5:32 pm - Tuesday November 23, 3858

रावण-सीता संवाद

रावण-सीता संवाद

 

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आकाश में शनैः-शनैः नक्षत्र लुप्त होने लगे। सूर्योदय की लालिमा भगवान भास्कर के आगमन की सूचना देने लगी। भगवान सूर्यदेव के स्वागत में कमल पुष्पों ने अपने हृदय पटल खोल दिये। पक्षी अपने कलरव से तुमुलनाद करने लगे। लंका पुरी में वेदमन्त्रों की ध्वनि गूँजने लगी। उसी समय राक्षसराज रावण ने अपनी दासियों के साथ अशोकवाटिका में प्रवेश किया। सुन्दरी नवयौवनाओं के साथ आता हुआ रावण ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे नीर भरा नीरद चमकती बिजलियों से घिरा चला आ रहा हो। रावण को देख कर हनुमान पत्तों में और सिकुड़ गये ताकि वह उन्हें देख न सके। जब रावण सीता के सामने जा कर खड़ा हुआ तो उसे देख कर उनका हृदय इस प्रकार काँपने लगा जिस प्रकार आँधी के वेग में केले का पत्ता काँपने लगता है। उन्होंने दोनों हाथों से अपने उरोजों को और जंघाओं से उदर को ढाँप लिया और भय के मारे रुदन करने लगी। निशाचरियों से घिरी आसन रहित भूमि पर शोक-विह्वल दीन सीता को रावण ने ध्यानपूर्वक देखा जो दृष्टि नीची किये एकटक पृथ्वी की ओर देख रही थी। ऐसा प्रतीत होता था कि वह रावण से त्राण पाने के लिये पृथ्वी माता से कह रही हों कि हे पृथ्वी! तू फट जा और तेरे अन्दर से मेरे स्वामी रघुनाथ जी प्रकट हो कर इस राक्षस का सँहार कर मेरी रक्षा करें। उस समय शोकग्रस्त सीता की दशा ऐसी हो रही थी जैसी धूमकेतु से ग्रसित रोहणी की, राहु से ग्रसित पूर्णिमा की रात्रि की, सेनापति रहित समर भूमि में सेना की, जलहीन नदी की, चाण्डालों से अपवित्र की गई यज्ञ वेदी की, बुझी हुई दीपशिखा की तथा समूल उखाड़ी गई कमलिनी की होती है।

ऐसी दुःखी जानकी के पास आकर लंकापति रावण हँसता हुआ बोले, “हे मृगनयनी! मुझे देख कर तू अपने शरीर को छिपाने का प्रयत्न क्यों कर रही है। स्मरण रख, तेरी इच्छा के बिना मैं कदापि तेरा स्पर्श नहीं करूँगा। तू मुझ पर और मेरे कथन पर विश्वास रख और इस प्रकार दुःखी हो कर अश्रु मत बहा। तेरी यह मलिन, आभूषणरहित वेश-भूषा देख कर मुझे अत्यधिक पीड़ा होती है। तू संसार की सुन्दरियों में शिरोमणि है। अपने इस सौन्दर्य तथा यौवन को व्यर्थ नष्ट मत होने दे। यदि एक बार यह यौवन नष्ट हो गया तो फिर लौट कर नहीं आयेगा। मैं फिर कहता हूँ, तू विश्व की अनुपम सुन्दरी है़ विधाता की अद्वितीय सृष्टि है। तेरे निर्माण में ब्रह्मा ने अपना सारा कौशल और चतुराई लगा दी। इसीलिये तेरी रचना में उसने किसी प्रकार की कोई कमी नहीं रखी है। तेरे किस-किस अंग की मैं सराहना करूँ। जिस अंग पर दृष्टि पड़ती है, उसी पर अटक कर रह जाती है। मैं तुझे पूरे हृदय से अपनाना चाहता हूँ। मैं तेरे प्रत्येक अंग का रसास्वादन करना चाहता हूँ। इसी लिये तुझसे कहता हूँ, तू राम का मोह छोड़ दे। मैं तुझे अपनी पटरानी बनाउँगा। मेरी सब रानियाँ तो तेरी चरणों की दासी बनेंगी ही, मैं भी तेरा दास बन कर रहूँगा। अपने भुजबल से अर्जित सम्पूर्ण सम्पत्ति तेरे चरणों में अर्पित कर दूँगा। जीते हुये समस्त राज्य तेरे पिता जनक को दे दूँगा। तू वास्तव में इतनी सुन्दर है कि तुझे देख कर तो तुझे बनाने वाला स्वयं विधाता कामवश हो जायेगा, मेरी तो बात ही क्या है? इसलिये तू मेरी बात स्वीकार कर ले। राम से भयभीत होने की आवश्यकता कोई नहीं है। संसार में कोई भी मुझसे लोहा नहीं ले सकता। चल, उठ कर खड़ी हो जा और सुन्दर वस्त्राभूषण धारण कर के मेरे साथ रमण कर। हे कल्याणी! चल कर तू मेरे ऐश्वर्य को देख और उस कंगाल वनवासी को भूल जा। तू ही सोच, राम के पास न राज्य है, न धन है, न कोई दास है, न सेना है और न कोई साधन है। फिर यह भी क्या पता है कि वह अभी जीता है या मर गया। यदि जीवित भी हो तो भी न तो तू उसके पास पहुँच सकती है और न वह स्वयं ही यहाँ आ सकता है। अतएव समस्त असुविधाओं का परित्याग कर के निश्चिन्त हो कर मेरे साथ रमण कर।”

