प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत Source of Ancient Indian History
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प्राचीन भारत का इतिहास लिखने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है क्योंकि हमारे इतिहास के स्त्रोतों में भौतिक घटनाओं के लेखे-जोखे का महत्त्व अलग से नहीं पहचाना गया है। प्राचीन भारत के साहित्य में आख्यान, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं वंश-विस्तार आदि अनेक विषयों का समावेश होता है। भारतीय दृष्टिकोण हमेशा से आध्यात्मिक रहा है। फिर भी हमारे पास इतिहास जानने के पर्याप्त साधन हैं। हमारे पास विश्व का सबसे विशाल साहित्य है जो हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। परवर्तीकाल में हमारी बहुत-सी साहित्यिक सामग्री आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट कर दी गई थी।
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भारतीय इतिहास की सामग्री का इतना बाहुल्य है कि उस अथाह सामग्री-सागर में प्रक्षिप्तांशों, प्रतिवादों तथा अत्युक्तियों का अभाव नहीं है। उन्हें इतिहास का मूलाधार तथा इतिहास जानने के साधनों का माध्यम बना कर जीवन-पर्यन्त कोई भी अन्वेषण कर सकता है। कुछ काव्यात्मक, किन्तु यथार्थ रूप में प्राचीन काल की लिखित सामग्रियों की अथाह सिन्धु और ऐतिहासिक घटनाओं की मणियों से उपमा दी जा सकती है। समुद्र में प्रत्येक स्थान पर मणियाँ नहीं हैं और सभी मणियाँ मूल्यवान भी नहीं हैं। ठीक इसी प्रकार प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में प्राचीन इतिहास निहित है। प्राचीन भारतीय कलाकारों की कृतियाँ भी कम नहीं, जिनसे हमारे प्राचीन इतिहास का बोध हो सके। मूर्तिकला, चित्रकला, भवन-निर्माण–कला तथा अन्य ललित कलाओं के उत्कृष्ट उदाहरण आज भी अपनी भग्नावस्था में हमारी प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति की याद दिलाते हैं।
किसी भी देश के इतिहास के केवल दो साधन होते हैं-पहला साहित्यकारों की कृतियाँ तथा दूसरा विभिन्न कलाकारों की कृतियाँ भारतीय इतिहास के साधनों को भी इन्हीं दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- साहित्यिक तथा पुरातात्त्विक।
साहित्यिक सामग्री को सुविधा के लिए इस प्रकार विभाजित किया गया है-
- धार्मिक साहित्य तथा
- धर्मनिरपेक्ष साहित्य
धार्मिक साहित्य भी दो प्रकार का है-
- ब्राह्मण ग्रंथ तथा
- अब्राह्मण ग्रन्थ (बौद्ध तथा जैन ग्रन्थ)
ब्राह्मण ग्रन्थों को भी श्रुति तथा स्मृति, दो भागों में विभाजित किया गया है। श्रुति के अन्तर्गत चारों वेद, ब्राह्मण तथा उपनिषदों की गणना की जाती है और स्मृति में दो महाकाव्य रामायण एवं महाभारत, पुराण तथा स्मृतियाँ आती हैं। इसी प्रकार, धर्मनिरपेक्ष साहित्य पाँच प्रकार का है–
- ऐतिहासिक
- अर्द्ध-ऐतिहासिक
- विदेशी विवरण
- जीवनियाँ तथा
- कल्पना-प्रधान एवं गल्प साहित्य (विशुद्ध साहित्य)
साहित्यिक सामग्री
धार्मिक साहित्य, ब्राह्मण ग्रन्थ
वेद
वेद आर्यों के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। प्राचीनता तथा महानता के कारण ही ये मानव-रचित न होकर ईश्वर-प्रदत्त माने गये हैं। वेद चार हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद। चारों वेदों की उपयोगिता इतिहास-अन्वेषण में आंशिक रूप में वांछनीय है, किन्तु ऋग्वेद, जो प्राचीनतम है, इस विषय में अधिक लाभप्रद सिद्ध हुआ है। प्राचीन काल में आर्य किस प्रकार और कहाँ तक भारतवर्ष में अपना प्रसार कर सके थे, अनायाँ से उनके संघर्षों का वर्णन, सप्तसिन्धु का गुणगान आदि ऋग्वेद से ही प्राप्त होता है। इस आदि ग्रन्थ के अभाव में सम्भवत: आर्यों के विस्तार का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करना कुछ कठिन कार्य हो जाता।
ब्राह्मण
वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं की गद्य टीकाओं को ब्राह्मण कहा जाता है। प्राचीन ब्राह्मण ऐतरेय, पंचविंश, शतपथ, तैत्तरीय आदि विशेष महत्त्वपूर्ण है। ऐतरेय के अध्ययन से ही राज्याभिषेक तथा कुछ प्राचीन अभिषिक्त राजाओं के नामों का ज्ञान प्राप्त होता है। इनकी सूचनाओं को अन्य सामग्रियों की सहायता से इतिहासपरक बनाया जा सकता है। इसी प्रकार शतपथ, भारत के पश्चिमोत्तर के गान्धार, शाल्य तथा केकय आदि और प्राच्य देश कुरु, पांचाल, कौशल तथा विदेह पर प्रकाश डालता है। सुप्रसिद्ध आर्य राजा परीक्षित तथा उसके काफी बाद तक के भारतीय इतिहास का ज्ञान ब्राह्मणों द्वारा बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है।
उपनिषद्
उपनिषदों में वृहदारण्यक, छान्दोग्यादि अधिक प्राचीन हैं। इन ग्रन्थों से बिम्बिसार के पूर्व का इतिहास जानने में सहायता ली जा सकती है। परीक्षित, उसके पुत्र जनमेजय तथा बाद के राजाओं का उल्लेख उपनिषदों से प्राप्त होता है, जिससे यह स्वीकार किया जा सकता है कि उनकी रचना परीक्षित के कुछ बाद और बिम्बिसार से पहले हुई होगी। वास्तव में, ब्राह्मणों तथा उपनिषदों के सम्मिलित अध्ययन से ही परीक्षित से लेकर बिम्बिसार तक के इतिहास पर कुछ सोचा जा सकता है। उपनिषदों की दार्शनिकता को ध्यान में रखते हुए यह दावे से कहा जा सकता है कि प्राचीन आर्यों का दर्शन अन्य सभ्य देशों के दर्शन से कहीं आगे बढ़ा था। प्राचीन आर्यों के आध्यात्मिक विकास का पूर्ण ज्ञान उपनिषदों से ही प्राप्त होता है। प्राचीन काल की धार्मिक अवस्था, चिन्तन तथा नैतिक विकास के ये जीते-जागते उदाहरण है। वेदों तथा ब्राह्मणों की महानता को ये अधिक शक्तिशाली बना देते हैं।
वेदांग
वैदिक अध्ययन के निमित्त विशिष्ट विद्याओं की शाखाओं का जन्म हुआ जो वेदांग के नाम से विख्यात हैं। मुण्डक उपनिषदक में छः वेदांगों का उल्लेख किया गया है- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दशास्त्र तथा ज्योतिष। वेदांग की छ: शाखाओं से ही वैदिक पाठ को सरल एवं सुबोध बनाया गया। आगे चलकर इन विषयों के पठन-पाठन में कुछ परिवर्तन हुए और इस प्रकार वैदिक शाखाओं के अन्तर्गत ही उनका पृथक्-पृथक् वर्ग स्थापित हो गया। इन्हीं वर्गों का पाठ्य ग्रन्थों के रूप में सूत्रों का निर्माण हुआ। कल्पसूत्रों को चार भागों में विभाजित किया गया। महायज्ञों से सम्बन्धित सूत्रों को श्रौतसूत्र, गृह-संस्कारों पर प्रकाश डालने वाले सूत्रों को गृह्यसूत्र, धर्म अथवा नियमों से सम्बन्धित सूत्रों को धर्मसूत्र और यज्ञ एवं हवनकुण्डों की क्रमश वेदी एवं नाप आदि से सम्बन्धित सूत्रों को शुल्वसूत्र कहा गया। वेदांग का यह विस्तृत क्षेत्र तत्कालीन धार्मिक अवस्था का एकमात्र निर्देशक है। इन्हीं सूत्रों में सामाजिक अवस्था का भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है। किन्तु कठिनाई यह है कि ये इतने विस्तृत तथा अथाह सागर की भाँति हैं कि इनमें से ऐतिहासिक तथ्यों को खोज निकालना सरल कार्य नहीं। ऋग्वेद से लेकर सूत्रों की रचना तक का समय लगभग दो हजार ई.पू. से पाँचवीं शताब्दी ई.पू. तक माना जाता है। इस लम्बे अरसे का इतिहास इसी वैदिक साहित्य से प्रकाशित होता है।
