भारत अमरीका की दोस्ती : बिना आर्थिक स्वाबलंबन के द्रुपद व् द्रोण की मित्रता जैसी कष्टदायक बन जायेगी
महाभारत की प्रसिद्द कहानी है की जब बचपन मैं साथ पढ़े द्रुपद के पास द्रोण मित्रता की दुहाई ले कर पुरानेआधा राज देने के वादों को याद दिलाने लगे तो द्रुपद ने साफ़ कह दिया की मित्रता बराबर के लोगों मैं होती है .राजा व् भिखारी की कैसी मित्रता और कैसे वादे ? द्रौपदी व् ध्रिष्ट्द्युमं का द्रुपद द्वारा किये गए यज्ञ के कुंड से जन्म द्रोण की मृत्यु के लिए ही हुआ था.
भारत को अपने महाभारत के अनमोल ज्ञान को नहीं भुलाना चाहिये . अमरीका राजा है और हम रंक . हमारी दोस्ती तभी संभव है जब हम अमरीका पर आश्रित न हों जैसे चीन कभी भी अमरीका पर आश्रित नहीं हुआ और पहले दिन से ही उसने अमरीका को उसकी औकात बता दी थी .
आज कल हमें बहुत अमरीकी प्यार पर अभिमान हो रहा है . कुछ झुन झूने भी हैं जैसे अमरीका पूँजी निवेश से भारत को दूसरा चीन बना देगा . अमरीका को क्या गरज पडी की वह हमें चीन बनाए ?
हमारी दोस्ती का कोई वास्तविक व्यवहारिक आधार नहीं है . दोस्तियाँ नफरत की बुनियाद पर बहुत दिन नहीं टिकतीं . सिर्फ चीन पर केन्द्रित दोस्ती तब सवालों के घेरे मैं आ जायेगी जब अमरीका पाकिस्तान को हथियार देगा व् रूस से यूरोप मैं टकराएगा . हम रूस का विरोध नहीं करेंगे .उसने बांग्लादेश की लड़ाई मैं हमारी जो मदद की थी उसे भुला पाना कठिन है. हालांकि गोर्बाचेव ने हमें साफ़ स्वाबलंबन केलिए कह दिया था . पर पुतिन को आज चीन भारत से बड़ा मित्र लग रहा है. रूस चीन की आर्थिक ताकत व् व्यापार पर आश्रित होता जा रहा है . वह कभी भी पश्चिम देशों के आर्थिक प्रतिबंधों मैं आ सकता है . इसलिए विदेशी मुद्रा व् व्यापार के लिए चीन को सहारा बना रहा है. उसने ब्रिक ( रूस , चीन , भारत , ब्राज़ील व् दक्षिण अफ्रीका का व्यापार संगठन ) बना कर एक अलग तरह के आर्थिक व्यवस्था की नींव भी डाली है. एक ब्रिक्स का बैंक भी बनाया गया है .परन्तु भारत की आर्थिक अवस्था चीन जैसी सुदृढ़ नहीं है . इस लिए भारत रूस के लिए इतना उपयोगी नहीं है .फिर भी र्रूस भारत चीन मैं सुलह कराने की कोशिश कर रहा है .
परन्तु भारत के साथ चीन अपना सीमांकन नहीं करना चाहता है.इसलिए भारत १९६२ की हार को भूल नहीं सकता है.रूस के ईरान व् पकिस्तान के साथ अगले समय मैं दोस्ती करने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. इधर भारत अमरीका , जापान , आसियान देशों के साथ खडा हो रहा है. चीन दक्षिण चीन के समुद्र के तेल भण्डार को अपना बनाने की कोशिश मैं है जबकि फिल्पिन , वियतनाम इत्यादि उस पर अपना अधिकार भी मानते हैं .न्याय आसिआन देशों के पक्ष मैं है पर चीन ताकत दिखा रहा है. अमरीका के कहने पर चीन को हमने कुछ आँख दिखाई थी तो चीन के सैनिक पकिस्तान अधिकृत कश्मीर मैं दीखे तो हम चौकंने हो गये .
