भी अर्पित करते हैं, उनका जीवन पाप मुक्त हो जाता है। पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परम्परा कभी विनष्ट नहीं होती। पीपल की सेवा करने वाले सद्गति प्राप्त करते हैं। कहा जाता है कि इसकी परिक्रमा मात्र से हर रोग नाशक शक्तिदाता पीपल मनोवांछित फल प्रदान करता है। पीपल को रोपने से धन, रक्षा करने से पुत्र, स्पर्श करने से स्वर्ग एवम पूजने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। रात में पीपल की पूजा को निषिद्ध माना गया है। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि रात्रि में पीपल पर दरिद्रता बसती है और सूर्योदय के बाद पीपल पर लक्ष्मी का वास माना गया है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी पीपल का महत्त्व है। पीपल ही एकमात्र ऎसा वृक्ष है जो रात-दिन ऑक्सीजन देता है। गंधर्वों, अप्सराओं, यक्षिणी, भूत – प्रेतात्माओं का निवास स्थल, जातक कथाओं, पंचतंत्र की विविध कथाओं का घटना स्थल तपस्वियों का आहार स्थल होने के कारण पीपल का माहात्म्य दुगुना हो जाता है। आज के इस दूषित पर्यावरण में इस कल्प वृक्ष का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। अतः हमें अपने धरम ग्रंथों के अनुसार चलते हुए अधिक से अधिक पीपल के पेड़ लगाने चाहिए तथा उनकी श्रद्धा पूर्वक पूजा अर्चना करनी चाहिए।
[सम्पादन] पीपल का महत्त्व
पीपल वृक्ष पर बैठे दो पक्षियों का प्रतीक और दर्शन ऋग्वेद, अथर्ववेद व मुण्डकोपनिषद में एक साथ ज्यों के त्यों मौजूद हैं। कहते हैं कि ‘पीपल वृक्ष पर दो पक्षी (सुपर्णा) हैं। वे अंतरंग मित्र हैं। इनमें एक पीपल का स्वादष्टि फल खाता है और दूसरा सिर्फ़ देखता है।’ यहां पीपल का फल सांसारिक आनंद का पर्याय है। संसार स्वादष्टि भोग है। इसके भोग कर्मफल हैं। भोगों में डूबना बंधन है। साक्षी भाव या निर्लिप्त मनोदशा साधना है। देखना भी बांधता है, देखा गया दृश्य आंखों के माध्यम से मन बुद्धि पर जाता है। बुद्धि अपना पराया देखती है। अपनत्व बंधन है, परायापन और भी बांधता है। विश्वास आस्था बनता है। अविश्वास भी आस्था है कि हम ऐसा नहीं मानते। विश्वास ‘हां’ के साथ दृढ़ता है और अविश्वास ‘नहीं’ के साथ आस्था है। द्रष्टापन हां और नहीं के परे की भावभूमि है। वैदिक ऋषियों ने देखने की इस शैली को ‘द्रष्टापन’ कहा। वैदिक ऋषि ‘मंत्र द्रष्टा’ हैं। उन्होंने निर्लिप्त देखा इसलिए द्रष्टा। उन्होंने द्रष्टापन को बोली, भाषा और छन्द दिये इसलिए वे मंत्र रचयिता भी हैं। लेकिन ध्यान देने योग्य बात है पीपल का पेड़। आखिरकार द्रष्टापन की यह घटना पीपल से ही क्यों जुड़ी? कठोपनिषद् दर्शन ग्रन्थ है। यहां जिज्ञासु नचिकेता के प्रश्न हैं, यमराज के उत्तर हैं। यम नियमों का पालन कराते हैं, दंडित करते हैं। वे नियमविद् हैं। यम ने बताया ‘सनातन पीपल वृक्ष की जड़े ऊपर हैं, शाखाएँ नीचे हैं। गीता में भी ठीक ऐसा ही ऊपर की जड़ों और नीचे की शाखाओं वाले पीपल का वर्णन है। यहां यम की जगह श्रीकृष्ण व्याख्याता हैं। कहते हैं ‘जो इसे जान लेता है सम्पूर्ण ज्ञानी हो जाता है।’ कृष्ण पीपल की महत्ता और लोकआस्था से सुपरिचित है। वे सभी वृ़क्षों में स्वयं को ‘पीपल’ (अश्वत्थ) बताते हैं – अश्वत्थ सर्ववृक्षाणां। लेकिन उल्टा लटका पीपल प्रतीक दिलचस्प है। संसार पीपल की शाखाएँ हैं, पत्तियां हैं। इसकी जड़ें ऊपर है। ऋग्वेद में आकाश पिता हैं, और धरती माता। माता हमारा अंग है, हम मां का विकसित अंग हैं। वैदिक दर्शन दोनों को एक साथ एक जगह लाकर एकात्म करता है। असली बात है जड़, मूल, उत्स, मुख्य केन्द्र।[4]
[सम्पादन] वैज्ञानिक महत्ता
मनुष्य की जड़ें भी मस्तिष्क में ऊपर हैं। नीचे शाखाएं हैं। मस्तिष्क केन्द्र से ही नाड़ी तंत्र बोध तंत्र का विकास है। ऋग्वेद की देवशक्तियां भी ऊपर हैं, ऋषि कहते है ‘ऋचोअक्षरे परम व्योमन’ ऋचा–मन्त्र परमव्योम से आते हैं। यहां दिव्य-शक्तियां रहती है। जो यह बात नहीं जानते, मन्त्रों ऋचाओं से वे क्या पाएंगे। शिव विषपायी हैं। लेकिन ‘महामृत्युंजय’ हैं। वशिष्ठ के देखे रचे ऋग्वेद के ‘त्रयंबकं यजामहे’ का नाम महामृत्युंजय पड़ा। इस मन्त्र में मृर्त्योमुक्षीय मा अमृतात- मृत्युबंधन से मुक्ति और अमृत्व की कामना है। पीपल देव भी कार्बन डाईआक्साइड नामक विष पीते हैं और आक्सीजन नामक अमृत देते है। शिव और पीपल का स्वभाव एक है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार वृक्ष शिवरूप है। यजुर्वेद में रुद्र असंख्य है। वृक्ष वनस्पतियां भी असंख्य है। यजुर्वेद का 16वां अध्याय शिव आराधना है। यहां शिव वृक्षों और वनस्पतियों के अधिष्ठाता हैं। सभी वनस्पतियां विषपायी हैं- कार्बन डाईआक्साइड पीती हैं, आक्सीजन देती हैं। लेकिन पीपल की बात ही दूसरी है, यह 24 घंटे आक्सीजन देता है। ग्लोबल वार्मिंग से विश्व बेचैन है। ओज़ोन परत नष्ट हो जाने की आशंकाएँ हैं। पीपल अब पूज्य देवता नहीं रहे। ऋग्वेद के ऋषियों ने हज़ारों वर्ष पहले ‘वृक्षों, वनस्पतियों को संरक्षक देव बताया था कि इनसे कल्याण है, इनका त्याग विनाश है।[4]
गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी का गुण है और ऊर्ध्वाकर्षण देवताओं का। पृथ्वी सभी वस्तुओं को नीचे की ओर खींचती है, यही गुरुत्वाकर्षण है। देवता सभी वस्तुओं को ऊपर की ओर खींचते है, इसका प्रतिफल प्रसाद है। संसारी संलिप्तता ‘विषाद’ है, देव अनुकम्पा ‘प्रसाद’ है। प्रसाद ऊपर खींचता है, विषाद नीचे गिराता है। पीपल सहित सभी वृक्षों में प्रसाद गुण है। सभी वृक्ष ऊपर उठते हैं, आकाश चूमने को लालायित रहते हैं। वे ऊर्ध्व अभीप्सु हैं। इसी अभीप्सा में वे आक्सीजन देते हैं, फूल देते हैं और फल देते हैं। आक्सीजन, फूल और फल प्रसाद हैं। लेकिन नीचे हैं, इनका स्रोत (जड़ें) ऊपर हैं। पीपल का पेड़ दर्शन में है, विश्व के प्राचीनतम ज्ञानकोष ऋग्वेद में देव रूप में है, उसके बाद यजुर्वेद में है, यज्ञ में है और देव रूप है। फिर अथर्ववेद में वह देवों का निवास है। वह उपनिषद साहित्य में है। वह बौद्ध पंथ अनुयायियों की आस्था है। वह हड़प्पा सभ्यता में है। वह वाल्मीकि रामायण में है। वह महाभारत में है, गीता में है, प्राक् ऋग्वैदिक काल अनादि है, ऋग्वैदिक काल और हड़प्पा इत्यादि है। वह आधुनिक विज्ञान में विश्व का अनूठा वृक्ष है। वह भव्य है, लोकमंगलकारी है, अमंगलहारी है। वह दिव्य है, उपास्य है, संरक्षक है, संरक्षण है। वह उपास्य है, नमस्कार के योग्य है और आराध्य देव है। वह सृष्टि की अनूठी सर्जना है। लोकमन ने इसीलिए उसे देवता जाना और पूजा भी है।[4]