रावण के नीच वचनों को सुन कर मध्य में तृण रख कर जानकी बोलीं, “हे लंकेश! तुम्हारे जैसे विद्वान के लिये यह उचित होगा कि तुम अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन न करो और मुझसे अपना मन हटा कर अपनी रानियों से प्रेम करो। स्मरण रखो, पापी और नीच भावना रखने वाले पुरुषों को अपने उद्देश्य में कभी सफलता नहीं मिलती। मैं उत्तम कुल में जन्म लेने वाली पतिपरायणा पत्नी हूँ, तुम मुझे मेरे सतीत्व से कदापि विचलित नहीं कर सकते। अपने प्राण रहते मैं तुम्हारे नीचता से परिपूर्ण प्रस्ताव को किसी भी दशा में स्वीकार नहीं कर सकती। यदि तुममें तनिक भी न्याय-बुद्धि होती तो तुम अन्य स्त्रियों के धर्म की उसी प्रकार रक्षा करते जिस प्रकार अपनी रानियों के सतीत्व की करते हो। क्या इस लंका में ऐसा कोई समझदार व्यक्ति नहीं है जो तुम्हें इस साधारण सी बात का बोध कराये? तुम तो नीतिवान बनते हो, फिर नीति का यह वाक्य कैसे भूल गये कि जिस राजा की इन्द्रियाँ उसके वश में नहीं रहतीं, वह चाहे कितना ही ऐश्वर्यवान हो, अन्त में रसातल को जाता है, उसका सर्वस्व नष्ट हो जाता है। हे दुर्बुद्धे! तूने अभी तक मुझे पहचाना नहीं है। मैं तेरे ऐश्वर्य, राज्य, धन-सम्पत्ति के लोभ में नहीं फँस सकती। तेरा यह कहना भी एक व्यर्थ का प्रलाप है कि मैं रघुकुलमणि रामचन्द्र जी से नहीं मिल सकती। अरे मूर्ख! वे तो सदैव मेरे हृदय में निवास करते हैं। मुझे कोई उनसे अलग नहीं कर सकता। मेरा उनका ऐसा अटूट सम्बंध है जैसा कि सूर्य का उसकी प्रभा से। इसलिये मैं उनकी हूँ और सदा ही उनकी रहूँगी। यदि तू सोच-समझ कर यह मान ले कि तूने मेरा अपहरण कर के एक भयंकर अपराध किया है और इसलिये मुझे लौटाते हुये तुझे भय लगता है तो मैं तुझे अभयदान देते हुये वचन देती हूँ कि तू मुझे उनके पास पहुँचा दे, मैं तुझे उनसे क्षमा करा दूँगी। यदि तुम अब भी अपनी हठ पर अड़े रहे तो विश्वास करो कि तुम्हारी मृत्य निश्चित है और तुम्हें उनके बाणों से कोई नहीं बचा सकता। इसलिये मैं फिर कहती हूँ कि सावधान हो जाओ। अपने साथ लंका और लंकावासियों का नाश मत करो। इसी में तुम्हारा और तुम्हारे राक्षसकुल का कल्याण है।”