महाकाव्य
वैदिक साहित्य के पश्चात् भारतीय साहित्य के दो स्तम्भ रामायण तथा महाभारत का अविर्भाव है। वास्तव में, सम्पूर्ण धार्मिक साहित्य में ये अपना ऊँचा स्थान रखते हैं। भारतीय इतिहास को अधिक से अधिक प्रकाश में लाने का श्रेय बहुत कुछ इन महाकाव्यों को ही दिया जा सकता है। रामायण के रचयिता महाकवि वाल्मीकि ने मर्यादा-पुरुषोत्तम राम का जीवन-चरित्र लिख कर तत्कालीन भारत की राजनैतिक, सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति को बोधगम्य बना दिया है।
दूसरा महाकाव्य महाभारत है। मूल महाभारत के रचयिता व्यास मुनि माने जाते है। महाभारत के तीन संस्करण हुए जय, भारत तथा महाभारत। महाभारत का वर्तमान रूप प्राचीन इतिहास आख्यायिकाओं, कथाओं तथा उपदेशों का भण्डार माना जा सकता है। महाभारत प्राचीन भारत की सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। राजनैतिक परिस्थितियों का भी कुछ विवरण इसमें दिया गया है, किन्तु दुर्भाग्यवश तिथिक्रमानुसार इतिहास का इसमें सर्वथा अभाव है। कुछ कल्पित कथाओं के समावेश से भी ऐतिहासिक तथ्यों के अन्वेषण में कठिनाई उपस्थित हो जाती है।
पुराण
महाकाव्यों के पश्चात् पुराणों का स्थान आता है। पुराणों की संख्या 18 है। पुराणों की रचना का श्रेय सूतलोमहर्षण अथवा उनके पुत्र (सौति) उग्रश्रवस या उग्रश्रवा को दिया गया है। पुराणों के अन्तर्गत पाँच विषयों का वर्णन साधारणतया हुआ है-
- सर्ग (आदि सृष्टि),
- प्रतिसर्ग (प्रलय के पश्चात् पुनसृष्टि),
- वंश (देवताओं तथा ऋषियों की वंश तालिका),
- मन्वन्तर (कल्पों के महायुग, जिनमें मानव का स्रष्टा मनु माना गया है) तथा
- वंशानुचरित (प्राचीन राज-कुलों का इतिवृत्त)।
पुराणों के उक्त पाँच विषय होते हुए भी अठारह पुराणों में वंशानुचरित का प्रकरण नहीं प्राप्त होता। यह दुर्भाग्य ही है, क्योंकि पुराणों में जो ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अधिक महत्त्वपूर्ण विषय है, वह वंशानुचरित है। वंशानुचरित केवल भविष्य, मत्स्य, वायु, विष्णु, ब्रह्माण्ड तथा भागवत पुराणों में ही प्राप्त होता है। गरुड पुराण में भी पौरव, इक्ष्वाकु और बाहद्रथ राजवंशों की तालिका प्राप्त होती है, किन्तु इनकी तिथि पूर्णतया अनिश्चित है।
पुराण इतिहास की प्रचुर सामग्री उपस्थित करते हैं। वे प्राचीन काल से लेकर गुप्त-काल तक के इतिहास से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाओं का परिचय करा देते हैं जिनकी प्रामाणिकता के लिए हमें अन्य साक्ष्यों का सहारा लेना पड़ता है। इतिहासकारों को पुराणों से सर्वथा यह असन्तोष रहा है कि ये तिथिपरक नहीं हैं और साथ ही काल्पनिक घटनाओं, कथाओं एवं गल्पों का समावेश तो इन पुराणों में काफी किया गया है।
स्मृतियाँ
ब्राह्मण ग्रन्थों में ऐतिहासिक उपयोगिता के दृष्टिकोण से स्मृतियों का भी विशेष महत्त्व है। मनु, विष्णु, याज्ञवल्क्य, नारद, वृहस्पति, पराशर आदि की स्मतियाँ विशेष उल्लेखनीय है। ये धर्मशास्त्र के नाम से विख्यात है। सभी स्मृतियों में साधारणत: वर्णाश्रम धर्म, राजा के कर्त्तव्य तथा श्राद्ध एवं प्रायश्चित्त इत्यादि के विषयों में प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार, केवल सामाजिक तथा धार्मिक विषयों पर जितना इन स्मृतियों में लिखा हुआ है, उतना सम्भवत: अन्य किसी ग्रन्थ में नहीं।
अब्राह्मण ग्रन्थ
गौतम बुद्ध के अनुयायियों ने जिस साहित्य का सृजन किया, उसका उद्देश्य पूर्णतया धार्मिक होते हुए भी ऐतिहासिक है। भारतीय इतिहास की सामग्री उसमें बहुत कुछ निहित है। बौद्ध ग्रन्थों में त्रिपिटक अधिक महत्त्वपूर्ण है। सुत्त, विनय तथा अभिधम्म तीनों मिलकर त्रिपिटक कहलाते हैं। सुत्त में दीर्घ, मज्झिम, संयुक्त, अंगुत्तर तथा खुद्दक पाँच निकाय हैं। इन सभी निकायों में बौद्ध सिद्धान्त तथा कहानियाँ हैं। सिद्धान्तों का ऐतिहासिक महत्त्व बहुत है, क्योंकि बौद्ध-दर्शन के अध्ययन में ये काफी योग देते हैं। कहानियाँ भी तत्कालीन सामाजिक अवस्था का प्रसंगत: वर्णन करती हैं। पातिमोक्ख, महाबग्ग, चुल्लवग्ग, सुत्तविभंग तथा परिवर में भिक्षु-भिक्षुनियों के नियमों का वर्णन किया गया है। उपर्युक्त पाँचों ग्रन्थ विनय के अन्तर्गत है। अभिधम्म के सात संग्रह है। इनमें तत्त्वज्ञान की चर्चा की गयी है। बौद्ध धर्म तथा तत्कालीन सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों के अध्ययन में इन ग्रन्थों का महत्त्व काफी है।
त्रिपिटकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये बौद्ध-संघों के संगठन का पूर्ण विवरण उपस्थित करते हैं। साथ ही, तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों का भी बोध कराते हैं।
जातक- बौद्ध ग्रन्थों में जातक का दूसरा स्थान है। इनकी संख्या लगभग 549 है। जातकों में भगवान् बुद्ध के पूर्वजन्म की कथायें संग्रहीत हैं। यद्यपि इनका दृष्टिकोण पूर्णतया धार्मिक है
है; किन्तु इनके अध्ययन से तत्कालीन सामाजिक तथा आर्थिक अवस्था पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। सांस्कृतिक तथा धार्मिक क्षेत्र पर तो ये पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। कुछ जातकों से बुद्धपूर्व तथा बुद्धकालीन भारत की राजनैतिक परिस्थितियों का भी आभास मिलता है।
दीपवंस, महावंस- त्रिपिटक तथा जातकों के पश्चात् दीपवंस तथा महावंस नामक दो पालि महाकाव्यों का स्थान है। मौर्य-साम्राज्य के इतिहास का अध्ययन करने में ये दोनों ग्रन्थ अधिक सहायक सिद्ध होते हैं, किन्तु इनकी सूचनाओं को स्वीकार करते समय तर्क एवं विवेक से काम लेना आवश्यक है।