[सम्पादन] पीपल की पूजा से जुड़ी कथाएँ एक बार अगस्त्य ऋषि तीर्थयात्रा के उद्देश्य से दक्षिण दिशा में अपने शिष्यों के साथ गोमती नदी के तट पर पहुंचे और सत्रयाग की दीक्षा लेकर एक वर्ष तक यज्ञ करते रहे। उस समय स्वर्ग पर राक्षसों का राज था। कैटभ नामक राक्षस अश्वत्थ और पीपल वृक्ष का रूप धारण करके ब्राह्मणों द्वारा आयोजित यज्ञ को नष्ट कर देता था। जब कोई ब्राह्मण इन वृक्षों की समिधा के लिए टहनियां तोड़ने वृक्षों के पास जाता तो यह राक्षस उसे खा जाता और ऋषियों का पता भी नहीं चलता। धीरे-धीरे ऋषि कुमारों की संख्या कम होने लगी। तब दक्षिण तीर पर तपस्या रत मुनिगण सूर्य पुत्र शनि के पास गए और उन्हें अपनी समस्या बतायी। शनि ने विप्र का रूप धारण किया और पीपल के वृक्ष की प्रदक्षिणा करने लगा। अश्वत्थ राक्षस उसे साधारण विप्र समझकर निगल गया। शनि अश्वत्थ राक्षस के पेट में घूमकर उसकी आंतों को फाड़कर बाहर निकल आये। शनि ने यही हाल पीपल नामक राक्षस का किया। दोनों राक्षस नष्ट हो गए। ऋषियों ने शनि का स्तवन कर उसे खूब आशीर्वाद दिया। तब शनि ने प्रसन्न होकर कहा – अब आप निर्भय हो जाओ। मेरा वरदान है कि जो भी व्यक्ति शनिवार के दिन पीपल के समीप आकर स्नान, ध्यान व हवन व पूजा करेगा और प्रदक्षिणा कर जल से सींचेगा, साथ में सरसों के तेल का दीपक जलाएगा तो वह ग्रह जन्य पीड़ा से मुक्त हो जाएगा। शनि के उक्त वरदान के बाद भारत में पीपल की पूजा-अर्चना होने लगी। अमावस के शनिवार को उस पीपल पर जिसके नीचे हनुमान स्थापित हों, जाकर दर्शन व पूजा करने से शनि-जन्य दोषों से मुक्ति मिलती है। ग्रह शान्ति की प्रक्रिया में बृहस्पति की प्रसन्नता हेतु पीपल समिधाओं की घृत के साथ यज्ञ में आहुति दी जाती है। सामान्यतः बिना नागा प्रतिदिन पीपल के वृक्ष की जड़ पर जल चढ़ाने से या उसकी सेवा करने से बृहस्पति देव प्रसन्न होते हैं और मनोकांक्षा पूर्ण करते हैं। अत: पीपल जीवन दाता वृक्ष और बृहस्पति भी जीव प्रदाता है। एक कथा और प्रचलित है। पिप्पलाद मुनि के पिता का बाल्यावस्था में ही देहान्त हो गया था। यमुना नदी के तट पर पीपल की छाया में तपस्यारत पिता की अकाल मृत्यु का कारण शनिजन्य पीड़ा थी। उनकी माता ने उसे अपने पति की मृत्यु का एकमात्र कारण शनि का प्रकोप बताया। मुनि पिप्पलाद जब वयस्क हुए। उनकी तपस्या पूर्ण हो गई तब माता से सारे तथ्य जानकर पितृहन्ता शनि के प्रति पिप्पलाद का क्रोध भड़क उठा। उन्होंने तीनों लोकों में शनि को ढूंढना प्रारम्भ कर दिया। एक दिन अकस्मात पीपल वृक्ष पर शनि के दर्शन हो गए। मुनि ने तुरन्त ब्रह्मदण्ड उठाया और उसका प्रहार शनि पर कर दिया। शनि यह भीषण प्रहार सहन करने में असमर्थ थे। वे भागने लगे। ब्रह्मदण्ड ने उनका तीनों लोकों में पीछा किया और अन्ततः भागते हुए शनि के दोनों पैर तोड़ डाले। शनि विकलांग हो गए। उन्होंने शिव जी से प्रार्थना की। शिवजी प्रकट हुए और पिप्पलाद मुनि से बोले- शनि ने सृष्टि के नियमों का पालन किया है। उन्होंने श्रेष्ठ न्यायाधीश सदृश दण्ड दिया है। तुम्हारे पिता की मृत्यु पूर्वजन्म कृत पापों के परिणाम स्वरूप हुई है। इसमें शनि का कोई दोष नहीं है। शिवजी से जानकर पिप्पलाद मुनि ने शनि को क्षमा कर दिया। तब पिप्पलाद मुनि ने कहा- जो व्यक्ति इस कथा का ध्यान करते हुए पीपल के नीचे शनि देव की पूजा करेगा। उसके शनि जन्य कष्ट दूर हो जाएंगे। पिप्पलेश्वर महादेव की अर्चना शनि जनित कष्टों से मुक्ति दिलाती है। पीपल की उपासना शनिजन्य कष्टों से मुक्ति पाने के लिए की जाती है। यह सत्य है और अनुभूत है। आप शनि पीड़ा से पीड़ित हैं तो सात शनिश्चरी अमावास्या को या सात शनिवार पीपल की उपासना कर उसके नीचे सरसों के तेल का दीपक जलाएंगे तो आप कष्ट मुक्त हो जाएंगे। शनिवार को पीपल पर जल व तेल चढ़ाना, दीप जलाना, पूजा करना या परिक्रमा लगाना अति शुभ होता है। धर्मशास्त्रों में वर्णन है कि पीपल पूजा केवल शनिवार को ही करनी चाहिए। पुराणों में आई कथाओं के अनुसार ऐसा माना जाता है कि समुद्र मंथन के समय लक्ष्मीजी से पूर्व उनकी बडी बहन, अलक्ष्मी (ज्येष्ठा या दरिद्रा) उत्पन्न हुई, तत्पश्चात् लक्ष्मीजी। लक्ष्मीजी ने श्रीविष्णु का वरण कर लिया। इससे ज्येष्ठा नाराज़ हो गई। तब श्रीविष्णु ने उन अलक्ष्मी को अपने प्रिय वृक्ष और वास स्थान पीपल के वृक्ष में रहने का आदेश दिया और कहा कि यहाँ तुम आराधना करो। मैं समय-समय पर तुमसे मिलने आता रहूँगा एवं लक्ष्मीजी ने भी कहा कि मैं प्रत्येक शनिवार तुमसे मिलने पीपल वृक्ष पर आया करूँगी। शनिवार को श्रीविष्णु और लक्ष्मीजी पीपल वृक्ष के तने में निवास करते हैं। इसलिए शनिवार को पीपल वृक्ष की पूजा, दीपदान, जल व तेल चढाने और परिक्रमा लगाने से पुण्य की प्राप्त होती है और लक्ष्मी नारायण भगवान व शनिदेव की प्रसन्नता होती है जिससे कष्ट कम होते हैं और धन-धान्य की वृद्धि होती है। मां लक्ष्मी के परिवार में उनकी एक बड़ी बहन भी है जिसका नाम है दरिद्रा। इस संबंध में एक पौराणिक कथा है कि इन दोनों बहनों के पास रहने का कोई निश्चित स्थान नहीं था। इसलिये एक बार मां लक्ष्मी और उनकी बड़ी बहन दरिद्रा भगवान विष्णु के पास गईं और उनसे बोली, जगत के पालनहार कृपया हमें रहने का स्थान दो? पीपल को विष्णु भगवान से वरदान प्राप्त था कि जो व्यक्ति शनिवार को पीपल की पूजा करेगा, उसके घर का ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होगा अतः श्री विष्णु ने कहा, आप दोनों पीपल के वृक्ष पर वास करो। इस तरह वे दोनों बहनें पीपल के वृक्ष में रहने लगी। जब विष्णु भगवान ने मां लक्ष्मी से विवाह करना चाहा तो लक्ष्मी माता ने इंकार कर दिया क्योंकि उनकी बड़ी बहन दरिद्रा का विवाह नहीं हुआ था। उनके विवाह के उपरांत ही वह श्री विष्णु से विवाह कर सकती थी। अत: उन्होंने दरिद्रा से पूछा, वो कैसा वर पाना चाहती हैं, तो वह बोली कि, वह ऐसा पति चाहती हैं जो कभी पूजा-पाठ न करे व उसे ऐसे स्थान पर रखे जहां कोई भी पूजा-पाठ न करता हो। श्री विष्णु ने उनके लिए ऋषि नामक वर चुना और दोनों विवाह सूत्र में बंध गए। अब दरिद्रा की शर्तानुसार उन दोनों को ऐसे स्थान पर वास करना था जहां कोई भी धर्म कार्य न होता हो। ऋषि उसके लिए उसका मन भावन स्थान ढूंढने निकल पड़े लेकिन उन्हें कहीं पर भी ऐसा स्थान न मिला। दरिद्रा उनके इंतजार में विलाप करने लगी। श्री विष्णु ने पुन: लक्ष्मी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो लक्ष्मी जी बोली, जब तक मेरी बहन की गृहस्थी नहीं बसती मैं विवाह नहीं करूंगी। धरती पर ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां कोई धर्म कार्य न होता हो। उन्होंने अपने निवास स्थान पीपल को रविवार के लिए दरिद्रा व उसके पति को दे दिया। अत: हर रविवार पीपल के नीचे देवताओं का वास न होकर दरिद्रा का वास होता है। अत: इस दिन पीपल की पूजा वर्जित मानी जाती है। पीपल को विष्णु भगवान से वरदान प्राप्त है कि जो व्यक्ति शनिवार को पीपल की पूजा करेगा, उस पर लक्ष्मी की अपार कृपा रहेगी और उसके घर का ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होगा। इसी लोक विश्वास के आधार पर लोग पीपल के वृक्ष को काटने से आज भी डरते हैं, लेकिन यह भी बताया गया है कि यदि पीपल के वृक्ष को काटना बहुत जरूरी हो तो उसे रविवार को ही काटा जा सकता है।
[ पीपल को संस्कृत भाषा में पिप्पल:, अश्वत्थ:, हिन्दी में पीपली, पीपर और पीपल, गुजराती में पीप्पलो और पीपुलजरी व बांग्ला में अश्वत्थ, आशुदगाछ और असवट, पंजाबी में भोर और पीपल, मराठी में पिंगल, नेपाली में पिप्पली, अरबी में थजतुल-मुर्कअश, फ़ारसी में दरख्तेलस्भंग, बौद्ध साहित्य में बोधिवृक्ष और अंग्रेज़ी में सैकरेड फ़िग जैसे कई नामों से जाना जाता है।
[सम्पादन] पीपल के औषधीय गुण