सीता के मुख से ऐसे कठोर एवं अपमानजनक शब्द सुन कर लंकापति रावण के नेत्र क्रोध से लाल हो गये, उसकी भृकुटि चढ़ गई। वह अपने होंठ चबाता हुआ बोला, “हे सीते! मैंने तेरे साथ जितने मधुर शब्दों का प्रयोग करके तुझे समझाने का प्रयत्न किया तूने उतने ही कठोर शब्दों में मेरे हृदय को छलनी करने की चेष्टा की है। मैं तेरे सौन्दर्य, लावण्य एवं यौवन से प्रभावित हो कर जितनी कोमलता दिखा रहा हूँ उतना ही अधिक तू कठोर शब्दों का प्रयोग कर के मेरा अपमान कर रही है। मैं तुझे अभी मृत्यु के घाट उतार देता, परन्तु तेरा सुकुमार यौवन देख कर मुझे तुझ पर दया आ रही है। मैं नहीं चाहता कि तेरी जिस सुन्दर ग्रीवा में अपनी भुजा लपेट कर मैं तुझ से प्रणय-क्रीड़ा करना चाहता हूँ उसी ग्रीवा पर कठोर कृपाण चलाऊँ। इसलिये मैं तुझे दो मास का समय विचार करने के लिये और देता हूँ। यदि इस अवधि में तूने अपने विचारों में परिवर्तन कर के मेरी शैया की शोभा नहीं बढ़ाई तो मेरे रसोइये तेरे टुकड़े-टुकड़े कर के तेरा पका हुआ माँस मेरे प्रातःकाल के भोजन में मेरे सामने परोस देंगे।”

रावण के ये वचन सुन कर जानकी ने छेड़ी हुई नागिन की भाँति फुँफकारते हुये कहा, “अरे दुष्ट! तूने महान तेजस्वी, अद्भुत पराक्रमी रघुनाथ जी की पत्नी के लिये ऐसे पापमय वचन कहे हैं, इसका परिणाम तुझे अवश्य भुगतना पड़ेगा। अब तू उनके हाथों से कदापि नहीं बच सकेगा। संसार में ऐसा व्यक्ति अब तक उत्पन्न नहीं हुआ कि जो किसी रघुवंशी की भार्या को पापमय दृष्टि से देखने के पश्चात् जीवित रह जाय। इसलिये अब तू समझ ले कि तेरी मृत्यु निश्चित है और तेरा पाप का घड़ा भरने वाला है। अरे वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता होने का दम भरने वाले नीच! जिस जिह्वा से तूने चक्रवर्ती राजा दशरथ की पुत्रवधू के लिये ऐसे शब्द कहे हैं, वह गल कर गिर क्यों न गई? यह तेरा सौभाग्य है कि मैं पतिव्रता स्त्री हूँ और पति की आज्ञा के बिना कोई कार्य नहीं करती, अन्यथा मैं तुझे अभी इसी समय अपने तेज से जला कर भस्म कर देती, साथ ही तेरी लंका और तेरे परिवार को भी धूल में मिला देती। क्या करूँ, मेरे पति ने वन में आते समय मुझे ऐसा करने की अनुमति नहीं दी थी। यह भी मैं तुझे बता दूँ कि संसार की कोई शक्ति मुझे राघव से पृथक नहीं कर सकती। तूने मेरा जो अपहरण किया है, वह विधाता का विधान ही है क्योंकि वह इसी प्रकार रामचन्द्र जी के हाथों तेरी मृत्यु कराना चाहता है। तू कितना वीर और पराक्रमी है इसका पता तो मुझे उसी दिन चल गया था, जब तेरे पास इतनी विशाल सेना, बल और तेज होते हुये भी तू मुझे चोरों की भाँति मेरे पति की अनुपस्थिति में चुरा लाया था। क्या इससे तेरी कायरता का पता नहीं चलता। जा, चलाजा मेरे सामने से। कहीं मैं मर्यादा छोड़ कर तुझे भस्म न कर दूँ। जा, मैं अभी तुझे क्षमा करती हूँ।”