मिलिन्दपन्हो- यह अन्य पालि ग्रन्थ है। इस पुस्तक में यूनानी नरेश मिलिन्द या मिनैन्डर और बौद्ध भिक्षु नागसेन का वार्तालाप है। इस ग्रंथ से तत्कालीन सामाजिक तथा धार्मिक अवस्थाओं के अतिरिक्त आर्थिक अवस्था का भी पूर्ण विवरण प्राप्त होता है। भारत के विदेशी व्यापार का तो इसमें सजीव चित्रण किया गया है। तत्कालीन राजनैतिक अवस्था का भी प्रासंगिक विवरण इस पुस्तक में प्राप्त होता है।
उपर्युक्त बौद्ध-ग्रन्थ पालि भाषा में लिखे गये हैं। इनके अलावा संस्कृत ग्रन्थों का विवरण है-
दिव्यावदान- संस्कृत गद्य की यह पुस्तक अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। अशोक तथा उसके उत्तराधिकारियों के विषय में इससे बहुत अधिक जानकारी प्राप्त होती है।
मंजूश्री मूलकल्प- यह भी संस्कृत का ग्रन्थ है। इसमें मौर्यों के पूर्व तथा हर्ष तक की राजनैतिक घटनाओं का बीच-बीच में उल्लेख मात्र कर दिया गया है। यह ग्रन्थ भी ऐतिहासिक दृष्टिकोण से काफी महत्त्व रखता है।
ललित विस्तार- इससे महात्मा बुद्ध के जीवन पर प्रकाश पड़ता है और प्रसंगत: तत्कालीन धार्मिक अवस्था तथा सामाजिक रीतियों का भी वर्णन प्राप्त हो जाता है।
जैन ग्रन्थ- बौद्ध ग्रन्थों की भाँति जैन ग्रन्थ भी पूर्णतया धार्मिक हैं। इन ग्रन्थों में परिशिष्टपर्वन् विशेष महत्त्वपूर्ण है। भद्रबाहुचरित्र दूसरा महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ से जैनाचार्य भद्रबाहु के साथ-साथ चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन पर भी कुछ प्रकाश पड़ता है। उपर्युक्त दो प्रमुख ग्रन्थों के अतिरिक्त कथाकोष, पुण्याश्रव-कथाकोष, लोक-विभाग, त्रिलोक-प्रज्ञप्ति, आवश्यक सूत्र, भगवती सूत्र, कालिकापुराण आदि अनेक जैन ग्रन्थ भारतीय इतिहास की सामग्री उपस्थित करते हैं। जैन-साहित्य में कुछ ऐसे भी ग्रन्थ हैं, जिनका प्रकाशन या जिनका अन्य भाषाओं में अनुवाद नहीं हो सका है, जिससे बहुत-सी ऐतिहासिक सामग्रियाँ नहीं प्राप्त की जा सकी हैं; किन्तु, कल्पसूत्रों से जो कुछ सामग्री प्राप्त हो सकी है, उसकी उपयोगिता निर्विवाद है।
धर्मनिरपेक्ष साहित्य
धर्मनिरपेक्ष साहित्य पाँच प्रकार का है–
- ऐतिहासिक,
- अर्द्ध-ऐतिहासिक
- विदेशी विवरण
- जीवनियाँ तथा
- कल्पना-प्रधान एवं गल्प–साहित्य (विशुद्ध साहित्य)।
ऐतिहासिक ग्रन्थ
इसके अन्तर्गत राजाओं तथा उनके उत्तराधिकारियों का वर्णन, शासन-प्रबन्ध तथा अन्य राजनैतिक परिस्थितियों के अतिरिक्त आर्थिक तथा सामाजिक परिस्थितियाँ भी आती हैं। यहाँ ऐतिहासिक शब्द का जो वास्तविक अर्थ लिया गया है, उसका तात्पर्य राजाओं तथा उनके शासन-प्रबन्ध से है। इन पर प्रकाश डालने वाले ग्रन्थों को ही यह संज्ञा दी गयी है।
राजतरंगिणी- कल्हण की राजतरंगिणी ही प्राचीन भारतीय साहित्य का एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसे ठीक अर्थ में ऐतिहासिक कहा जा सकता है। इसकी रचना 1149-50 ई. में हुई थी। राग-द्वेष-विनिर्मुक्त होकर तथ्यों की विवेचना करना ही कल्हण का उद्देश्य था। राजतरंगिणी के लेखक का दृष्टिकोण पूर्णतया ऐतिहासिक था। उसने कश्मीर का पूर्ण इतिहास (आदिकाल से अपने काल तक का) लिखा है। विभिन्न ग्रन्थों के अध्ययन के पश्चात् ही कल्हण ने अपनी पुस्तक की रचना की। यद्यपि इस ग्रन्थ में कुछ काल्पनिक कथाओं का समावेश है, पर सातवीं शताब्दी ई. के पश्चात् का जो कश्मीरी इतिहास इस पुस्तक में वर्णित है, उस पर पूर्ण विश्वास किया जा सकता है।
गुजराती इतिहासकार- कश्मीर की भाँति गुजरात में भी अपने वीरों के गुणगान तथा उनकी स्मृतियों को नवीन बनाने की प्रथा प्रचलित हुई। अनेकानेक कवियों तथा लेखकों ने इस ओर सफल प्रयास किया। सोमेश्वर का नाम इनमें विशेष रूप से लिया जा सकता हैं। इनकी दो पुस्तके रासमाला तथा कीर्ति-कौमुदी गुजराती इतिहास के कुछ पहलुओं पर काफी प्रकाश डालती हैं। अरि सिंह के सुकृति-संकीर्तन, राजशेखर के प्रबन्ध-कोष, जय सिंह के हम्मीर-मद-मर्दन तथा वस्तुपाल-तेजपाल-प्रशस्ति के अध्ययन से गुजरात का इतिहास आभासित हो जाता है। मेरुतुंग का प्रबन्ध-चिन्तामणि, उदयप्रभा की सुकृतिकीर्ति-कल्लोलिनी तथा बालचन्द्र का वसन्तविलास भी ऐसे ही ग्रन्थ हैं, जिनसे गुजरात का इतिहास मुखरित हो उठता है। इन सभी ग्रन्थों तथा ग्रंथकारों का उद्देश्य प्रशस्ति एवं गुणगान रहा है, किन्तु इनमें ऐतिहासिक तथ्यों का भी अभाव नहीं। चालुक्य-वंश के अधीन गुजरात की ऐतिहासिक गतिविधि का तो सजीव चित्रण हमे उपर्युक्त ग्रन्थों से ही प्राप्त होता है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र- इतिहास ग्रन्थों में कौटिल्य के अर्थशास्त्र का भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस ग्रन्थ में मौर्यकालीन भारत की शासन-पद्धति, राजनैतिक व्यवस्था, सामाजिक व आर्थिक जीवन का विशद् विवेचन है। इस प्रकार, ई. पू. चौथी शताब्दी के के इतिहास के लिए इस ग्रन्थ से अच्छी सहायता मिलती है।
शुक्रनीतिसार- ऐतिहासिक दृष्टिकोण से इस ग्रन्थ की भी अपनी उपयेगिता है। इसके अध्ययन से तत्कालीन भारतीय समाज, उसके चिन्तन तथा उसकी प्रवृत्ति का पूर्ण बोध होता है। राजनीति-सम्बन्धी कुछ तथ्यों का ज्ञान (जो कि किसी विशेष राजा का नहीं है) हमें इसी प्रकार के नीतिग्रन्थों से होता है।
कामन्दकीय नीतिसार- लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी ई. में कामन्दक ने कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनेकानेक सिद्धान्त अपनी पुस्तक नीतिसार में संग्रहीत किये तथा कुछ मौलिक पदों की रचना भी की। कामन्दकीय नीतिसार भी अर्थशास्त्र की भाँति प्रचलित हो गया और अनेकानेक संस्कृत टीकाकार तथा लेखकों ने इसे उद्धृत भी किया। यद्यपि कौटिल्य के अर्थशास्त्र के समक्ष कामन्दकीय नीतिसार का उतना महत्त्व नहीं, किन्तु उस युग के राजस्व-सिद्धान्त, राजा के कर्तव्य तथा अन्य सामाजिक रीतियाँ (जिनका सम्बन्ध राज्य तथा राज्य के हितों से था) कामन्दकीय नीतिसार से अधिक स्पष्ट हो जाती हैं।
बाहस्पत्य अर्थशास्त्र- अर्थशास्त्र की परिपाटी में कम से कम बीस ग्रन्थों की रचना हुई, किन्तु वे या तो काल के प्रवाह में समाप्त हो गये, या किसी विशालकाय ग्रन्थ की महानता में विलुप्त हो गये। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के पश्चात् केवल एक और अर्थशास्त्र प्राप्त होता है। जो बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र के नाम से विख्यात है। विषय की उपयोगिता के दृष्टिकोण से ही इस ग्रन्थ को भी ऐतिहासिक ग्रन्थ की कोटि में रखा गया है। इसकी रचना-तिथि के विषय में कोई प्रामाणिक साक्ष्य प्राप्त नहीं है। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इसके कुछ अंशों की रचना नवीं तथा दसवीं शताब्दी ई. में हुई।