भारतीय जड़ी बूटियां अपने गुणों में अद्धुत है। इनमें तथा पेड़-पौधों में परमात्मा ने दिव्य शक्तियां भर दी हैं। भारतीय वन संम्पदा के गुणों और रहस्यों को जानकर विश्व आश्चर्य चकित रह जाता है। भारतीय जड़ी बूटियों से मनुष्य का कायाकल्प हो सकता है। खोया हुआ स्वास्थ्य एवं यौवन पुनः लौट सकता है। भयंकर से भयंकर रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है तथा आयु को लम्बा किया जा स्कता है। आवश्यकता है, इनके गुणों का मनन-चिन्तन कर इनके उचित उपयोग की। पीपल के वृक्षों में अनेक औषधीय गुण हैं तथा इसके औषधीय गुणों को बहुत कम लोग जानते हैं। जो गुणी होता है, लोग उसका आदर करते ही हैं। लोग उसे पूजते हैं। भारत में उपलब्ध विविध वृक्षों में जितना अधिक धार्मिक एवं औषधीय महत्त्व पीपल का है, अन्य किसी वृक्ष का नहीं है। यही नहीं पीपल निरंतर दूषित गैसों का विषपान करता रहता है। ठीक वैसे ही जैसे शिव ने विषपान किया था। पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी वृक्षों में पीपल को प्राणवायु यानी ऑक्सीजन को शुद्ध करने वाले वृक्षों में सर्वोत्तम माना जा सकता है, पीपल ही एक ऐसा वृक्ष है, जो चौबीसों घंटे ऑक्सीजन देता है। जबकि अन्य वृक्ष रात को कार्बन-डाइ-आक्साइड या नाइट्रोजन छोड़ते है। इस वृक्ष का सबसे बड़ा उपयोग पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने में किया जा सकता है, क्योंकि यह प्राणवायु प्रदान कर वायुमण्डल को शुद्ध करता है और इसी गुणवत्ता के कारण भारतीय शास्त्रों ने इस वृक्ष को सम्मान दिया। पीपल के जितने ज़्यादा वृक्ष होंगे, वायुमण्डल उतना ही ज़्यादा शुद्ध होगा। पीपल के नीचे ली हुई श्वास ताजगी प्रदान करती है, बुद्धि तेज करती है। पीपल के नीचे रहने वाले लोग बुद्धिमान, निरोगी और दीर्घायु होते हैं। गांवों में प्रत्येक घर तथा मन्दिर के पास आपको पीपल या नीम का वृक्ष मिल जायेगा। पीपल पर्यावरण को शुद्ध करता है तथा नीम हमारा गृह चिकित्सक है। नीम से हमारी कितनी ही व्याधियां दूर हो जाती है। आज पर्यावरण को शुद्ध रखना हमारी प्राथमिकता है। सभी मौसम में पीपल का औषधि रूप समान रहता है। बच्चे से लेकर वृद्धों तक यह सभी के लिए लाभदायक है। आयुर्वेद में भी पीपल का कई औषधि के रूप में प्रयोग होता है। श्वास, तपेदिक, रक्त-पित्त विषदाह भूख बढ़ाने के लिए यह वरदान है। शास्त्रों में भी पीपल को बहुपयोगी माना गया है तथा उसको धार्मिक महत्त्व बनाकर उसको काटने का निषेध किया गया हमारे पूर्वजों की हमारे ऊपर यह विशेष कृपा है। इस प्रकार पीपल अपने धार्मिक औषधि एवं सामाजिक गुणों के कारण सभी के लिए वंदनीय है। पीपल न केवल एक पूजनीय वृक्ष है बल्कि इसके वृक्ष खाल, तना, पत्ते तथा बीज आयुर्वेद की अनुपम देन भी है। पीपल को निघन्टु शास्त्र ने ऐसी अजर अमर बूटी का नाम दिया है, जिसके सेवन से वात रोग, कफ रोग और पित्त रोग नष्ट होते हैं। संभवतः इतिज मासिक या गर्भाशय संबंधी स्त्री जनित रोगों में पीपल का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। पीपल की लंबी आयु के कारण ही बहुधा इसमें दाढ़ी निकल आती हैं। इस दाढ़ी का आयुर्वेद में शिशु माताजन्य रोग में अद्भुत प्रयोग होता है। पीपल की जड़, शाखाएं, पत्ते, फल, छाल व पत्ते तोड़ने पर डंठल से उत्पन्न स्राव या तने व शाखा से रिसते गोंद की बहुमूल्य उपयोगिता सिद्ध हुई है। पीपल रोगों का विनाश करता है। पीपल के औषधीय गुण का उल्लेख सुश्रुत संहिता, चरक संहिता में किया गया है। पीपल फेफड़ों के रोग जैसे तपेदिक, अस्थमा, खांसी तथा कुष्ठ, प्लेग, भगन्दर आदि रोगों पर बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ है। इसके अलावा रतौंधि, मलेरिया ज्वर, कान दर्द या बहरापन, खांसी, बांझपन, महिने की गड़बड़ी, सर्दी सरदर्द सभी में पीपल औषधि के रूप में प्रयोग होता है। पीपल का वृक्ष रक्तपित्त और कफ के रोगों को दूर करने वाला होता है। पीपल की छाया बहुत शीतल और सुखद होती है। इसके पत्ते कोमल, चिकने और हरे रंग के होते हैं जो आंखों को बहुत सुहावने लगते हैं। औषधि के रूप में इसके पत्र, त्वक्, फल, बीज और दुग्ध व लकड़ी आदि इसका प्रत्येक अंग और अंश हितकारी लाभकारी और गुणकारी होता है। सांप और बिच्छु का विष उतारने में पीपल की लकडिय़ों का प्रयोग होता है। पीपल को सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय माना जा सकता है। किसी भी रोग में पीपल के उपयोग से पूर्व किसी आयुर्वेदाचार्य या विशेषज्ञ से सलाह के बाद ही इसका उपयोग करें। पीपल वृक्ष के पके हुए फल हृदय रोगों को शीतलता और शांति देने वाले होते हैं। इसके साथ ही पित्त, रक्त और कफ के दोष को दूर करने वाले गुण भी इनमें निहित हैं। दाह, वमन, शोथ, अरूचि आदि रोगों में यह रामबाण है। पीपल का फल पाचक, आनुलोमिक, संकोच, विकास-प्रतिबंधक और रक्त शोषक है। पीपल के सूखे फल दमे के रोग को दूर करने में काफ़ी लाभकारी साबित हुआ है। महिलाओं में बांझपन को दूर करने और सन्तानोत्पत्ति में इसके फलों का सफल प्रयोग किया गया है। पीपल का दूध (क्षीर) अति शीघ्र रक्तशोधक, वेदनानाशक, शोषहर होता है। दूध का रंग सफ़ेद होता है। पीपल का दूध आंखों के अनेक रोगों को दूर करता है। पीपल के पत्ते या टहनी तोड़ने से जो दूध निकलता है उसे थोड़ी मात्रा में प्रतिदिन सलाई से लगाने पर आँखों के रोग जैसे पानी आना, मल बहना, फोला, आंखों में दर्द और आंखों की लाली आदि रोगों में आराम मिलता है। इसकी छाल का रस या दूध लगाने से पैरों की बिवाई ठीक हो जाती है। पीपल की छाल स्तम्भक, रक्त संग्राहक और पौष्टिक होती है। सुजाक में पीपल की छाल का उपयोग किया जाता है। इसके छाल के अंदर फोड़ों को पकाने के तत्व भी होते हैं। इसकी छाल के शीत निर्यास का इस्तेमाल गीली खुजली को दूर करने में भी किया जाता है। पीपल की छाल के चूर्ण का मरहम एक शोषक वस्तु के समान सूजन पर लगाया जाता है। इसकी ताजा जलाई हुई छाल की राख को पानी में घोलकर और उसके निथरे हुए जल को पिलाने से भयंकर हिचकी भी रूक जाती है। इसके छाल का चूर्ण भगन्दर रोग को भगाने में किया जाता है। श्रीलंका में तो इसके छाल का रस दांत मसूड़ों की दर्द को दूर करने में कुल्ले के रूप में किया जाता है। यूनानी मत में पीपल की छाल को कब्ज करने वाली माना गया है। इसकी ताजा छाल को जल में भिगोकर कमर में बांघने से ताकत आती है। यूनानी चिकित्सा में इसके छाल को वीर्य वर्धक माना गया है। इसका अर्क ख़ून को साफ़ करता है। इसकी छाल का क्वाथ पीने से पेशाब की जलन, पुराना सुजाक और हडडी की जलन मिटने की बात कही गयी है। पीपल की अन्तरछाल (छाल के अन्दर का भाग) निकालकर सुखा लें और कूट-पीसकर खूब महीन चूर्ण कर लें, यह चूर्ण दमा रोगी को देने से दमा में आराम मिलता है। पूर्णिमा की रात को खीर बनाकर उसमें यह चूर्ण बुरककर खीर को 4-5 घंटे चन्द्रमा की किरणों में रखें, इससे खीर में ऐसे औषधीय तत्व आ जाते हैं कि दमा रोगी को बहुत आराम मिलता है। इसके सेवन का समय पूर्णिमा की रात को माना जाता है। पीपल की छाल को जलाकर राख कर लें, इसे एक कप पानी में घोलकर रख दें, जब राख नीचे बैठ जाए, तब पानी नितारकर पिलाने से हिचकी आना बंद हो जाता है। मसूड़ों की सूजन दूर करने के लिए इसकी छाल के काढ़े से कुल्ले करें। पीपल के पत्ते आनुलोमिक होते हैं। पीपल के पत्तों को गर्म करके सूजन पर बाधने से कुछ ही दिनों में सूजन उतर आता है। खांसी के रोग में पीपल के पत्तों को छाया में सुखाकर कूट- छानकर समान भागकर मिसरी मिला लें तथा कीकर का गोंद मिलाकर चने के आकार समान गोली बना ले। दिनभर में दो से तीन गोलियां कुछ दिनों तक चूसें, खांसी में आराम मिलेगा। पीपल की ताजी हरी पत्तियों को निचोड़कर उसका रस कान में डालने से कान दर्द दूर होता है। कुछ समय तक इसके नियमित सेवन से कान का बहरापन भी जाता रहता है। पीपल के सूखे पत्ते को खूब कूटें। जब पाउडर सा बन जाए, तब उसे कपड़े से छान लें। लगभग 5 ग्राम चूर्ण को दो चम्मच मधु मिलाकर एक महीना सुबह चाटने से दमा और खांसी में