सीता के मुख से ऐसे अप्रत्याशित एवं अपमानजनक वचन सुन कर रावण का सम्पूर्ण शरीर क्रोध से थर-थर काँपने लगा। उसके नेत्रों से अंगारे बरसाने लगे। वह दहाड़ता हुआ बोला, “हे निर्बुद्धि मूर्खे! हे अंधविश्वासिनी! तुझे अपने वनवासी राम पर ऐसा विश्वास है। तुझे मालूम नहीं, वह दीन, असहाय की भाँति वन-वन में रोता-बिलखता फिर रहा है। तेरे अपमानजनक शब्दों को मैं अब सहन नहीं कर सकता। मैं इसी खड्ग से अभी तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा। अब मेरे हाथों से तिरी मृत्यु निश्चित है। अब तुझे कोई नहीं बचा सकता। परन्तु क्या करूँ, तेरी कोमल किशलय जैसी देह को देख कर मुझे फिर तुझ पर दया आ रही है। प्रणय क्रीडा करने के लिये बने इन अंगों को नष्ट करने के लिये मेरे हाथ नहीं उठ रहे हैं।” फिर वह राक्षसनियों को सम्बोधित करते हुये बोला, “जिस प्रकार भी हो, सीता को मेरे वश में होने के लिये विवश करो। यदि वह प्रेम से न माने तो इसे मनचाहा दण्ड दो ताकि यह हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाती तुई मुझसे प्रार्थाना करे और मुझे अपना पति स्वीकार करे।” इस प्रकार गर्जना करता हुआ रावण उन्हें समझा रहा था कि तभी एक अत्यन्त विकरालरूपा निशाचरी दौड़ती हुई आई और रावण के शरीर से लिपट कर बोली, “हे प्राणवल्लभ! आप इस कुरूप सीता के लिये क्यों इतने व्याकुल होते हैं? भला इसके फीके पतले अधरों, अनाकर्षक कान्ति और छोटे भद्दे आकार में क्या आकर्षण है? आप चल कर मेरे साथ विहार कीजिये। इस अभागी को मरने दीजिये। इसके ऐसे भाग्य कहाँ जो आप जैसे अपूर्व बलिष्ठ, अद्भुत पराक्रमी तीनों लोकों के विजेता के साथ रमण-सुख प्राप्त कर सके। नाथ! जो स्त्री आपको नहीं चाहती, उसके पीछे उन्मत्त की भाँति दौड़ने से क्या लाभ? इससे तो व्यर्थ ही मन को दुःख होता है।” उस कुरूपा विलासिनी के ये शब्द सुन कर रावण उसके साथ अपने भव्य प्रासाद की ओर चल पड़ा।

