श्राद्ध क्या है, पितृपक्ष क्यों ???
“श्रद्धया इदं श्राद्धम्” भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है। “भरत किन्ही दशगात्र विधाना” ऐसा रामचरित मानस में भी वर्णन आता है | जो इस धार्मिक क्रिया का सबसे सटीक प्रमाण है |
हिन्दू धर्म में पितरों को एक पक्ष क्यों ?? ————————————————- हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। जो जीवन रहते उनकी सेवा नहीं कर पाते, उनके देहावसान के बाद बहुत पछताते हैं। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है।भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है | मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है | संस्कृत के प्रेय से ही प्रेत बना है |प्रिय के अतिरेक की अवस्था “प्रेत” है क्यों की सूक्ष्म शरीर धारण करने वाली आत्मा के अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है | सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।
पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं । इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।
शास्त्रों का निर्देश है कि माता-पिता आदि के निमित्त उनके नाम और गोत्र का उच्चारण कर मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है, वह उनको प्राप्त हो जाता है। यदि अपने कर्मों के अनुसार उनको देव योनि प्राप्त होती है तो वह अमृत रूप में उनको प्राप्त होता है। उन्हें गन्धर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में, पशु योनि में तृण रूप में, सर्प योनि में वायु रूप में, यक्ष योनि में पेय रूप में, दानव योनि में मांस के रूप में, प्रेत योनि में रुधिर के रूप में और मनुष्य योनि में अन्न आदि के रूप में उपलब्ध होता है। जब पित्तर यह सुनते हैं कि श्राद्धकाल उपस्थित हो गया है तो वे एक-दूसरे का स्मरण करते हुए मनोनय रूप से श्राद्धस्थल पर उपस्थित हो जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में भोजन करते हैं। ज्योतिष तत्त्व से यह कहा गया है कि जब सूर्य कन्या राशि में आते हैं तब पित्तर अपने पुत्र-पौत्रों के यहाँ आते हैं। विशेषतः आश्विन-अमावस्या के दिन वे दरवाजे पर आकर बैठ जाते हैं। यदि उस दिन उनका श्राद्ध नहीं किया जाता तब वे श्राप देकर लौट जाते हैं। अतः उस दिन पत्र-पुष्प-फल और जल-तर्पण से यथाशक्ति उनको तृप्त करना चाहिए। श्राद्ध विमुख नहीं होना चाहिए। आश्विन के कृष्ण पक्ष में मूलत: १५ दिन का यह ऐसा विशेष अवसर होता है जब अपने पूर्वजो को याद कर के उनके प्रति अपनी कृतज्ञता स्वरुप तिलांजलि दी जाती है |
श्राद्ध पर शास्त्र मत ———————— एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।
अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है।
मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है | “त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते” के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं ।
यमस्मृतिमें पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।
नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।
नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।
काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।
वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है । दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है।
पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है।
सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।
गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।
शुद्धयर्थश्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।
कर्मागश्राद्ध- कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं।
यात्रार्थश्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है।
पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।
धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के ९६ अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं(12) पुणादितिथियां (4),मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12),व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध(5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह ९६ अवसर प्राप्त होते हैं।पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है।
पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं :- एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियाँ चली आ रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए।कैसे करें श्राद्ध कर्म महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए।
यह जिज्ञासा सहजतावश अनेक व्यक्तियों में रहती है।यदि हम किसी भी तीर्थ स्थान, किसी भी पवित्र नदी, किसी भी पवित्र संगम पर नहीं जा पा रहे हैं तो निम्नांकित सरल एवं संक्षिप्त कर्म घर पर ही अवश्य कर लें :-प्रतिदिन खीर (अर्थात् दूध में पकाए हुए चावल में शकर एवं सुगंधित द्रव्य जैसे इलायची केशर मिलाकर तैयार की गई सामग्री को खीर कहते हैं) बनाकर तैयार कर लें।गाय के गोबर के कंडे को जलाकर पूर्ण प्रज्वलित कर लें।उक्त प्रज्वलित कंडे को शुद्ध स्थान में किसी बर्तन में रखकर, खीर से तीन आहुति दे दें।इसके नजदीक (पास में ही) जल का भरा हुआ एक गिलास रख दें अथवा लोटा रख दें।इस द्रव्य को अगले दिन किसी वृक्ष की जड़ में डाल दें।भोजन में से सर्वप्रथम गाय, काले कुत्ते और कौए के लिए ग्रास अलग से निकालकर उन्हें खिला दें।इसके पश्चात ब्राह्मण को भोजन कराएँ फिर स्वयं भोजन ग्रहण करें।पश्चात ब्राह्मणों को यथायोग्य दक्षिणा दें।
क्यों महत्वपूर्ण है श्राद्ध —————————– यह कृतज्ञता कई कारणों से महत्वपूर्ण होती है, हमे जन्म देने के प्रति, हमे उत्तम संस्कारो से युक्त करने के निमित्त, हम अभी भी उन्हें याद करते है और उनके प्रति हमारे मनं में अभी भी वही प्रेम, स्नेह, सत्कार, समर्पण, आदर, सम्मानं, का भाव है और हम अभी भी उन्हें अपने बीच में महसूस करते है और उनकी कृपा की कामना करते है | प्रत्येक व्यक्ति माता पिता, गुरू या अभिभावक से प्रेरणा ले कर अपना जीवन संवारता है और इन स्मृतियों को संजोने का कार्य करता है | यह परम्परा हमारी ओर से न केवल श्रध्दांजलि प्रदर्शित करती है बल्कि शायद उनके जीवन के प्रकाश से सभी को प्रकाशवान होने का और उनकी नीतिओ, उनके सद्विचारो का अनुसरण कर अपने जीवन को सफल और सार्थक बनाने और सबको सुमार्ग पर चलने का सन्देश भी देती है |
‘गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं’ : श्राद्ध तीर्थ गया ——————————————————————- जब बात आती है श्राद्ध कर्म की तो बिहार स्थित गया का नाम बड़ी प्रमुखता व आदर से लिया जाता है | गया समूचे भारत वर्ष में हीं नहीं सम्पूर्ण विश्व में दो स्थानो के लिए बहुत प्रसिद्द है | वह दो स्थान है बोध गया और विष्णुपद मन्दिर | विष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है की स्वयं भगवान विष्णु के चरण उपस्थित है, जिसकी पूजा करने के लिए लोग देश के कोने-कोने से आते हैं | गया में जो दूसरा सबसे प्रमुख स्थान है जिसके लिए लोग दूर दूर से आते है वह स्थान एक नदी है, उसका नाम “फल्गु नदी” है | ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने स्वयं इस स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था | तब से यह माना जाने लगा की इस स्थान पर आकर कोई भी व्यक्ति अपने पितरो के निमित्त पिंड दान करेगा तो उसके पितृ उससे तृप्त रहेगे और वह व्यक्ति अपने पितृऋण से उरिण हो जायेगा | इस स्थान का नाम ‘गया’ इसलिए रखा गया क्योंकि भगवान विष्णु ने यहीं के धरती पर असुर गयासुर का वध किया था | तब से इस स्थान का नाम भारत के प्रमुख तीर्थस्थानो मे आता है और बड़ी ही श्रद्धा और आदर से “गया जी” बोला जाता है |
त्रिपिंडी श्राद्ध के लिए प्रसिद्द है बनारस का पिशाच मोचन ———————————————————————— काशी के प्राचीन पिशाच मोचन कुंड पर होने वाले त्रिपिंडी श्राद की से पितरों को प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु से मरने के बाद विकारों से मुक्ति मिल जाती है। प्रेत बधाएं तीन तरीके की होती हैं। इनमें सात्विक, राजस, तामस शामिल हैं। इन तीनों बाधाओं से पितरों को मुक्ति दिलवाने के लिए काला, लाल और सफेद झंडे लगाए जाते हैं। इसको भगवान शंकर, ब्रह्म और कृष्ण के ताप्तिक रूप में मानकर तर्पण और श्राद का कार्य किया जाता है। इस पिशाच मोचन तीर्थ स्थल का वर्णन गरुण पुराण में भी वर्णित है।
:शिवेश प्रताप