लाभ होता है। सर्दी के सिरदर्द के लिए सिर्फ़ पीपल की दो-चार कोमल पत्तियों को चूसें। दो-तीन बार ऎसा करने से सर्दी जुकाम में लाभ होना संभव है। पीपल के 4-5 कोमल, नरम पत्ते खूब चबा-चबाकर खाने से, इसकी छाल का काढ़ा बनाकर आधा कप मात्रा में पीने से दाद, खाज, खुजली आदि चर्म रोगों में आराम होता है। इसके पत्तों को जलाकर राख कर लें, यह राख घावों पर बुरकने से घाव ठीक हो जाते हैं। पीपल की टहनियों में से दातुन बना लें। प्रतिदिन पीपल का दातुन करने से लाभ होता है। यदि आप पित्त प्रकृति के हैं तो यह दातुन आपको विशेषकर लाभकारी होगा। पीपल के दातुन से दांतों के रोगों जैसे दांतों में कीड़ा लगना, मसूड़ों में सूजन, पीप या ख़ून निकलना, दांतों के पीलापन, दांत हिलना आदि में लाभ देता है। पीपल का दातुन मुंह की दुर्गंध को दूर करता है और साथ ही साथ आंखों की रोशनी भी बढ़ती है। पीपल की टहनी का दातुन कई दिनों तक करने से तथा उसको चूसने से मलेरिया बुखार उतर जाता है। पीलिया के रोगी को पीपल की नर्म टहनी (जो की पेंसिल जैसी पतली हो) के छोटे-छोटे टुकड़े काटकर माला बना लें। यह माला पीलिया रोग के रोगी को एक सप्ताह धारण करवाने से पीलिया नष्ट हो जाता है। बहुत से लोगों को रात में दिखाई नहीं पड़ता। शाम का झुट-पुट फैलते ही आंखों के आगे अंधियारा सा छा जाता है। इसकी सहज औषधि है पीपल। पीपल की लकड़ी का एक टुकड़ा लेकर गोमूत्र के साथ उसे शिला पर पीसें। इसका अंजन दो-चार दिन आंखों में लगाने से रतौंधी में लाभ होता है। उपचार के लिए इसके उपयोग से पूर्व किसी विशेषज्ञ की सलाह ज़रूर लें। See More
[सम्पादन] ऐतिहासिक उल्लेख
कहा जाता है कि चाणक्य के समय में सर्प विष के खतरे को निष्प्रभावित करने के उद्देश्य से जगह – जगह पर पीपल के पत्ते रखे जाते थे। पानी को शुद्ध करने के लिए जलपात्रों में अथवा जलाशयों में ताजे पीपल के पत्ते डालने की प्रथा अति प्राचीन है। कुएं के समीप पीपल का उगना आज भी शुभ माना जाता है। सिन्धु घाटी की खुदाई से प्राप्त मोहन-जोदड़ो की एक मुद्रा में पीपल वासी देवता पत्तियों से घिरे हुए हैं। मुद्रा में ऊपर पांच मानव आकृतियां हैं। कतिपय विद्वान हड़प्पा सभ्यता को वैदिक नहीं मानते। मोहन-जोदड़ो की एक मुद्रा में पीपल पत्तियों के भीतर देवता हैं। हड़प्पा कालीन सिक्कों पर भी पीपल वृक्ष की आकृति देखनो को मिलती है। हड़प्पा मुद्रा की पांच मानव आकृतियां ऋग्वेद में वर्णित पांच जन हो सकती हैं। हड़प्पा सभ्यता में पीपल की छाया है और पीपल देवता हैं। [1]
[सम्पादन] धार्मिक मान्यता
भारतीय ग्रंथों एवं उपनिषदों में ऐसे बहुत से वृक्ष हैं, जो पवित्र और पूजनीय माने जाते हैं। इनकी पूजा श्रद्धा से की जाती है। इन वृक्षों में भी कुछ की पूजा गौणरूप से होती है और कुछ केवल पवित्र ही माने जाते हैं। प्राचीनकाल में जब लोगों का जीवन ही वृक्षों पर निर्भर था, तब वे वृक्षों का बहुत सम्मान करते थे, परंतु जब मनुष्य ने अपना बसेरा ईट-पत्थरों से बने घरों को बना लिया तब से वृक्षों के सम्मान और महत्त्व को हम भूलते गये। हिन्दुओं में पीपल, तुलसी, बेल आदि वृक्षों की पूजा की जाती है। कारण है उनका हमारे जीवन में अत्यधिक उपकार। अतः उनकी पूजा करके उनके प्रति हम अपनी कृतज्ञता का ज्ञापन करते हैं। हमारे जीवन में जिन प्राकृतिक तत्वों का अत्यधिक उपकार हैं, उनके प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित करना हमारा नैतिक दायित्व है।[2]
[सम्पादन] पीपल में भगवान और देवताओं का वास
भारतीय ग्रंथों में यज्ञों में समिधा के निमित्त पीपल, बरगद, गूलर और पाकर वृक्षों की काष्ठ को पवित्र माना गया है और कहा गया है ये चारों वृक्ष सूर्य की रश्मियों के घर हैं। इनमें पीपल सबसे पवित्र माना जाता है। इसकी सर्वाधिक पूजा होती है। क्योंकि इसके जड़ से लेकर पत्र तक में अनेक औषधीय गुण हैं। इसीलिए हमारे पूर्वज-ऋषियों ने उन गुणों को पहचान कर आम लोगों को समझाने के लिए उन्हीं की भाषा में कहा था इन वृक्षों में देवताओं का वास है तथा इसे देववृक्ष यानी देवताओं का वृक्ष माना गया है। यह किसी अंधविश्वास या आडंबर के चलते नहीं है बल्कि इसके अनेक दिव्य गुणों के चलते ही है। पीपल विष्णु, शिव तथा ब्रह्मा का एकीभूत रूप है। अतः उस को प्रणाम मात्र से ही समस्त देवता प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिए यह वृक्ष न केवल गाय, ब्राह्मण व देवता के समान पावन माना जाता है, बल्कि पूजनीय भी है। [2]
हमारे प्राचीन साहित्य में पीपल वृक्ष के महत्त्व का विस्तार से वर्णन किया गया है। पीपल अक्षय वृक्ष, पीपल को कभी क्षीण न होने वाला अक्षय वृक्ष माना गया है। जड़ से ऊपर तक का तना नारायण कहा गया है और ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही इसकी शाखाओं के रूप में स्थित है। पीपल के पत्ते संसार के प्राणियों के समान है। प्रत्येक वर्ष नए पत्ते निकलते हैं पतझड़ होता है, मिट जाते हैं, फिर नए पत्ते निकलते हैं, यही जन्म-मरण का चक्र है। पीपल के वृक्ष के नीचे गौतम बुद्ध को इस तथ्य का बोध हुआ था और वे बुद्ध कहलाये थे। महात्मा बुद्ध (भगवान बुद्ध) का बोध–निर्वाण पीपल की घनी छाया से जुड़ा हुआ है। इस वृक्ष के नीचे एकाग्रचित बैठकर देखें तो यह अनुभव होगा कि पत्तों के हिलने की ध्वनि एकाग्रचित्तता में सहायक होती है। पीपल से निरन्तर आक्सीजन का निकलना तथा पत्तों की आवाज़ हमारे चित्त को साधना में सहायक बनाती है। पीपल की छाया तप, साधना के लिए ऋषियों का प्रिय स्थल माना जाता था। पीपल की जड़ के निकट बैठ कर जो जप, दान, होम, स्तोत्र पाठ, ध्यान व अनुष्ठान किया जाता है, उनका फल अक्षय होता है। पीपल के नीचे किया गया दान अक्षय हो कर जन्म-जन्मान्तरों तक फलदाई होता है।[3] [सम्पादन] पीपल से जुड़ी भ्रांतियाँ
जन सामान्य में पीपल के संबंध में अनेक भ्रांतियाँ और अंध-विश्वास व्याप्त है। यह आम धारणा है कि पीपल के वृक्ष पर ब्रह्म राक्षस एवं भूत-प्रेतों का वास होता है। दाह-संस्कार के बाद जो अस्थियाँ चुनी जाती हैं उन्हें एक लाल कपडे में बाँध कर एक छोटी सी मटकी में रख पीपल के वृक्ष पर टांगने की प्रथा भी है। यह इसलिए कि विसर्जन के लिए चुनी गयी यह अस्थियाँ घर नहीं ले जायी जा सकती, अत: उन्हें पीपल के वृक्ष पर टांग दिया जाता है। इस कारण भी पीपल के विषय में अंध-विश्वास बढ़ा है। कर्म कांड में विश्वास रखने वाले लोगों की मान्यता है कि पीपल के वृक्ष पर ब्रह्मा का निवास होता है। मरणोत्तर क्रियाकर्म भी पीपल की छाँव में इसलिए किये जाते हैं कि प्रेतात्मा की शीघ्र ही मुक्ति हो और भगवान विष्णु के धाम बैकुण्ठ को चला जाये।
[सम्पादन] पीपल में पितरों का वास
पीपल में पितरों का वास भी माना गया है। विश्वास है कि पितृ-प्रकोप अर्थात पितरों की नाराज़गी के कारण भी कोई व्यक्ति जीवन में विकास नहीं कर पाता। पितरों को प्रसन्न करने के लिए इस विधि से पीपल की पूजा की जाये, तो तत्काल फल मिलता है। उनकी विधि इस प्रकार है- पीपल के नीचे संकल्प रविवार की रात्रि को भोजन के बाद पीपल की दातून से दांत साफ़ करे, फिर स्नान कर पूजन सामग्री लेकर पीपल के वृक्ष के नीचे जाएँ। जल लेकर संकल्प करें कि मै इस जन्म एवं पूरे जन्म के पापों के नाश के लिए यह पूजन कर रहा हूँ। फिर यह संकल्पित जल जड़ में छोड़ दें। गणेश पूजन कर पीपल वृक्ष को गंगाजल तथा पंचामृत से स्नान कराए और तने में कच्चा सूत लपेट कर, जनेऊ अर्पण करे। पुष्प आदि अर्पण कर आरती करे, नमस्कार कर वृक्ष की 108 बार परिक्रमा करे। प्रत्येक परिक्रमा पर वृक्ष को मिष्ठान अथवा एक फल अर्पित कर दीप जलाये। सोमवती अमावस्या पर इस तरह पीपल पूजन से तत्काल फल मिलता है। तंत्र मंत्र में पीपल तंत्र मंत्र की दुनिया में भी पीपल का बहुत महत्त्व है। इसे इच्छापूर्ति धनागमन संतान प्राप्ति हेतु तांत्रिक यंत्र के रूप में भी इसका प्रयोग होता है। सहस्त्रवार चक्र जाग्रत करने हेतु भी पीपल का महत्त्व अक्षुण्ण है। पीपल भारतीय संस्कृति में अक्षय ऊर्जा के स्रोत के रूप में विद्यमान है।