रावण के चले जाने के पश्चात् राक्षसनियों ने सीता को चारों ओर से घेर लिया और वे उन्हें अनेक प्रकार से डराने धमकाने लगीं। एक ने उसकी भर्त्सना करते हुये कहा, “हे मूर्ख अभागिन! तीनों लोकों और चौदह भुवनों को अपने पराक्रम से पराजित करने वाले परम तेजस्वी राक्षसराज की शैया प्रत्येक को नहीं मिलती। बड़ी-बड़ी देवकन्याएँ इसके लिए तरसती हैं। यह तो तुम्हारा परम सौभाग्य है कि स्वयं लंकापति तुम्हें अपनी अंकशायिनी बनाना चाहते हैं। तनिक विचार कर देखो, कहाँ अगाध ऐश्वर्य, स्वर्णपुरी तथा अतुल सम्पत्ति का एकछत्र स्वामी और कहाँ वह राज्य से निकाला हुआ, कंगालों की भाँति वन-वन में भटकने वाला, हतभाग्य साधारण सा मनुष्य! क्या तुम इन दोनों के बीच का महान अन्तर नहीं देखती। सोच-समझ कर निर्णय करो और महाप्रतापी लंकाधिपति रावण को पति के रूप में स्वीकार करो। उसकी अर्द्धांगिनी बनने में ही तुम्हारा कल्याण है। अन्यथा राम के वियोग में तड़प-तड़प कर मरोगी या राक्षसराज के हाथों मारी जाओगी। तुम्हारा यह कोमल शरीर इस प्रकार नष्ट होने के लिये नहीं है। महाराज रावण के साथ विलास भवन में जा कर अठखेलियाँ करो। मद्यपान कर के रमण करो। महाराज तुम्हें इतना सुख देंगे जिसकी तुमने उस कंगाल वनवासी के साथ रहते कल्पना भी नहीं की होगी। यदि तुम हमारी बात नहीं मानोगी तो मारी जाओगी।” इन कठोर वचनों से दुःखी हो कर सीता नेत्रों में आँसू भर कर बोली, “हे राक्षसनियों! तुम क्यों ऐसे दुर्वचन कह कर मुझ वियोगिनी की पीड़ा को और बढ़ाती हो? तुम नारी हो कर भी यह नहीं समझती कि तुम्हारी बात मानने से इस लोक में निन्दा और परलोक में नृशंस यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। माना कि तुम्हारी और मेरी संस्कृति तथा संस्कार भिन्न हैं, फिर भी नारी की मूल भावनाएँ तो एक जैसी होती हैं। हृदय एक बार जिसका हो जाता है, वह वस्त्रों की भाँति प्रिय पात्र का बार-बार परिवर्तन नहीं करता। फिर मेरी संस्कृति में तो पति ही पत्नी का सर्वस्व होता है। मैंने धर्मात्मा दशरथनन्दन श्री राम को पति के रूप में वरण किया है, मैं उनका परित्याग कैसे कर सकती हूँ? मेरे लिये मेरा कंगाल पति ही मेरा परमेश्वर है। उन्हें छोड़ कर मैं किसी अन्य की नहीं हो सकती, चाहे वह लंका का राजा हो, तीनों लोकों का स्वामी हो या अखिल ब्रह्माण्ड का एकछत्र सम्राट हो। याद रखो, मैं किसी भी दशा में उन्हें छोड़ कर किसी अन्य का चिन्तन नहीं कर सकती।”