अर्द्ध-ऐतिहासिक
इस वर्ग में जिन ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है; उनके विषय में केवल इतना कहना होगा कि उनके लेखकों का उद्देश्य यद्यपि ऐतिहासिक न था, पर जिस मार्ग का अनुसरण करके ग्रन्थ-रचना हुई है, वह इतिहास के समानान्तर है। अत: इन ग्रन्थों में ऐतिहासिक घटनाओं का प्रतिबिम्ब आभासित होता है। इन अर्द्ध-ऐतिहासिक ग्रन्थों में पाणिनि की अष्टाध्यायी, मार्गसंहिता, पतंजलि का महाभाष्य, कालिदास का मालविकाग्निमित्रम् तथा विशाखदत्त का मुद्राराक्षस विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।
पाणिनि की अष्टध्यायी- यद्यपि यह एक व्याकरण का ग्रन्थ है, किन्तु इससे मौर्य-पूर्व तथा मौर्यकालीन राजनैतिक अवस्था पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है। इस ग्रन्थ में कुछ व्याकरणों का उल्लेख किया गया है, जिससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इसके पूर्व भी संस्कृत के कुछ अन्य व्याकरण-ग्रन्थों की रचना हुई थी।
मार्गसंहिता- यह पुराण का एक भाग है। इसमें यवन-आक्रमणों का उल्लेख किया गया है। इसी ग्रन्थ से (कुछ अन्य साक्ष्यों को लेकर) हम प्रथम शति के लगभग या इसके आसपास भारत पर यवनों का आक्रमण होना जानते हैं।
पतंजलि का महाभाष्य- यद्यपि पाणिनि की अष्टाध्यायी के विवादाग्रस्त सिद्धान्तों तथा कुछ अबोधगम्य नियमों को सुलझाने के अभिप्राय से ही पतंजलि ने महाभाष्य की रचना की, किन्तु प्रसंगत: उदाहरणों तथा स्पष्टीकरण के रूप में जिन उपादानों का प्रयोग किया गया है, उनसे प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है।
मालविकाग्निमित्रम्- यह सम्भवत: महाकवि कालिदास का प्रथम नाटक है। पूर्णतया साहित्यिक प्रवृत्ति का होते हुए भी इस ऐतिहासिक नाटक को अर्द्ध-ऐतिहासिक ग्रन्थों की कोटि में रखा जा सकता है। इस नाटक से शुंग-वंश तथा उसके पूर्ववर्ती राजवंशों की समकालीन राजनैतिक परिस्थिति का बोध होता है। राजकुलों के आन्तरिक जीवन का तो यह दर्पण है।
मुद्राराक्षस– विशाखदत्त-कृत यह नाटक यद्यपि कल्पना का आश्रय लेता हुआ अपनी साहित्यिकता की पूर्णता को प्राप्त करता है, पर चन्द्रगुप्त मौर्य, उसके मंत्री चाणक्य तथा कुछ तत्कालीन राजाओं का उल्लेख करके यह इतिहास को सुलझाने में बहुत कुछ योग देता है। संस्कृत साहित्य का सम्भवत: यह प्रथम जासूसी नाटक (यद्यपि इसे ऐतिहासिक नाटक की संज्ञा दी गयी) है जो मौर्यकालीन भारत पर पर्याप्त प्रकाश डालता है।
विदेशी विवरण
भारतीय सामग्री के अतिरिक्त हमारे इतिहास की कुछ अभारतीय सामग्री भी प्राप्त होती है, जिससे इतिहास-सम्बन्धी अनेकानेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का बोध होता हैं। ये सामग्री उत्साही यात्रियों, धर्मनिष्ठ तथा भ्रमणशील विद्यार्थियों एवं विदेशी इतिहासकारों की रचनाओं से प्राप्त होती हैं और इसीलिये इन्हें विदेशी विवरण की संज्ञा दी जाती है। विदेशी विवरण का महत्त्व भारतीय इतिहास का तिथिक्रमानुसार अध्ययन करने में सर्वमान्य हैं। वास्तव में भारतीय सामग्रियों की कमी की पूर्ति करने वाले ये विदेशी विवरण ही हैं। जहाँ हिन्दू, जैन तथा बौद्ध ग्रन्थ मौन हो जाते हैं, वहाँ ये विदेशी विवरण ही इतिहासकार को कुछ प्रकाश दे पाते हैं।
विदेशी विवरणों के सम्बन्ध में एक बात प्रारम्भ में उल्लेखनीय है कि इनकी कुछ अपनी सीमाएँ हैं। यूनानी, रोमन, चीनी, तिब्बती आदि भारतीय परम्परा से प्राय: अपरिचित थे। उनमें से बहुतों को हमारी भाषा का ज्ञान न था। ऐसी स्थिति में इनकी रचनाओं या विवरणों में कुछ भ्रान्ति के दर्शन स्वभावत: होते हैं। टेरियस विचित्र रीति-रिवाजों की तालिका दे सकता है, फाह्यान तथा ह्वेनसांग को हर मंदिर बौद्ध-विहार दिखाई पड़ सकता था। पर, इन सीमाओं के होते हुए भी, हम विदेशियों के विवरणों के महत्त्व को कम नहीं कर सकते हैं। हम भारतीय इतिहास के साधनों का उल्लेख करते समय विदेशी विवरणों को इसीलिए और अधिक महत्त्व देते हैं कि उनमें से कुछ तो राजदूत के रूप में भी आये हैं जो प्राय: उत्तरदायित्त्वपूर्ण कार्य हैं। स्वतंत्र पर्यटकों की लगन एवं उनका उत्साह भी सराहनीय रहा है।
यूनानी- यूनानी विवरणों को सुविधानुसार तीन वर्गों में विभाजित कर दिया गया है- 1. सिकन्दर-पूर्व, 2. सिकन्दर-कालीन तथा 3. सिकन्दर के बाद
1. सिकन्दर के पूर्व के लेखक- सिकन्दर के पूर्व के यूनानी लेखकों में स्काई लैक्स, हिकेटिअस मिलेटस, हेरोडोटस तथा केसिअस के नाम उल्लेखनीय है। स्काई लैक्स एक यूनानी सैनिक था जो फारस के सम्राट् दारा के आदेशानुसार सिन्धु नदी का पता लगाने भारत आया था। उसने अपनी यात्रा का विवरण तैयार किया, किन्तु उसकी जानकारी विशेष कर सिन्धु-घाटी तक ही सीमित थी। इस परम्परा का दूसरा लेखक हिकेटिअस मिलेटस (ई.पू. 549-496 ई.पू.) था। इसका ज्ञान भी सिन्धु घाटी तक सीमित था। इस परम्परा के लेखकों में मूर्धन्य स्थान हेरोडोटस (ई.पू. 484-431 ई.पू.) का है। उसे इतिहास का जनक कहा जाता है। भारत की जानकारी हमें उसकी प्रसिद्ध रचना हिस्टोरिका में मिलती है। केसिअस यूनानी राजवैद्य था। इसने भी भारत के विषय में लिखा है किन्तु प्रामाणिकता की दृष्टि से उसकी अधिकांश सामग्री सन्देहास्पद है। सिकन्दर के पूर्व के उपर्युक्त लेखकों के विवरण अक्षरश: सत्य और विश्वसनीय नहीं हैं, किन्तु इन विवरणों को अन्य शास्त्रों द्वारा प्रामाणिक बना कर कुछ लाभ उठाया जा सकता है।
2. सिकन्दर-कालीन- भारतीय इतिहास की सामग्रियों के अन्वेषण के क्षणों में सिकन्दर की स्मृति आ जाती है। सिकन्दर के साथ कुछ ऐसे भी उत्साही व्यक्ति आये थे जिन्होंने अपने भ्रमण का वृत्तान्त लिपिबद्ध किया। इन लेखकों में अरिस्टोबुलस, निआर्कस, चारस, युमेनीस आदि प्रसिद्ध हैं। इन लेखकों ने सिकन्दर के आक्रमण का सजीव चित्रण किया है। यद्यपि इनके ग्रन्थ मूल रूप में उपलब्ध नहीं है किन्तु इनके परवर्ती लेखकों ने इनके ग्रन्थों के उद्धरणों को लेकर जिन ग्रन्थों की रचना की, उनसे पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त होती है। इस दृष्टिकोण से उपर्युक्त लेखकों का महत्त्व अधिक है।