[सम्पादन] पौराणिक उल्लेख
स्कन्द पुराण में वर्णित है कि अश्वत्थ (पीपल) के मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में श्रीहरि और फलों में सभी देवताओं के साथ अच्युत सदैव निवास करते हैं। पीपल भगवान विष्णु का जीवन्त और पूर्णत: मूर्तिमान स्वरूप है। यह सभी अभीष्टों का साधक है। इसका आश्रय मानव के सभी पाप ताप का शमन करता है। भगवद्गीता में भी इसकी महानता का स्पष्ट उल्लेख है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम् (अर्थात् समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूं) कहकर पीपल को अपना स्वरूप बताया है। स्वयं भगवान ने उसे अपनी उपमा देकर पीपल के देवत्व और दिव्यत्व को व्यक्त किया है। इसलिए धर्मशास्त्रों में पीपल के पत्तों को तोडना, इसको काटना या मूल सहित उखाड़ना वर्जित माना गया है। अन्यथा देवों की अप्रसन्नता का परिणाम अहित होना है। जो व्यक्ति पीपल को काटता या हानि पहुंचाता है उसे एक कल्प तक नरक भोग कर चांडाल की योनी में जन्म लेना पड़ता है। शास्त्रों में वर्णित है कि अश्वत्थ: पूजितोयत्र पूजिता: सर्व देवता:। अर्थात् पीपल की सविधि पूजा-अर्चना करने से सम्पूर्ण देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं। अथर्ववेद में पीपल के पेड़ को देवताओं का निवास बताया गया है – अश्वत्थो देव सदन:। पीपल का वृ़क्ष आधुनिक भारत में भी देवरूप में पूजा जाता है। श्रीमद्भागवत् में वर्णित है कि द्वापर युग में परमधाम जाने से पूर्व योगेश्वर श्रीकृष्ण इस दिव्य पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान में लीन हुए थे। इसका प्रभाव तन-मन तक ही नहीं भाव जगत तक रहता है। अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों का अनेक असाध्य रोगों में उपयोग वर्णित है। पीपल एक ऐसा वृक्ष है, जो आदि काल से स्वर्ग लोक के वट वृक्ष के रूप में इस धरती पर ब्रह्मा जी के तप से उतरा है। श्रद्धालु पीपल के पेड़ को नमस्कार करते हैं और पीपल के हर पात में ब्रह्मा जी का निवास मानते हैं। पीपल का वृक्ष इसीलिए ब्रह्मस्थान है। इससे सात्विकता बढती है। विश्व-दर्शन में पीपल का महत्त्व है। गीता में इसे वृक्षों में श्रेष्ठ ’अश्वतथ्य’ को अथर्ववेद में लक्ष्मी, संतान व आयुदाता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। [3]
[सम्पादन] पीपल की पूजा-अर्चना से लाभ
प्रसिद्ध ग्रन्थ व्रतराज में अश्वत्थोपासना में पीपल वृक्ष की महिमा का उल्लेख है। इसमें अर्थवण ऋषि पिप्पलाद मुनि को बताते हैं कि प्राचीन काल में दैत्यों के अत्याचारों से पीड़ित समस्त देवता जब विष्णु के पास गए और उनसे कष्ट मुक्ति का उपाय पूछा, तब प्रभु ने उत्तर दिया – मैं अश्वत्थ के रूप में भूतल पर प्रत्यक्षत: विद्यमान हूं। आप सभी को सब प्रकार से पीपल वृक्ष की आराधना करनी चाहिए। इसके पूजन से यम लोक के दारुण दु:ख से मुक्ति मिलती है। अश्वत्थोपनयन व्रत में महर्षि शौनक वर्णित करते हैं कि मंगल मुहूर्त में पीपल के वृक्ष को लगाकर आठ वर्षो तक पुत्र की भांति उसका लालन-पालन करना चाहिए। इसके अनन्तर उपनयन संस्कार करके नित्य सम्यक् पूजा करने से अक्षय लक्ष्मी मिलती हैं। पीपल वृक्ष की नित्य तीन बार परिक्रमा करने और जल चढाने पर दरिद्रता, दु:ख और दुर्भाग्य का विनाश होता है। पीपल के दर्शन-पूजन से दीर्घायु तथा समृद्धि प्राप्त होती है। अश्वत्थ व्रत अनुष्ठान से कन्या अखण्ड सौभाग्य पाती है। शनि की साढ़े साती में पीपल के पूजन और परिक्रमा का विधान बताया गया है। अनुराधा नक्षत्र से युक्त शनिवार की अमावस्या को पीपल वृक्ष के पूजन और सात परिक्रमा करने से तथा काले तिल से युक्त सरसो तेल के दीपक को जलाकर छायादान से शनि की पीड़ा का शमन होता है। श्रावण मास में अमावस्या की समाप्ति पर पीपल वृक्ष के नीचे शनिवार के दिन हनुमान की पूजा करने से बड़े संकट से मुक्ति मिल जाती है। आदि शंकराचार्य ने पीपल की पूजा को जहां पर्यावरण की सुरक्षा से जोड़ा है, वहीं इसके पूजन से दैहिक, दैविक और भौतिक ताप दूर होने की बात भी कही है। महामुनि व्यास के अनुसार प्रात: स्नान के बाद पीपल का स्पर्श करने से व्यक्ति के समस्त पाप भस्म हो जाते हैं तथा लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। उसकी प्रदक्षिणा करने से आयु में वृद्धि होती है। अश्वत्थ वृक्ष को दूध, नैवेद्य, धूप-दीप, फल-फूल अर्पित करने से मनुष्य को समस्त सुख-वैभव की प्राप्ति होती है। पीपल में सभी तीर्थों का निवास माना गया है, इसिलिए मुंडन आदि संस्कार भी पीपल के नीचे करवाने का प्रचलन है। पीपल वृक्ष की प्रार्थना के लिए अश्वत्थस्तोत्र में दिया गया मंत्र है-
अश्वत्थ सुमहाभागसुभग प्रियदर्शन। इष्टकामांश्चमेदेहिशत्रुभ्यस्तुपराभवम्॥ आयु: प्रजांधनंधान्यंसौभाग्यंसर्व संपदं। देहिदेवि महावृक्षत्वामहंशरणंगत:॥ पौराणिक काल से ही पीपल को पवित्र और पूज्य मानने की आस्था रही है। संपूर्ण भारतवर्ष में पीपल से लोगों की आस्था जुड़ी है। श्रद्धा, आस्था, विश्वास और भक्ति का यह पेड़ वास्तव में बहुत शक्ति रखता है। पवित्र और पूज्य पीपल का पेड़ बहुत परोपकारी गुणों से भरा होता है। शास्त्रों के अनुसार, जो लोग अश्वत्थ वृक्ष की पूजा वैशाख माह में करते हैं और जल भी अर्पित करते हैं, उनका जीवन पाप मुक्त हो जाता है। पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परम्परा कभी विनष्ट नहीं होती। पीपल की सेवा करने वाले सद्गति प्राप्त करते हैं। कहा जाता है कि इसकी परिक्रमा मात्र से हर रोग नाशक शक्तिदाता पीपल मनोवांछित फल प्रदान करता है। पीपल को रोपने से धन, रक्षा करने से पुत्र, स्पर्श करने से स्वर्ग एवम पूजने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। रात में पीपल की पूजा को निषिद्ध माना गया है। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि रात्रि में पीपल पर दरिद्रता बसती है और सूर्योदय के बाद पीपल पर लक्ष्मी का वास माना गया है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी पीपल का महत्त्व है। पीपल ही एकमात्र ऎसा वृक्ष है जो रात-दिन ऑक्सीजन देता है। गंधर्वों, अप्सराओं, यक्षिणी, भूत – प्रेतात्माओं का निवास स्थल, जातक कथाओं, पंचतंत्र की विविध कथाओं का घटना स्थल तपस्वियों का आहार स्थल होने के कारण पीपल का माहात्म्य दुगुना हो जाता है। आज के इस दूषित पर्यावरण में इस कल्प वृक्ष का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। अतः हमें अपने धरम ग्रंथों के अनुसार चलते हुए अधिक से अधिक पीपल के पेड़ लगाने चाहिए तथा उनकी श्रद्धा पूर्वक पूजा अर्चना करनी चाहिए।
[सम्पादन] पीपल का महत्त्व