सीता के इन वचनों से चिढ़ कर वे राक्षसनियाँ सीता को दुर्वचन कहती हुई अने प्रकार से कष्ट देने लगीं। विदेह नन्दिनी की यह दुर्दशा पवनपुत्र वृक्ष पर बैठे हुये बड़े दुःख के साथ देख रहे थे। और सोच रहे थे कि किस प्रकार जानकी जी से मिल कर उन्हें धैर्य बँधाऊँ। साथ ही वे परमात्मा से प्रार्थना भी करते जाते थे, “हे प्रभो! सीता जी की इन दुष्टों से रक्षा करो।” उधर सीता जब उन दुर्वचनों को न सह सकी तो वह वहाँ से उठ कर इधर उधर भ्रमण करने लगी और भ्रमण करती हुई उसी वृक्ष के नीचे आ कर खड़ी हो गई जिस पर हनुमान बैठे थे। उस वृक्ष की एक शाखा को पकड़ कर उसके सहारे खड़ी हो अश्रुविमोचन करने लगी। फिर सहसा वे उच्च स्वर में मृत्यु का आह्वान करती हुई कहने लगी, “हे भगवान! अब यह विपत्ति नहीं सही जाती। प्रभो! मुझे इस विपत्ति से छुटकारा दिलाओ, या मुझे इस पृथ्वी से उठा लो। बड़े लोगों ने सच कहा है कि समय से पहले मृत्यु भी नहीं आती। आज मेरी कैसी दयनीय दशा हो गई है। कहाँ अयोध्या का वह राजप्रासाद जहाँ मैं अपने परिजनों तथा पति के साथ अलौकिक सुख भोगती थे और कहाँ यह दुर्दिन जब मैं पति से छल द्वारा हरी गई इन राक्षसों के फंदों में फँस कर निरीह हिरणी की भाँति दुःखी हो रही हूँ। आज अपने प्राणेश्वर के बिना मैं जल से निकाली गई मछली की भाँति तड़प रही हूँ। इतनी भायंकर वेदना सह कर भी मेरे प्राण नहीं निकल रहे हैं। आश्चर्य यह है कि मर्मान्तक पीड़ा सह कर भी मेरा हृदय टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गया। मुझ जैसी अभागिनी कौन होगी जो अपने प्राणाधिक प्रियतम से बिछुड़ कर भी अपने प्राणों को सँजोये बैठी है। अभी न जाने कौन-कौन से दुःख मेरे भाग्य में लिखे हैं। न जाने वह दुष्ट रावण मेरी कैसी दुर्गति करेगा। चाहे कुछ भी हो, मैं उस महापातकी को अपने बायें पैर से भी स्पर्श न करूँगी, उसके इंगित पर आत्म समर्पण करना तो दूर की बात है। यह मेरा दुर्भाग्य ही है किस एक परमप्रतापी वीर की भार्या हो कर भी दुष्ट रावण के हाथों सताई जा रही हूँ और वे मेरी रक्षा करने के लिये अभी तक यहाँ नहीं पहुँचे। मेरा तो भाग्य ही उल्टा चल रहा है। यदि परोपकारी जटायुराज इस नीच के हाथों न मारे जाते तो वे अवश्य राघव को मेरा पता बता देते और वे आ कर रावण का विनाश करके मुझे इस भयानक यातना से मुक्ति दिलाते। परन्तु मेरा मन कह रहा है दि दुश्चरित्र रावण के पापों का घड़ा भरने वाला है। अब उसका अन्त अधिक दूर नहीं है। वह अवश्य ही मेरे पति के हाथों मारा जायेगा। उनके तीक्ष्ण बाण लंका को लम्पट राक्षसों के आधिपत्य से मुक्त करके अवश्य मेरा उद्धार करेंगे। किन्तु उनकी प्रतीक्षा करते-करते मुझे इतने दिन हो गये और वे अभी तक नहीं आये। कहीं ऐसा तो नहीं है कि उन्होंने मुझे मरा हुआ समझ लिया हो और इसलिये अब वे मेरी खोज खबर ही न ले रहे हों। यह भी तो हो सकता है कि दुष्ट मायावी रावण ने जिस प्रकार छल से मेरा हरण किया, उसी प्रकार उसने छल से उन दोनों भाइयों का वध कर डाला हो। उस दुष्ट के लिये कोई भी नीच कार्य अकरणीय नहीं है। दोनों दशाओं में मेरे जीवित रहने का प्रयोजन नहीं है। यदि उन्होंने मुझे मरा हुआ समझ लिया है या इस दुष्ट ने उन दोनों का वध कर दिया है तो भी मेरा और उनका मिलन जअब असम्भव हो गया है। जब मैं अपने प्राणेश्वर से नहीं मिल सकती तो मेरा जीवित रहना व्यर्थ है। मैं अभी इसी समय अपने प्राणों का उत्सर्ग करूँगी।” सीता के इन निराशा भरे वचनों को सुन कर पवनपुत्र हनुमान अपने मन में विचार करने लगे कि अब इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि यह ही जनकनन्दिनी जानकी हैं जो अपने पति के वियोग में व्यकुल हो रही हैं। यही वह समय है, जब इन्हें धैर्य की सबसे अधिक आवश्यकता है।

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