3. सिकन्दर के बाद- सिकन्दर के भारत से लौट जाने के पश्चात् बहुत से यूनानी लेखक, राजदूत या यात्री के रूप में भारत आये। कुछ लेखकों ने सिकन्दर के अनुयायियों के आधार पर ही ग्रन्थ-रचना की, जिससे भारतीय इतिहास की प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है। इन लेखकों में मेगस्थनीज, प्लिनी, टॉलमी, डायमेकस, डायोडारस, प्लूटार्क, एरियन, कार्टियस, जस्टिन, स्ट्रेबो आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है।
मेगस्थनीज यूनानी शासक सेल्यूकस के राजदूत के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था। मेगस्थनीज कुछ दिनों तक (संभवत: 6 वर्षों तक) पाटलिपुत्र में निवास करके वापस लौट गया। उसने भारत की तत्कालीन सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थिति के विषय में बहुत कुछ लिखा है। यद्यपि इसकी मूल पुस्तक उपलब्ध नहीं है किन्तु अन्य ग्रन्थों में इसके उद्धरण प्राप्त होते हैं, जिससे पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री मिलती है। मेगस्थनीज की पुस्तक इण्डिका के सहारे कतिपय यूनानी तथा रोम के लेखकों ने भारतवर्ष का वर्णन किया है।
राजदूत के रूप में दूसरा व्यक्ति डायमेकस भारतवर्ष आया था। यह सीरिया के राजदरबार से आया था और बिन्दुसार के दरबार में कुछ दिनों तक रहा। इसी प्रकार डायोनीसियस भी राजदूत के रूप में भारतवर्ष आया था। उपर्युक्त दोनों लेखकों के मूल ग्रन्थों का कोई पता नहीं चलता। हाँ, इनके परवर्ती लेखकों ने इनके नाम का उल्लेख किया है और साथ ही इनके विवरण का भी अपने ग्रन्थों में प्रयोग किया है, जिसके आधार पर कुछ जाना जा सकता है। अन्य यूनानी लेखकों के केवल नाम तक ही गिनाये जा सकते हैं, क्योंकि उनके विवरण का कोई विशेष ऐतिहासिक महत्त्व नहीं है। जो यात्री भारत के जिस कोने में पहुँच पाया, उसने उस आधार पर ही सम्पूर्ण भारत का चित्रण कर दिया।
टॉलमी दूसरा लेखक है, जिसका नाम ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विशेष उल्लेखनीय है। लगभग दूसरी शताब्दी ई. में उसने भारतवर्ष के भूगोल से सम्बन्धित एक पुस्तक लिखी। टॉलमी का दृष्टिकोण पूर्णतया वैज्ञानिक था, अतः इसके विवरण में सत्य का अंश अधिक है। यद्यपि भारत के भूगोल तथा उसके मानचित्र का ठीक-ठीक विचार टॉलमी के मस्तिष्क में नहीं आया था, तथापि उसका प्रयास पूर्णतया असफल नहीं माना जा सकता। टॉलमी के बाद प्लिनी का नाम लिया जा सकता है। इसकी पुस्तक नेचुरल हिस्ट्री का भी इस क्षेत्र में बहुत महत्त्व है। प्लिनी ने भारतवर्ष के पशुओं, पौधों तथा खनिज-पदार्थों का उल्लेख किया है। यह पुस्तक लगभग प्रथम शताब्दी ई. में लिखी गयी थी। एरियन भी ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अधिक महत्त्वपूर्ण है। भारत पर मकदूनिया के विजेता के आक्रमण के विषय में कोई भी भारतीय ग्रन्थ प्रकाश नहीं डालता है। ऐसी अवस्था में यदि उपर्युक्त लेखकों ने अपनी पुस्तकों की रचना न की होती तो सिकन्दर के आक्रमण का कोई ज्ञान हमें नहीं प्राप्त हो सकता था। इस तरह इनकी उपयोगिता निर्विवाद है। कर्टियस, जस्टिन तथा स्ट्रेबो की देन को भी हम भूल नहीं सकते। उनके विवरण में चाहे जितना भी अतिरंजन हो, चाहे जितनी भी काल्पनिक उड़ान हो, पर वे हमारे इतिहास के उलझे प्रश्नों को सुलझाने या उनका आंशिक ज्ञान कराने में निश्चय ही सहायक होते हैं। एक अज्ञात लेखक की पुस्तक इरिथियन सागर का पेरिप्लस भी ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत करती है। भारतीय वाणिज्य पर इससे अधिक प्रकाश पड़ता है जो सम्भवतः अन्य किसी साधन से न प्राप्त होता। मिस्र के प्लूस्टस की पुस्तक क्रिश्चियन टोपोग्राफी ऑफ दि यूनिवर्स का भी उतना ही महत्त्व है। इस पुस्तक का रचना-काल लगभग 547 ई. है।
चीनी- भारत का बौद्ध धर्म लगभग प्रथम शताब्दी ई. में चीन पहुँचा तो चीन-निवासियों के हृदय में भारतवर्ष के प्रति एक विशेष रुचि उत्पन्न हो गयी। धार्मिक तथ्यों के अन्वेषन तथा तत्सम्बन्धी ज्ञान की प्राप्ति के लिए चीनी यात्री लालायित हो उठे। उन्हें यह भी अटल विश्वास था कि गौतम बुद्ध की पावन जन्मभूमि निश्चय दर्शनीय तथा आध्यात्मिकता का कोष होगी। इन्हीं आकांक्षाओं से वशीभूत होकर चीनी भारतवर्ष आये और अपनी यात्रा का पूर्ण वृत्तान्त उन्होंने लिपिबद्ध किया। चीनी साहित्य से भारतीय इतिहास के एक लम्बे युग का परिचय प्राप्त हो जाता है। यात्रियों का दृष्टिकोण यद्यपि पूर्णतया धार्मिक था और किसी भी वस्तु को वे इसी दृष्टिकोण से देखते थे तथापि उनके विवरणों में से इतिहास की प्रचुर सामग्री प्राप्त हो जाती है।
चीन के प्रथम इतिहासकार शुमाशीन ने लगभग प्रथम शताब्दी ई.पू. में इतिहास की एक पुस्तक लिखी। शुमाशीन की इस पुस्तक से प्राचीन भारत पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है। शुमाशीन के पूर्व अन्य किसी चीनी लेखक ने भारतवर्ष से सम्बन्धित किसी विषय पर प्रकाश नहीं डाला था। जिन चीनी व्यक्तियों का इस सम्बन्ध में विशेष रूप से नाम लिया जा सकता है, वे तीन यात्री फाह्यान, ह्वेनसांग तथा इत्सिंग हैं।
फाह्यान 399 ई. में यात्रा की कठोर यातनायें सहता हुआ भारतवर्ष आया। लगभग 15-16 वर्ष तक यह धर्म-जिज्ञासु भारतवर्ष में रहा और बौद्ध धर्म-सम्बन्धी तथ्यों का ज्ञानार्जन करता रहा। उस समय भारतवर्ष में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन था। उसने गंगावर्ती प्रान्तों के शासन-प्रबन्ध तथा सामाजिक अवस्था का पूर्ण विवरण लिपिबद्ध किया। फाह्यान की पुस्तक आज भी अपने मूल रूप में प्राप्य है। वह धार्मिक विषयों के अतिरिक्त, धर्मनिरपेक्ष विषयों की ओर बहुधा उदासीन रह गया, जिससे उसका विवरण अधूरा-सा लगता है। पर बौद्ध धर्म के विषय में फाह्यान ने जो कुछ लिखा है वह पर्याप्त है। फाह्यान बौद्ध-सिद्धान्तों, परिपाट्टियों, नियमों तथा उसकी प्रगतियों के विषय में हमें पर्याप्त सामग्री प्रदान करता है।