पीपल वृक्ष पर बैठे दो पक्षियों का प्रतीक और दर्शन ऋग्वेद, अथर्ववेद व मुण्डकोपनिषद में एक साथ ज्यों के त्यों मौजूद हैं। कहते हैं कि ‘पीपल वृक्ष पर दो पक्षी (सुपर्णा) हैं। वे अंतरंग मित्र हैं। इनमें एक पीपल का स्वादष्टि फल खाता है और दूसरा सिर्फ़ देखता है।’ यहां पीपल का फल सांसारिक आनंद का पर्याय है। संसार स्वादष्टि भोग है। इसके भोग कर्मफल हैं। भोगों में डूबना बंधन है। साक्षी भाव या निर्लिप्त मनोदशा साधना है। देखना भी बांधता है, देखा गया दृश्य आंखों के माध्यम से मन बुद्धि पर जाता है। बुद्धि अपना पराया देखती है। अपनत्व बंधन है, परायापन और भी बांधता है। विश्वास आस्था बनता है। अविश्वास भी आस्था है कि हम ऐसा नहीं मानते। विश्वास ‘हां’ के साथ दृढ़ता है और अविश्वास ‘नहीं’ के साथ आस्था है। द्रष्टापन हां और नहीं के परे की भावभूमि है। वैदिक ऋषियों ने देखने की इस शैली को ‘द्रष्टापन’ कहा। वैदिक ऋषि ‘मंत्र द्रष्टा’ हैं। उन्होंने निर्लिप्त देखा इसलिए द्रष्टा। उन्होंने द्रष्टापन को बोली, भाषा और छन्द दिये इसलिए वे मंत्र रचयिता भी हैं। लेकिन ध्यान देने योग्य बात है पीपल का पेड़। आखिरकार द्रष्टापन की यह घटना पीपल से ही क्यों जुड़ी? कठोपनिषद् दर्शन ग्रन्थ है। यहां जिज्ञासु नचिकेता के प्रश्न हैं, यमराज के उत्तर हैं। यम नियमों का पालन कराते हैं, दंडित करते हैं। वे नियमविद् हैं। यम ने बताया ‘सनातन पीपल वृक्ष की जड़े ऊपर हैं, शाखाएँ नीचे हैं। गीता में भी ठीक ऐसा ही ऊपर की जड़ों और नीचे की शाखाओं वाले पीपल का वर्णन है। यहां यम की जगह श्रीकृष्ण व्याख्याता हैं। कहते हैं ‘जो इसे जान लेता है सम्पूर्ण ज्ञानी हो जाता है।’ कृष्ण पीपल की महत्ता और लोकआस्था से सुपरिचित है। वे सभी वृ़क्षों में स्वयं को ‘पीपल’ (अश्वत्थ) बताते हैं – अश्वत्थ सर्ववृक्षाणां। लेकिन उल्टा लटका पीपल प्रतीक दिलचस्प है। संसार पीपल की शाखाएँ हैं, पत्तियां हैं। इसकी जड़ें ऊपर है। ऋग्वेद में आकाश पिता हैं, और धरती माता। माता हमारा अंग है, हम मां का विकसित अंग हैं। वैदिक दर्शन दोनों को एक साथ एक जगह लाकर एकात्म करता है। असली बात है जड़, मूल, उत्स, मुख्य केन्द्र।[4]
[सम्पादन] वैज्ञानिक महत्ता
मनुष्य की जड़ें भी मस्तिष्क में ऊपर हैं। नीचे शाखाएं हैं। मस्तिष्क केन्द्र से ही नाड़ी तंत्र बोध तंत्र का विकास है। ऋग्वेद की देवशक्तियां भी ऊपर हैं, ऋषि कहते है ‘ऋचोअक्षरे परम व्योमन’ ऋचा–मन्त्र परमव्योम से आते हैं। यहां दिव्य-शक्तियां रहती है। जो यह बात नहीं जानते, मन्त्रों ऋचाओं से वे क्या पाएंगे। शिव विषपायी हैं। लेकिन ‘महामृत्युंजय’ हैं। वशिष्ठ के देखे रचे ऋग्वेद के ‘त्रयंबकं यजामहे’ का नाम महामृत्युंजय पड़ा। इस मन्त्र में मृर्त्योमुक्षीय मा अमृतात- मृत्युबंधन से मुक्ति और अमृत्व की कामना है। पीपल देव भी कार्बन डाईआक्साइड नामक विष पीते हैं और आक्सीजन नामक अमृत देते है। शिव और पीपल का स्वभाव एक है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार वृक्ष शिवरूप है। यजुर्वेद में रुद्र असंख्य है। वृक्ष वनस्पतियां भी असंख्य है। यजुर्वेद का 16वां अध्याय शिव आराधना है। यहां शिव वृक्षों और वनस्पतियों के अधिष्ठाता हैं। सभी वनस्पतियां विषपायी हैं- कार्बन डाईआक्साइड पीती हैं, आक्सीजन देती हैं। लेकिन पीपल की बात ही दूसरी है, यह 24 घंटे आक्सीजन देता है। ग्लोबल वार्मिंग से विश्व बेचैन है। ओज़ोन परत नष्ट हो जाने की आशंकाएँ हैं। पीपल अब पूज्य देवता नहीं रहे। ऋग्वेद के ऋषियों ने हज़ारों वर्ष पहले ‘वृक्षों, वनस्पतियों को संरक्षक देव बताया था कि इनसे कल्याण है, इनका त्याग विनाश है।[4]
गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी का गुण है और ऊर्ध्वाकर्षण देवताओं का। पृथ्वी सभी वस्तुओं को नीचे की ओर खींचती है, यही गुरुत्वाकर्षण है। देवता सभी वस्तुओं को ऊपर की ओर खींचते है, इसका प्रतिफल प्रसाद है। संसारी संलिप्तता ‘विषाद’ है, देव अनुकम्पा ‘प्रसाद’ है। प्रसाद ऊपर खींचता है, विषाद नीचे गिराता है। पीपल सहित सभी वृक्षों में प्रसाद गुण है। सभी वृक्ष ऊपर उठते हैं, आकाश चूमने को लालायित रहते हैं। वे ऊर्ध्व अभीप्सु हैं। इसी अभीप्सा में वे आक्सीजन देते हैं, फूल देते हैं और फल देते हैं। आक्सीजन, फूल और फल प्रसाद हैं। लेकिन नीचे हैं, इनका स्रोत (जड़ें) ऊपर हैं। पीपल का पेड़ दर्शन में है, विश्व के प्राचीनतम ज्ञानकोष ऋग्वेद में देव रूप में है, उसके बाद यजुर्वेद में है, यज्ञ में है और देव रूप है। फिर अथर्ववेद में वह देवों का निवास है। वह उपनिषद साहित्य में है। वह बौद्ध पंथ अनुयायियों की आस्था है। वह हड़प्पा सभ्यता में है। वह वाल्मीकि रामायण में है। वह महाभारत में है, गीता में है, प्राक् ऋग्वैदिक काल अनादि है, ऋग्वैदिक काल और हड़प्पा इत्यादि है। वह आधुनिक विज्ञान में विश्व का अनूठा वृक्ष है। वह भव्य है, लोकमंगलकारी है, अमंगलहारी है। वह दिव्य है, उपास्य है, संरक्षक है, संरक्षण है। वह उपास्य है, नमस्कार के योग्य है और आराध्य देव है। वह सृष्टि की अनूठी सर्जना है। लोकमन ने इसीलिए उसे देवता जाना और पूजा भी है।[4]
[सम्पादन] पीपल की पूजा से जुड़ी कथाएँ एक बार अगस्त्य ऋषि तीर्थयात्रा के उद्देश्य से दक्षिण दिशा में अपने शिष्यों के साथ गोमती नदी के तट पर पहुंचे और सत्रयाग की दीक्षा लेकर एक वर्ष तक यज्ञ करते रहे। उस समय स्वर्ग पर राक्षसों का राज था। कैटभ नामक राक्षस अश्वत्थ और पीपल वृक्ष का रूप धारण करके ब्राह्मणों द्वारा आयोजित यज्ञ को नष्ट कर देता था। जब कोई ब्राह्मण इन वृक्षों की समिधा के लिए टहनियां तोड़ने वृक्षों के पास जाता तो यह राक्षस उसे खा जाता और ऋषियों का पता भी नहीं चलता। धीरे-धीरे ऋषि कुमारों की संख्या कम होने लगी। तब दक्षिण तीर पर तपस्या रत मुनिगण सूर्य पुत्र शनि के पास गए और उन्हें अपनी समस्या बतायी। शनि ने विप्र का रूप धारण किया और पीपल के वृक्ष की प्रदक्षिणा करने लगा। अश्वत्थ राक्षस उसे साधारण विप्र समझकर निगल गया। शनि अश्वत्थ राक्षस के पेट में घूमकर उसकी आंतों को फाड़कर बाहर निकल आये। शनि ने यही हाल पीपल नामक राक्षस का किया। दोनों राक्षस नष्ट हो गए। ऋषियों ने शनि का स्तवन कर उसे खूब आशीर्वाद दिया। तब शनि ने प्रसन्न होकर कहा – अब आप निर्भय हो जाओ। मेरा वरदान है कि जो भी व्यक्ति शनिवार के दिन पीपल के समीप आकर स्नान, ध्यान व हवन व पूजा करेगा और प्रदक्षिणा कर जल से सींचेगा, साथ में सरसों के तेल का दीपक जलाएगा तो वह ग्रह जन्य पीड़ा से मुक्त हो जाएगा। शनि के उक्त वरदान के बाद भारत में पीपल की पूजा-अर्चना होने लगी। अमावस के शनिवार को उस पीपल पर जिसके नीचे हनुमान स्थापित हों, जाकर दर्शन व पूजा करने से शनि-जन्य दोषों से मुक्ति मिलती है। ग्रह शान्ति की प्रक्रिया में बृहस्पति की प्रसन्नता हेतु पीपल समिधाओं की घृत के साथ यज्ञ में आहुति दी जाती है। सामान्यतः बिना नागा प्रतिदिन पीपल के वृक्ष की जड़ पर जल चढ़ाने से या उसकी सेवा करने से बृहस्पति देव प्रसन्न होते हैं और मनोकांक्षा पूर्ण करते हैं। अत: पीपल जीवन दाता वृक्ष और बृहस्पति भी जीव प्रदाता है। एक कथा और प्रचलित है। पिप्पलाद मुनि के पिता का बाल्यावस्था में ही देहान्त हो गया था। यमुना नदी के तट पर पीपल की छाया में तपस्यारत पिता की अकाल मृत्यु का कारण शनिजन्य पीड़ा थी। उनकी माता ने उसे अपने पति की मृत्यु का एकमात्र कारण शनि का प्रकोप बताया। मुनि पिप्पलाद जब वयस्क हुए। उनकी तपस्या पूर्ण हो गई तब माता से सारे तथ्य जानकर पितृहन्ता शनि के प्रति पिप्पलाद का क्रोध भड़क उठा। उन्होंने तीनों लोकों में शनि को ढूंढना प्रारम्भ कर दिया। एक