अमरीका चीन के विरुद्ध हमारी सहायता करने के लिए आगे नहीं आयेगा . वहां हमारी रूस जैसी मदद नहीं करेगा . अमरीका का इतिहास किसी राष्ट्र की मदद का नहीं है . वह सिर्फ राजा की तरह कुछ भीख दे देता है . अफगानिस्तान मैं पकिस्तान को उसने लगभग ३५ बिलयन डालर की सहायता तो दे दी पर वह पाकिस्तान से पूरी कीमत वसूल ली है . पकिस्तान के अफगानिस्तान युद्ध मैं व् उसके बाद के आतंकवाद मैं ५०००० से अधिक लोग मारे गयी हैं . पूरा पकिस्तान आतंकवाद की आग मैं झुलस गया है .३५ बिलियन डालर के लिए यह बड़ी कीमत है . वह सिर्फ इंग्लॅण्ड व् इजराइल का वास्तविक मित्र है . बाकियों के साथ वह मदद का ठेका ही देता है जिसकी अदायगी वह डालरों मैं कर देता है . परन्तु चीन से अमरीका को बहुत फायदा भी हुआ . उसने पश्चिम के देशों को बहुत दिन तक सस्ता सामान दिया और महंगाई को रोके रखा . अब यदि भारत वह सब अगले पचीस साल कर सके तो सबको फायदा ही होगा . परन्तु भारत किसी तरह भी चीन के समकक्ष नहीं है !
.भारत को अमरीकी मित्रता तभी उपयुक्त होगी जब वह चीन की तरह आर्थिक रूप से पूर्णतः स्वाबलंबी हो . इसके लिए हमें अपना निर्यात एक ट्रिलियन डालर करना होगा . अभी हमारा विदेशी मुद्रा भण्डार सिर्फ ३०० बिलयन डालर का है जबकि हमारा विदेशी ऋण ४५० बिलियन डालर के लगभग है. यह स्थिति अमरीका से बराबरी के आधार पर मित्रता के लिए घातक है . हम इससे अमरीका के गुलाम ही बन जायेंगे जैसे पाकिस्तान है . ऊपर से हमारी जनतांत्रिक प्रणाली में वह दखलंदाजी करेगा जैसे मोदी जी को वीसा मना कर उसने चुनाव मैं दखलंदाजी की थी .यह वह अपना अधिकार संझता है . वह विश्व के किसी नेता पर अपनी अदालतों मैं केस कर सज़ा दे देता है जो अन्तराष्ट्रीय कानून के एक दम विरुद्ध है .पाकिस्तान के तारिक अनवर के अनुसार भुट्टो का तख्ता पलटने मैं अमरीका के किस्सिंजर का हाथ था और हमीद गुल के अनुसार जिया की मौत मैं भी अमरीका का हाथ था . इसकी सच्चाई हमें नहीं मालूम .परन्तु दिल्ली के चुनावों मैं फोर्ड फ़ौंडेशन पर कुछ बहु संभव शक हुए थे . भारत मैं कितनी ही अमरीकी राजदूत ने मानव अधिकारों या इसी तरह के बहानों से दखल देने की कोशिश की है . ईसाईयों , पर्यावरण ,मानव अधिकार ,अल्पसंख्यक ,अन्तराष्ट्रीय व्यापार इत्यादि अनेकों मुद्दों से वह दबाब दाल सकता है . उसका प्राकृतिक रुझान सोनिया गाँधी की तरफ है क्योंकि वह पश्चिम की समर्थक हैं व् भारतीय संस्कृति से नफरत करती हैं जैसा संस्कृत हटाने के निर्णय ने दिखाया था . उधर हमारे मजदूर संगठन एक दम लड़ने को तैयार बैठे हैं .व्यापारी वालमार्ट को नहीं आने देना चाहते .यह सब अमरीका जरूर चाहेगा .
चीन मैं भी उसने बहुत कोशिश की थी . पर चीन तो चीन है . उसने बेजिंग मैं अपने ही छात्रों पर टैंक चला कर विरोध की सीमा तय कर दी . तब से अमरीका सुधर गया. इसके विपरीत भारत मैं तो एक ढूँढो तो दस लोग बिकने के लिए तैयार खड़े रहते हैं . सारा का सारा मीडिया इतना गुजरात के गोधरा काण्ड को एक सुर मैं क्यों उछाल रहा था ? भारत की राजिनितिग्य व् मीडिया अमरीका के कहने पर कभी भी बिदक सकते हैं . हमारे न्यायलय भी अब उतने विश्वसनीय नहीं रहे . वोडाफोन केस मैं न्यायालय को भी कीचड मैं घसीट लिया है .
इसलिए अमरीका को एक बार पूरा भारत मैं घुस जाने दिया तो निकालना असंभव हो जाएगा . इसलिए सोच समझ के लालच से दूर उतना रिश्ता बढ़ाना चाहिए जो हम अपनी ताकत से रख सकें . उससे ज्यादा अम्रीकाका आलिंगन अभी हमारे हित मैं नहीं है .
अगर हमारा विदेशी व्यापार व् मुद्रा भण्डार बढ़ कर इतना हो जाये की हम भी चीन की तरह दबाब मैं नहीं आयें तब आगे दोस्ती बढाने की सोचना उचित होगा .
महाभारत के मूल देश भारत को द्रुपद व् द्रोण की कहानी को भुलाना घातक होगा