चीनी यात्रियों में ह्वेनसांग का स्थान अधिक ऊँचा है। यह लगभग 629 ई. में भारतवर्ष आया। उस समय हर्षवर्धन भारत का सम्राट् था। ह्वेनसांग बड़ा ही जिज्ञासु एवं उत्साही व्यक्ति था। उसने अपने जीवन के सोलह वर्ष भारतवर्ष के मठों, विहारों, तीर्थस्थानों तथा विश्वविद्यालयों के दर्शन में बिताये। केवल दक्षिणी भारत को छोड़कर ह्वेनसांग ने लगभग सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। वह राज सभाओं में भी गया। इसने पाश्चात्य संसार के देश नामक ग्रन्थ की रचना की। हर्षवर्धन के शासन-काल की राजनैतिक तथा सामाजिक अवस्था का बहुत कुछ परिचय ह्वेनसांग की पुस्तक से प्राप्त हो जाता है। धार्मिक अवस्था का तो इसने बहुत ही स्पष्ट वर्णन किया है। फाह्यान तथा इत्सिंग ने अपने समय के सम्राटों का नाम तक नहीं लिया है, जबकि ह्वेनसांग ने हर्षवर्धन तथा उसके समसामयिक अन्य राजाओं के विषय में बहुत कुछ लिखा है। जिन-जिन राज्यों से होकर उसने अपनी यात्रा समाप्त की, उन सबका संक्षिप्त वर्णन उसने किया, साथ ही ह्वेनसांग ने सम्पूर्ण भारत की सामान्य अवस्था पर भी विशेष प्रकाश डाला। ह्वेनसांग के वर्णन के अभाव में सातवीं शताब्दी ई. का भारतीय इतिहास सम्भवतः इतना अधिक सुलझा हुआ न होता-कम से कम हर्षकालीन सामाजिक तथा धार्मिक अवस्था के बोध के लिए तो हमें काफी भटकना पड़ता। अन्य सामग्रियों के साथ सामग्रियों के साथ तो ह्वेनसांग के वृतांत का अध्ययन अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होता है।
लगभग 673-95 ई. के बीच इत्सिंग नामक एक अन्य चीनी ने भारतवर्ष की यात्रा की। इसने भारतवर्ष की तत्कालीन धार्मिक अवस्था (विशेषकर बौद्ध धर्म की अवस्था) का सजीव चित्रण किया है। इसका वर्णन यद्यपि ह्वेनसांग के समक्ष हल्का पड़ता है, पर फाह्यान के वर्णन से इसकी उपयोगिता कम नहीं है।
इन तीन सुप्रसिद्ध यात्रियों के अतिरिक्त कुछ अन्य चीनी लेखकों से भी भारतीय इतिहास की सामग्री प्राप्त होती है। उन लेखकों में ह्वेली अधिक प्रसिद्ध है। यह ह्वेनसांग का मित्र था। इसने ह्वेनसांग की जीवनी लिखी, जिसके अध्ययन से भारतीय इतिहास की कुछ सामग्री प्राप्त होती है।
तिब्बती- तिब्बती लेखक लामा तारानाथ के ग्रन्थों कंग्युर तथा तंग्युर से भी पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त होती है। वास्तव में, चीनी तथा तिब्बती लेखकों से ही मौर्यकाल के उपरान्त से लेकर शक, पार्थियन तथा कुषाण आदि के काल तक के अधिकांश इतिहास का ज्ञान प्राप्त होता है।
जीवनियाँ
साहित्यिक सामग्रियों में जीवनियों का काफी महत्त्व है। इन जीवनियों को यदि प्रशस्ति-काव्य कहा जाय तो अनुचित न होगा क्योंकि इनके लेखकों ने अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा में अपनी लेखनी का सदुपयोग किया है। उन लेखकों का दृष्टिकोण पूर्णतया साहित्यिक था। वास्तव में, साहित्य-सृजन के निमित्त ही उन्होंने राजाओं का परम्परानुसार आश्रय लिया था। अपनी साहित्यिक प्रतिभा के कारण ही वे आज तक सम्मानित हैं। इन जीवनी-लेखकों अथवा प्रशस्ति-गायकों की संख्या बहुत है, पर उनमें से कुछ ही ऐतिहासिक सामग्री प्रदान करते हैं। एक साहित्यिक ग्रन्थ में उपमाओं कि जो झड़ी, अलंकारों का जैसा अलंकार तथा अत्युक्ति की जो युक्ति होनी चाहिए, वे सब इन जीवनियों में हैं। इन ग्रन्थों की साहित्यिकता ही इनकी ऐतिहासिकता को ठेस पहुंचाती हैं।
हर्षचरित- जीवनी-साहित्य में ऐतिहासिक दृष्टिकोण से हर्षचरित का बहुत ऊंचा स्थान है। इस काव्यात्मक संस्कृत गद्य की रचना संस्कृत गद्याचार्य बाणभट्ट ने लगभग 620 ई. में की थी। बाण कन्नौज तथा थानेश्वर के राजा हर्ष के दरबार में रहता था। अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय बाण ने हर्षचरित के अतिरिक्त अपने अन्य ग्रन्थ कादम्बरी में भी दिया; किन्तु कादम्बरी का कोई महत्त्व ऐतिहासिक सामग्री प्रदान करने में नहीं है। बाण ने अपने आश्रयदाता हर्ष का जीवन-चरित्र अपने महान् ग्रन्थ हर्षचरित में लिखा, जिसकी महत्ता इतिहास की दृष्टि से सर्वमान्य है। हर्ष के प्रारम्भिक जीवन तथा उसकी दिग्विजयों का पूर्ण विवरण हर्षचरित से प्राप्त किया जा सकता है।
अधिकांश जीवनी ग्रन्थ पूर्णतया साहित्यिक हैं। उनका वर्णन आलंकारिक है, अतः वे इतिहास से बहुत दूर चले जाते हैं, यद्यपि उनसे तत्कालीन अवस्था का थोड़ा-बहुत ज्ञान अवश्य प्राप्त हो जाता है परन्तु साहित्यिक ग्रन्थ होने के नाते इन्हें विशुद्ध साहित्य की कोटि में रखा जा सकता था, किन्तु ये जीवनी भी हैं, जिनका स्वत: एक पृथक् वर्ग है।
विशुद्ध साहित्य
विशुद्ध साहित्य से हमारा अभिप्राय उन साहित्यिक ग्रन्थों से है जिनकी रचना साहित्यकार ने कला कला के लिए के दृष्टिकोण से की है। आत्मसन्तोष या किसी अन्य प्रेरणा से वशीभूत होकर इस कोटि के ग्रन्थों की रचना हुई। इन ग्रन्थों से इतिहास का एक अंग-सभ्यता एवं संस्कृति-प्रकाशयुक्त होता है। विशुद्ध साहित्यिक ग्रन्थों से हमें उनके समय का प्रचलित भाषा, साहित्य, जनसाधारण की अभिरुचि या संक्षेप में सामाजिक अवस्था का बोध होता है। इन ग्रन्थों में हर्ष के तीन नाटक-नागानन्द, रत्नावली तथा प्रियदर्शिका विशेष उल्लेखनीय हैं। इन नाटकों से सातवीं शताब्दी के भारत पर थोड़ा-बहुत प्रकाश पड़ता है। कालिदास के कुछ नाटकों की गणना भी इसी कोटि के ग्रन्थों में की जा सकती है। बौद्ध जातकों के पश्चात् सातवीं-आठवीं शताब्दी में कथाग्रन्थों की रचना में पुन: एक बाढ़-सी आयी। इन ग्रन्थों में गुणाढ्य की वैशाली बृहत्कथा (जो लुप्त हो चुकी है, पर जिसका उल्लेख अनेक लेखकों ने किया है), बुद्ध स्वामी की बृहत्कथा, क्षेमेन्द्र की बृहत्कथा मंजरी तथा सोमदेव का कथासरितसागर विशेष उल्लेखनीय हैं।
पुरातात्त्विक सामग्री
साहित्यिक सामग्री की भाँति पुरातात्त्विक सामग्री का भी इतिहास जानने के लिए बराबर का महत्त्व है-
अभिलेख – अभिलेखों की उपयोगिता के विषय में केवल इतना कहना होगा कि जहाँ हर प्रकार के साधन शिथिल पड़ जाते हैं, वहाँ इन अभिलेखों से ही कुछ इतिहास जाना जा सकता है। प्राचीन भारत की राजनैतिक अवस्था पर जितना प्रकाश इन अभिलेखों से पड़ सकता है, उतना अन्य किसी साहित्यिक या पुरातात्त्विक सामग्री से नहीं। प्राचीन भारत का इतिहास शिलाओं, ताम्रपत्रों तथा अन्य धातुओं पर जो कुछ उन प्राचीन लोगों ने लिख दिया है, वह अमिट है। साहित्यिक सामग्री की भाँति प्राय: उसमें प्रक्षिप्तांश नहीं हो सकते। भाषाविशेष से अभिलेखों का काल भी स्पष्ट हो जाता है। कुछ अभिलेख तो ऐतिहासिक श्रृंखला को स्थापित रखने में बहुत सहायक हुए हैं।
दुर्भाग्यवश अशोक के पहले का कोई अभिलेख नहीं प्राप्त होता। अशोक के काल से ही अभिलेखों का आरम्भ होता है। अशोक के बाद से सम्पूर्ण भारत में अभिलेखों का बाहुल्य है। इसके अतिरिक्त कुछ विदेशी अभिलेख भी हैं जिनसे प्राचीन भारत के इतिहास की सामग्री प्राप्त की जा सकती है। भारतीय अभिलेखों को भी अशोककालीन तथा अशोक के परवर्ती, दो भागों में विभाजित किया गया है। अशोक कालीन अभिलेख से तात्पर्य स्वयं सम्राट् अशोक द्वारा निर्मित अभिलेखों से है और अशोक के परवतीं अभिलेखों में ये सभी राजकीय तथा अन्य अभिलेख आते है, जो बाद के सम्राटों द्वारा तथा उनके काल में निर्मित हुए।