दिन अकस्मात पीपल वृक्ष पर शनि के दर्शन हो गए। मुनि ने तुरन्त ब्रह्मदण्ड उठाया और उसका प्रहार शनि पर कर दिया। शनि यह भीषण प्रहार सहन करने में असमर्थ थे। वे भागने लगे। ब्रह्मदण्ड ने उनका तीनों लोकों में पीछा किया और अन्ततः भागते हुए शनि के दोनों पैर तोड़ डाले। शनि विकलांग हो गए। उन्होंने शिव जी से प्रार्थना की। शिवजी प्रकट हुए और पिप्पलाद मुनि से बोले- शनि ने सृष्टि के नियमों का पालन किया है। उन्होंने श्रेष्ठ न्यायाधीश सदृश दण्ड दिया है। तुम्हारे पिता की मृत्यु पूर्वजन्म कृत पापों के परिणाम स्वरूप हुई है। इसमें शनि का कोई दोष नहीं है। शिवजी से जानकर पिप्पलाद मुनि ने शनि को क्षमा कर दिया। तब पिप्पलाद मुनि ने कहा- जो व्यक्ति इस कथा का ध्यान करते हुए पीपल के नीचे शनि देव की पूजा करेगा। उसके शनि जन्य कष्ट दूर हो जाएंगे। पिप्पलेश्वर महादेव की अर्चना शनि जनित कष्टों से मुक्ति दिलाती है। पीपल की उपासना शनिजन्य कष्टों से मुक्ति पाने के लिए की जाती है। यह सत्य है और अनुभूत है। आप शनि पीड़ा से पीड़ित हैं तो सात शनिश्चरी अमावास्या को या सात शनिवार पीपल की उपासना कर उसके नीचे सरसों के तेल का दीपक जलाएंगे तो आप कष्ट मुक्त हो जाएंगे। शनिवार को पीपल पर जल व तेल चढ़ाना, दीप जलाना, पूजा करना या परिक्रमा लगाना अति शुभ होता है। धर्मशास्त्रों में वर्णन है कि पीपल पूजा केवल शनिवार को ही करनी चाहिए। पुराणों में आई कथाओं के अनुसार ऐसा माना जाता है कि समुद्र मंथन के समय लक्ष्मीजी से पूर्व उनकी बडी बहन, अलक्ष्मी (ज्येष्ठा या दरिद्रा) उत्पन्न हुई, तत्पश्चात् लक्ष्मीजी। लक्ष्मीजी ने श्रीविष्णु का वरण कर लिया। इससे ज्येष्ठा नाराज़ हो गई। तब श्रीविष्णु ने उन अलक्ष्मी को अपने प्रिय वृक्ष और वास स्थान पीपल के वृक्ष में रहने का आदेश दिया और कहा कि यहाँ तुम आराधना करो। मैं समय-समय पर तुमसे मिलने आता रहूँगा एवं लक्ष्मीजी ने भी कहा कि मैं प्रत्येक शनिवार तुमसे मिलने पीपल वृक्ष पर आया करूँगी। शनिवार को श्रीविष्णु और लक्ष्मीजी पीपल वृक्ष के तने में निवास करते हैं। इसलिए शनिवार को पीपल वृक्ष की पूजा, दीपदान, जल व तेल चढाने और परिक्रमा लगाने से पुण्य की प्राप्त होती है और लक्ष्मी नारायण भगवान व शनिदेव की प्रसन्नता होती है जिससे कष्ट कम होते हैं और धन-धान्य की वृद्धि होती है। मां लक्ष्मी के परिवार में उनकी एक बड़ी बहन भी है जिसका नाम है दरिद्रा। इस संबंध में एक पौराणिक कथा है कि इन दोनों बहनों के पास रहने का कोई निश्चित स्थान नहीं था। इसलिये एक बार मां लक्ष्मी और उनकी बड़ी बहन दरिद्रा भगवान विष्णु के पास गईं और उनसे बोली, जगत के पालनहार कृपया हमें रहने का स्थान दो? पीपल को विष्णु भगवान से वरदान प्राप्त था कि जो व्यक्ति शनिवार को पीपल की पूजा करेगा, उसके घर का ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होगा अतः श्री विष्णु ने कहा, आप दोनों पीपल के वृक्ष पर वास करो। इस तरह वे दोनों बहनें पीपल के वृक्ष में रहने लगी। जब विष्णु भगवान ने मां लक्ष्मी से विवाह करना चाहा तो लक्ष्मी माता ने इंकार कर दिया क्योंकि उनकी बड़ी बहन दरिद्रा का विवाह नहीं हुआ था। उनके विवाह के उपरांत ही वह श्री विष्णु से विवाह कर सकती थी। अत: उन्होंने दरिद्रा से पूछा, वो कैसा वर पाना चाहती हैं, तो वह बोली कि, वह ऐसा पति चाहती हैं जो कभी पूजा-पाठ न करे व उसे ऐसे स्थान पर रखे जहां कोई भी पूजा-पाठ न करता हो। श्री विष्णु ने उनके लिए ऋषि नामक वर चुना और दोनों विवाह सूत्र में बंध गए। अब दरिद्रा की शर्तानुसार उन दोनों को ऐसे स्थान पर वास करना था जहां कोई भी धर्म कार्य न होता हो। ऋषि उसके लिए उसका मन भावन स्थान ढूंढने निकल पड़े लेकिन उन्हें कहीं पर भी ऐसा स्थान न मिला। दरिद्रा उनके इंतजार में विलाप करने लगी। श्री विष्णु ने पुन: लक्ष्मी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो लक्ष्मी जी बोली, जब तक मेरी बहन की गृहस्थी नहीं बसती मैं विवाह नहीं करूंगी। धरती पर ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां कोई धर्म कार्य न होता हो। उन्होंने अपने निवास स्थान पीपल को रविवार के लिए दरिद्रा व उसके पति को दे दिया। अत: हर रविवार पीपल के नीचे देवताओं का वास न होकर दरिद्रा का वास होता है। अत: इस दिन पीपल की पूजा वर्जित मानी जाती है। पीपल को विष्णु भगवान से वरदान प्राप्त है कि जो व्यक्ति शनिवार को पीपल की पूजा करेगा, उस पर लक्ष्मी की अपार कृपा रहेगी और उसके घर का ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होगा। इसी लोक विश्वास के आधार पर लोग पीपल के वृक्ष को काटने से आज भी डरते हैं, लेकिन यह भी बताया गया है कि यदि पीपल के वृक्ष को काटना बहुत जरूरी हो तो उसे रविवार को ही काटा जा सकता है।
[ पीपल को संस्कृत भाषा में पिप्पल:, अश्वत्थ:, हिन्दी में पीपली, पीपर और पीपल, गुजराती में पीप्पलो और पीपुलजरी व बांग्ला में अश्वत्थ, आशुदगाछ और असवट, पंजाबी में भोर और पीपल, मराठी में पिंगल, नेपाली में पिप्पली, अरबी में थजतुल-मुर्कअश, फ़ारसी में दरख्तेलस्भंग, बौद्ध साहित्य में बोधिवृक्ष और अंग्रेज़ी में सैकरेड फ़िग जैसे कई नामों से जाना जाता है।
[सम्पादन] पीपल के औषधीय गुण
भारतीय जड़ी बूटियां अपने गुणों में अद्धुत है। इनमें तथा पेड़-पौधों में परमात्मा ने दिव्य शक्तियां भर दी हैं। भारतीय वन संम्पदा के गुणों और रहस्यों को जानकर विश्व आश्चर्य चकित रह जाता है। भारतीय जड़ी बूटियों से मनुष्य का कायाकल्प हो सकता है। खोया हुआ स्वास्थ्य एवं यौवन पुनः लौट सकता है। भयंकर से भयंकर रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है तथा आयु को लम्बा किया जा स्कता है। आवश्यकता है, इनके गुणों का मनन-चिन्तन कर इनके उचित उपयोग की। पीपल के वृक्षों में अनेक औषधीय गुण हैं तथा इसके औषधीय गुणों को बहुत कम लोग जानते हैं। जो गुणी होता है, लोग उसका आदर करते ही हैं। लोग उसे पूजते हैं। भारत में उपलब्ध विविध वृक्षों में जितना अधिक धार्मिक एवं औषधीय महत्त्व पीपल का है, अन्य किसी वृक्ष का नहीं है। यही नहीं पीपल निरंतर दूषित गैसों का विषपान करता रहता है। ठीक वैसे ही जैसे शिव ने विषपान किया था। पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी वृक्षों में पीपल को प्राणवायु यानी ऑक्सीजन को शुद्ध करने वाले वृक्षों में सर्वोत्तम माना जा सकता है, पीपल ही एक ऐसा वृक्ष है, जो चौबीसों घंटे ऑक्सीजन देता है। जबकि अन्य वृक्ष रात को कार्बन-डाइ-आक्साइड या नाइट्रोजन छोड़ते है। इस वृक्ष का सबसे बड़ा उपयोग पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने में किया जा सकता है, क्योंकि यह प्राणवायु प्रदान कर वायुमण्डल को शुद्ध करता है और इसी गुणवत्ता के कारण भारतीय शास्त्रों ने इस वृक्ष को सम्मान दिया। पीपल के जितने ज़्यादा वृक्ष होंगे, वायुमण्डल उतना ही ज़्यादा शुद्ध होगा। पीपल के नीचे ली हुई श्वास ताजगी प्रदान करती है, बुद्धि तेज करती है। पीपल के नीचे रहने वाले लोग बुद्धिमान, निरोगी और दीर्घायु होते हैं। गांवों में प्रत्येक घर तथा मन्दिर के पास आपको पीपल या नीम का वृक्ष मिल जायेगा। पीपल पर्यावरण को शुद्ध करता है तथा नीम हमारा गृह चिकित्सक है। नीम से हमारी कितनी ही व्याधियां दूर हो जाती है। आज पर्यावरण को शुद्ध रखना हमारी प्राथमिकता है। सभी मौसम में पीपल का औषधि रूप समान रहता है। बच्चे से लेकर वृद्धों