सर्वप्रथम अशोक के अभिलेखों पर प्रकाश डालना आवश्यक है क्योंकि इनका स्वयं एक वर्ग है। अशोक जब कलिंग-विजय के पश्चात् अशोक-महान् हो गया तो अपनी आध्यात्मिक विजय के लिए उसने मानवता के मूलभूत सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने का निश्चय किया। जनता-जनार्दन को हर प्रकार के कष्टों से मुक्त करना, उसे सुन्दर मार्ग पर लाने तथा राजा एवं प्रजा का निकट सम्बन्ध स्थापित करने के अभिप्राय से ही अशोक ने अपने सम्पूर्ण राज्य के कोने-कोने में स्तम्भ तथा शिलालेखों का जाल बिछा दिया। अपनी राजाज्ञा तथा घोषणाओं को अशोक ने स्तम्भों तथा शिलाओं पर उत्कीर्ण कराया। सर्वसाधारण को अंधकार से प्रकाश में लाने के लिए ही उसने ऐसा किया। अशोक का उद्देश्य जो कुछ भी रहा हो, पर इतिहास के विद्यार्थी के लिए ये अभिलेख अधिक मूल्यवान् हैं। अशोक कालीन सभ्यता तथा संस्कृति पर इन अभिलेखों से बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है। स्वयं अशोक ही भारतीय इतिहास का महत्त्वपूर्ण अंग है और इसका पूर्ण इतिहास जानने के लिए हमें इसके अभिलेखों का ही सहारा लेना पड़ता है। अत: इन अभिलेखों की उपयोगिता इस विषय में निर्विवाद है। विश्व-इतिहास में इस प्रकार के अभिलेख नहीं पाये जाते।
प्राचीन भारत के इतिहास को प्रकाशित करने में अशोककालीन तथा अशोक के पश्चात् के अभिलेख ही विशेष उल्लेखनीय हैं। अब तक 1500 से भी अधिक संख्या में विभिन्न प्रकार के अभिलेख गुप्त-काल के पहले के प्राप्त हुए हैं। उन सबकी किसी न किसी विषय में उपयोगिता है, पर उन असंख्य अभिलेखों का उल्लेख करना यहाँ असम्भव है।
अशोक के पश्चात् के अभिलेखों में जिन्हें राजकीय कहा जा सकता है, कुछ प्रशस्तियाँ विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। उनके अभाव में हमें भारतीय इतिहास के आलोक स्तम्भ तक का भी बोध न हो पाता। इसमें हरिषेण की प्रशस्ति विशेष उल्लेखनीय है। यह प्रशस्ति समुद्रगुप्त की प्रशंसा में अशोक-स्तम्भ के नीचे ही उत्कीर्ण की गयी है जो आजकल प्रयाग (इलाहाबाद) के किले में है। गुप्त-वंश के महान् सम्राट् समुद्रगुप्त की दिग्विजयों तथा उसके वैयक्तिक गुणों पर पूर्ण प्रकाश डालने वाली सामग्री इस प्रशस्ति के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है। सम्भवत: इस प्रशस्ति के अभाव में हम समुद्रगुप्त की महत्ता न जान पाते। गुप्त-वंश का इतिहास जानने में कुछ अन्य अभिलेखों का भी सहारा लेना पड़ता है।
अनुदानों की स्वीकृति-सम्बन्धी अनेक गुप्तकालीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं जो प्राय: सभी महत्त्वपूर्ण गुप्त-नरेशों से सम्बन्धित हैं। मुहरों एवं मुद्राभिलेखों की संख्या को तो हम निश्चित रूप से एक बहुत भारी, अतः असंख्य कह सकते हैं। चन्द्रगुप्त-द्वितीय, कुमार गुप्त, स्कन्दगुप्त आदि का इतिहास इन अभिलेखों से उसी प्रकार अधिक प्रकाशित हो पाया है, जैसे प्रयाग-प्रशस्ति से समुद्रगुप्त का। गुप्तों की वंशावली के निर्माण में तो इन अभिलेखों का बहुत बड़ा हाथ है। यह अनुदान-पत्रों, मुहरों तथा मुद्राभिलेखों की ही देन है कि गुप्तों के उस अन्धकारपूर्ण इतिहास की भी एक स्थूल रूपरेखा प्रस्तुत की जा सकी है- जहाँ अन्य साक्ष्य या तो मौन थे या फिर भ्रामक विवरण प्रस्तुत कर रहे थे।
ऐहोल-अभिलेख से, जो चालुक्य-नृपति पुल्केशिन द्वितीय की प्रशस्ति में उत्कीर्ण किया गया है, चालुक्य-वंश के सुप्रसिद्ध सम्राट् का ज्ञान प्राप्त होता है।
असंख्य दानपत्र, समर्पण-पत्र तथा स्मारक के रूप में अभिलेखों का निर्माण हुआ, जिनसे तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक परिस्थितियों का बोध होता है। हथिगुम्फा का अभिलेख खारवेल राजाओं पर पूर्ण प्रकाश डालता है।
अभिलेख संस्कृत, प्राकृत अथवा मिश्रित, तमिल, तेलगू तथा कन्नड़ आदि भाषाओं में खुदे हुए हैं। इन विभिन्न कोटि के अभिलेखों के अध्ययन से केवल किसी विशेष राजा के विषय में ही जानकारी नहीं होती है, अपितु इनकी भाषा के आधार पर तत्कालीन शक्तिशाली अथवा प्रचलित भाषा की लोकप्रियता अथवा उसकी शक्ति का पता चलता है। साथ ही तत्कालीन साहित्यिक शैली एवं साहित्य की प्रगति का भी बोध होता है। कला के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डालने में ये अभिलेख अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। दानपत्रों से राज्य की सीमाओं का बोध होता है। राजा तथा प्रजा के बीच भूमि-सम्बन्धी समझौते का भी पता इन अभिलेखों से मिलता है।
प्रशस्ति-अभिलेखों के अतिरिक्त अन्य वर्ग के अभिलेख भी प्रशस्ति से ही आरम्भ किये जाते थे, जिनसे तत्कालीन राजकुलों का ज्ञान प्राप्त होता है।
उत्तरी भारत से अधिक अभिलेख दक्षिणी भारत में प्राप्त हुए हैं, किन्तु ये उतने प्राचीन नहीं हैं इसीलिए इनका ऐतिहासिक महत्त्व भी उतना नहीं है।
अभिलेखों में ब्राह्मी लिपि जो बाई से दाहिनी ओर को लिखी जाती है, और खरोष्टी लिपि, जो दाहिनी से बाईं ओर को लिखी जाती है, दोनों का प्रयोग किया गया है।
असंख्य भारतीय लेखों के अतिरिक्त कुछ विदेशी लेख भी प्राप्त हुए हैं जो हमारे इतिहास पर प्रचुर प्रकाश डालते हैं। इनमें एशिया माइनर में बोगजकोई के लेख में वैदिक देवताओं का उल्लेख किया गया है। आर्यों के संक्रमण का बोध इस अभिलेख से होता है। पर्सिपोलस तथा नक्शेरुस्तम (ईरान) के अभिलेखों से प्राचीन भारत तथा ईरान के पारस्परिक सम्बन्ध का बोध होता है।
प्राचीन स्मारक