तक यह सभी के लिए लाभदायक है। आयुर्वेद में भी पीपल का कई औषधि के रूप में प्रयोग होता है। श्वास, तपेदिक, रक्त-पित्त विषदाह भूख बढ़ाने के लिए यह वरदान है। शास्त्रों में भी पीपल को बहुपयोगी माना गया है तथा उसको धार्मिक महत्त्व बनाकर उसको काटने का निषेध किया गया हमारे पूर्वजों की हमारे ऊपर यह विशेष कृपा है। इस प्रकार पीपल अपने धार्मिक औषधि एवं सामाजिक गुणों के कारण सभी के लिए वंदनीय है। पीपल न केवल एक पूजनीय वृक्ष है बल्कि इसके वृक्ष खाल, तना, पत्ते तथा बीज आयुर्वेद की अनुपम देन भी है। पीपल को निघन्टु शास्त्र ने ऐसी अजर अमर बूटी का नाम दिया है, जिसके सेवन से वात रोग, कफ रोग और पित्त रोग नष्ट होते हैं। संभवतः इतिज मासिक या गर्भाशय संबंधी स्त्री जनित रोगों में पीपल का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। पीपल की लंबी आयु के कारण ही बहुधा इसमें दाढ़ी निकल आती हैं। इस दाढ़ी का आयुर्वेद में शिशु माताजन्य रोग में अद्भुत प्रयोग होता है। पीपल की जड़, शाखाएं, पत्ते, फल, छाल व पत्ते तोड़ने पर डंठल से उत्पन्न स्राव या तने व शाखा से रिसते गोंद की बहुमूल्य उपयोगिता सिद्ध हुई है। पीपल रोगों का विनाश करता है। पीपल के औषधीय गुण का उल्लेख सुश्रुत संहिता, चरक संहिता में किया गया है। पीपल फेफड़ों के रोग जैसे तपेदिक, अस्थमा, खांसी तथा कुष्ठ, प्लेग, भगन्दर आदि रोगों पर बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ है। इसके अलावा रतौंधि, मलेरिया ज्वर, कान दर्द या बहरापन, खांसी, बांझपन, महिने की गड़बड़ी, सर्दी सरदर्द सभी में पीपल औषधि के रूप में प्रयोग होता है। पीपल का वृक्ष रक्तपित्त और कफ के रोगों को दूर करने वाला होता है। पीपल की छाया बहुत शीतल और सुखद होती है। इसके पत्ते कोमल, चिकने और हरे रंग के होते हैं जो आंखों को बहुत सुहावने लगते हैं। औषधि के रूप में इसके पत्र, त्वक्, फल, बीज और दुग्ध व लकड़ी आदि इसका प्रत्येक अंग और अंश हितकारी लाभकारी और गुणकारी होता है। सांप और बिच्छु का विष उतारने में पीपल की लकडिय़ों का प्रयोग होता है। पीपल को सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय माना जा सकता है। किसी भी रोग में पीपल के उपयोग से पूर्व किसी आयुर्वेदाचार्य या विशेषज्ञ से सलाह के बाद ही इसका उपयोग करें। पीपल वृक्ष के पके हुए फल हृदय रोगों को शीतलता और शांति देने वाले होते हैं। इसके साथ ही पित्त, रक्त और कफ के दोष को दूर करने वाले गुण भी इनमें निहित हैं। दाह, वमन, शोथ, अरूचि आदि रोगों में यह रामबाण है। पीपल का फल पाचक, आनुलोमिक, संकोच, विकास-प्रतिबंधक और रक्त शोषक है। पीपल के सूखे फल दमे के रोग को दूर करने में काफ़ी लाभकारी साबित हुआ है। महिलाओं में बांझपन को दूर करने और सन्तानोत्पत्ति में इसके फलों का सफल प्रयोग किया गया है। पीपल का दूध (क्षीर) अति शीघ्र रक्तशोधक, वेदनानाशक, शोषहर होता है। दूध का रंग सफ़ेद होता है। पीपल का दूध आंखों के अनेक रोगों को दूर करता है। पीपल के पत्ते या टहनी तोड़ने से जो दूध निकलता है उसे थोड़ी मात्रा में प्रतिदिन सलाई से लगाने पर आँखों के रोग जैसे पानी आना, मल बहना, फोला, आंखों में दर्द और आंखों की लाली आदि रोगों में आराम मिलता है। इसकी छाल का रस या दूध लगाने से पैरों की बिवाई ठीक हो जाती है। पीपल की छाल स्तम्भक, रक्त संग्राहक और पौष्टिक होती है। सुजाक में पीपल की छाल का उपयोग किया जाता है। इसके छाल के अंदर फोड़ों को पकाने के तत्व भी होते हैं। इसकी छाल के शीत निर्यास का इस्तेमाल गीली खुजली को दूर करने में भी किया जाता है। पीपल की छाल के चूर्ण का मरहम एक शोषक वस्तु के समान सूजन पर लगाया जाता है। इसकी ताजा जलाई हुई छाल की राख को पानी में घोलकर और उसके निथरे हुए जल को पिलाने से भयंकर हिचकी भी रूक जाती है। इसके छाल का चूर्ण भगन्दर रोग को भगाने में किया जाता है। श्रीलंका में तो इसके छाल का रस दांत मसूड़ों की दर्द को दूर करने में कुल्ले के रूप में किया जाता है। यूनानी मत में पीपल की छाल को कब्ज करने वाली माना गया है। इसकी ताजा छाल को जल में भिगोकर कमर में बांघने से ताकत आती है। यूनानी चिकित्सा में इसके छाल को वीर्य वर्धक माना गया है। इसका अर्क ख़ून को साफ़ करता है। इसकी छाल का क्वाथ पीने से पेशाब की जलन, पुराना सुजाक और हडडी की जलन मिटने की बात कही गयी है। पीपल की अन्तरछाल (छाल के अन्दर का भाग) निकालकर सुखा लें और कूट-पीसकर खूब महीन चूर्ण कर लें, यह चूर्ण दमा रोगी को देने से दमा में आराम मिलता है। पूर्णिमा की रात को खीर बनाकर उसमें यह चूर्ण बुरककर खीर को 4-5 घंटे चन्द्रमा की किरणों में रखें, इससे खीर में ऐसे औषधीय तत्व आ जाते हैं कि दमा रोगी को बहुत आराम मिलता है। इसके सेवन का समय पूर्णिमा की रात को माना जाता है। पीपल की छाल को जलाकर राख कर लें, इसे एक कप पानी में घोलकर रख दें, जब राख नीचे बैठ जाए, तब पानी नितारकर पिलाने से हिचकी आना बंद हो जाता है। मसूड़ों की सूजन दूर करने के लिए इसकी छाल के काढ़े से कुल्ले करें। पीपल के पत्ते आनुलोमिक होते हैं। पीपल के पत्तों को गर्म करके सूजन पर बाधने से कुछ ही दिनों में सूजन उतर आता है। खांसी के रोग में पीपल के पत्तों को छाया में सुखाकर कूट- छानकर समान भागकर मिसरी मिला लें तथा कीकर का गोंद मिलाकर चने के आकार समान गोली बना ले। दिनभर में दो से तीन गोलियां कुछ दिनों तक चूसें, खांसी में आराम मिलेगा। पीपल की ताजी हरी पत्तियों को निचोड़कर उसका रस कान में डालने से कान दर्द दूर होता है। कुछ समय तक इसके नियमित सेवन से कान का बहरापन भी जाता रहता है। पीपल के सूखे पत्ते को खूब कूटें। जब पाउडर सा बन जाए, तब उसे कपड़े से छान लें। लगभग 5 ग्राम चूर्ण को दो चम्मच मधु मिलाकर एक महीना सुबह चाटने से दमा और खांसी में लाभ होता है। सर्दी के सिरदर्द के लिए सिर्फ़ पीपल की दो-चार कोमल पत्तियों को चूसें। दो-तीन बार ऎसा करने से सर्दी जुकाम में लाभ होना संभव है। पीपल के 4-5 कोमल, नरम पत्ते खूब चबा-चबाकर खाने से, इसकी छाल का काढ़ा बनाकर आधा कप मात्रा में पीने से दाद, खाज, खुजली आदि चर्म रोगों में आराम होता है। इसके पत्तों को जलाकर राख कर लें, यह राख घावों पर बुरकने से घाव ठीक हो जाते हैं। पीपल की टहनियों में से दातुन बना लें। प्रतिदिन पीपल का दातुन करने से लाभ होता है। यदि आप पित्त प्रकृति के हैं तो यह दातुन आपको विशेषकर लाभकारी होगा। पीपल के दातुन से दांतों के रोगों जैसे दांतों में कीड़ा लगना, मसूड़ों में सूजन, पीप या ख़ून निकलना, दांतों के पीलापन, दांत हिलना आदि में लाभ देता है। पीपल का दातुन मुंह की दुर्गंध को दूर करता है और साथ ही साथ आंखों की रोशनी भी बढ़ती है। पीपल की टहनी का दातुन कई दिनों तक करने से तथा उसको चूसने से मलेरिया बुखार उतर जाता है। पीलिया के रोगी को पीपल की नर्म टहनी (जो की पेंसिल जैसी पतली हो) के छोटे-छोटे टुकड़े काटकर माला बना लें। यह माला पीलिया रोग के रोगी को एक सप्ताह धारण करवाने से पीलिया नष्ट हो जाता है। बहुत से लोगों को रात में दिखाई नहीं पड़ता। शाम का झुट-पुट फैलते ही आंखों के आगे अंधियारा सा छा जाता है। इसकी सहज औषधि है पीपल। पीपल की लकड़ी का एक टुकड़ा लेकर गोमूत्र के साथ उसे शिला पर पीसें। इसका अंजन दो-चार दिन आंखों में लगाने से रतौंधी में लाभ होता है। उपचार के लिए इसके उपयोग से पूर्व किसी विशेषज्ञ की सलाह ज़रूर लें। See More