प्राचीन काल की सभ्यता के भग्नावशेष, प्राचीन मानव की कला के महत्त्वपूर्ण कार्य आज उत्खनन द्वारा प्राप्त हुए हैं और उनसे हमारे इतिहास पर पूर्ण प्रकाश पड़ता है। प्राचीन स्मारक के अन्तर्गत कितनी वस्तुएँ आ सकती हैं, यह कहना कठिन है। वास्तव में पुरातत्त्व-सम्बन्धी शेष वर्गों (अर्थात् अभिलेख, मुद्रा तथा ललित कला सम्बन्धी वस्तुओं को छोड़ कर) के अतिरिक्त जो कुछ भी धरती के नीचे या ऊपर कला की वस्तु हो या एक ऐसी वस्तु हो जिसको देखने से हमें अपने प्राचीन इतिहास की याद आये, वह प्राचीन स्मारक में आयेगी। प्राचीन स्मारकों की महत्ता यद्यपि राजनैतिक इतिहास जानने में उतनी नहीं, क्योंकि इसमें राजनैतिक घटनाओं का उल्लेख करना कठिन था। परन्तु, कभी-कभी राजाओं का नाम, उनका वंश और साथ ही अपनी तकनीक के आधार पर उनका अनुमानित काल बताने में ये अधिक सहायक सिद्ध होते हैं। पुरातत्त्ववेत्ताओं को प्राचीन स्मारकों के अध्ययन में कठिनाई का सामना अवश्य करना पड़ता है, किन्तु उस अध्ययन से सभ्यता तथा संस्कृति के जिस पहलू पर जितना प्रकाश पड़ता है, उतना अन्य किसी साक्ष्य से नहीं। साहित्यिक सामग्री किसी काल-विशेष की, किसी विशेष कला की शैली के विषय में बतला सकती है, पर उसका जीता-जागता उदाहरण हमें प्राचीन स्मारकों के रूप में ही प्राप्त होता है। विभिन्न प्रकार के भवन, राजप्रासाद, सार्वजनिक हॉल, जनसाधारण के घर, विहार, मठ, चैत्य, स्तूप, समाधि आदि असंख्य वस्तुएँ अपने मूल रूप में या भग्नावशेष रूप में हमारे पिछले इतिहास को प्रकाशित करती हैं। अपने साधारण रूप में तो ये अपनी कला के विषय में बतलाती हैं, पर इनके विशेष अध्ययन से हम तत्कालीन धार्मिक अवस्था का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। पूजा-पद्धति तथा धार्मिक विश्वासों को जानने के लिए जितने सहायक प्राचीन स्मारक हुए हैं, उतना सम्भवत: अन्य कोई सामग्री नहीं।
प्राचीन स्मारकों को प्रकाशयुक्त करने में पुरातत्त्व-विभाग ने अधिक धैर्य एवं साहस से काम लिया है। फलस्वरूप मोहनजोदडो, हड़प्पा, तक्षशिला, मथुरा, कोसल, सारनाथ, कसिया, पाटलिपुत्र, नालन्दा, राजगिरि, साँची, भरहुत, लक्ष्मणेश्वर, अगदी, बनवासी, पत्तदकल, चित्तलदुर्ग, तालकड़, हेलेविड, मास्की आदि में जो खुदाईयाँ हुई हैं, उनसे इतिहास के कतिपय अन्ध युगों का ज्ञान प्राप्त हुआ है। मोहनजोदड़ो-हड़प्पा की खुदाइयों ने तो इतिहास का एक नया परिच्छेद ही जोड़ दिया है। इसने तो एक बिलकुल ही नवीन सभ्यता का बोध कराया है खुदाई ने हमारे सांस्कृतिक इतिहास को हजारों वर्ष पीछे ढकेल दिया है। देशी स्मारकों में इसका सर्वोच्च स्थान है। यहाँ के भग्नावशेषों से हमें उस अतीत संस्कृति की स्मृति आ जाती है जो विश्व की अन्य सभ्यताओं को चुनौती दे रही थी।
भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी कुछ ऐसे स्मारक चिह्न प्राप्त हुए हैं जिनसे प्राचीन भारत के इतिहास पर प्रकाश पड़ा है। इन स्मारकों में जावा, कम्बोज, मलाया, स्याम, कोचीन चाइना, वोर्निया, कैम्बे आदि में प्राप्त प्राचीन स्मारक विशेष उल्लेखनीय हैं। जावा में डोंडा पठार का शिव-मन्दिर, मध्य जावा बोरोबोदार एवं ब्रमबनम के देवालयों से यह ज्ञात होता है कि प्राचीन भारतीय उपनिवेश-स्थापना में भी पर्याप्त अभिरुचि रखते थे। इसी प्रकार अन्गकोरवात तथा अन्जकोरलाभ में भी प्राचीन स्मारक चिह्न उपलब्ध हुए हैं जिनसे भारतीय औपनिवेशिक प्रसार एवं भारतीयों की कला का बोध होता है। जावा में तुकमस नामक स्थान के भग्नावशेषों में शंख, चक्र, पद्य तथा त्रिशूल आदि का विद्यमान रहना प्रमाणित हुआ है। इससे यह स्पष्टतया ज्ञात होता है कि हिन्दू धर्म जावा तक प्रसारित था और इस धर्म के अनुयायी वहाँ पर्याप्त संख्या में रहते थे। इसी प्रकार मलाया सुन-गेई-वतु में एक देवालय एवं कुछ पाषाण-मूर्तियाँ मिली।
मुद्रायें
जो पुरातात्त्विक सामग्रियाँ ऐतिहासिक सूचनायें प्राप्त करने के साधनों में अपना विशेष महत्त्व रखती हैं, मुद्राओं का स्थान इनमें काफी ऊँचा है। इस क्षेत्र में मुद्राओं की महानता के प्रमुख कारण ये हैं कि ये निष्पक्ष हैं, अर्थात् इनमें किसी सम्प्रदाय-विशेष या किसी मत-विशेष का पक्ष लेकर पक्षपातयुक्त तथ्य का सम्पादन नहीं होता। ये पूर्णतया राजकीय होती हैं (केवल जाली सिक्कों को छोड़कर)। इनसे जो कुछ सूचना प्रतिपादित होती है, उस पर काफी विश्वास किया जा सकता है। इनकी दूसरी विशेषता यह है कि ये राजाओं की वंश-परम्परा का बोध कराती हैं। तिथि एवं नामयुक्त मुद्राओं का तो इस क्षेत्र में अत्यधिक महत्त्व है। इनसे हमें इतिहास की उलझी हुई तिथियों का बोध होता है। जिन मुद्राओं में तिथियाँ नहीं भी दी गई हैं, वे भी कम महत्त्व की नहीं, क्योंकि उनकी तकनीक के आधार पर उनके समय का निर्धारण कुछ अन्वेषण के पश्चात् किया जाता है। मुद्राओं की अन्य विशेषता यह है कि इनसे राजाओं के साम्राज्य-विस्तार का कुछ ज्ञान प्राप्त होता है, पर मुद्राओं के प्राप्ति-स्थान के आधार पर साम्राज्य-विस्तार के निर्धारण में काफी सावधानी से काम लेना पड़ता है; क्योंकि केवल मुद्राओं के प्राप्त होने से यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि उस स्थान तक अमुक सम्राट् का आधिपत्य है। इनके कुछ अन्य आर्थिक कारण भी हो सकते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि मुद्राओं से देश की राजनैतिक परिस्थिति पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है।
मुद्रायें राजनैतिक परिस्थिति के अतिरिक्त आर्थिक परिस्थिति पर भी कुछ प्रकाश डालती हैं। उनकी धातुओं के आधार पर हम तत्कालीन आर्थिक अवस्था का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करते हैं पर यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि उत्तम कोटि की धातु की निर्मित मुद्राओं के बाहुल्य का अर्थ है- समाज धन-धान्यपूर्ण था और निम्नकोटि की धातुओं की मुद्राओं से तत्कालीन आर्थिक हीनता का बोध होता है। वास्तव में मुद्राओं में धातुओं की उत्तमता कुछ तो राजकोष की समृद्धि पर आधारित है और कुछ चलाने वाले सम्राट की रूचि एवं परिपाटी पर निर्भर है।
मुद्राओं का एक और महत्त्व भी है। ये सम्राट्-विशेष के धर्म तथा उसकी रुचि की ओर भी ध्यान आकृष्ट करती हैं। मुद्राओं पर उत्कीर्ण चिह्नों से हमें ज्ञात होता है कि अमुक राजा, अमुक धर्म का अनुयायी था; पर कुछ ऐसे उदाहरण हैं कि एक ही मुद्रा पर विभिन्न धार्मिक चिह्न उत्कीर्ण हैं। कनिष्क मुद्राओं को हम इसी कोटि में रख सकते हैं। फिर भी अधिकांश मुद्रायें जिन कोई विशेष धार्मिक चिह्न उत्कीर्ण है, राजाओं के धर्म का ठीक-ठीक बो कराती हैं। राजाओं की रुचि का तो बिलकुल ही ठीक बोध इन मुद्राओं से होता है। यदि मनोवैज्ञानिक आधार पर मुद्राओं के आकार-प्रकार, उन पर उत्कीर्ण पशु-पक्षी एवं अस्त्र-शस्त्र का अध्ययन किया जाए तो उस राजा के वैयक्तिक जीवन का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो सकता है।
गुप्त सम्राटों के इतिहास के विभिन्न साधनों में मुद्रायें भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। समुद्रगुप्त की मुद्राओं के आधार पर ही हम यह निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। उसकी मुद्राओं पर उत्कीर्ण वीणा के आधार पर ही हम उसे संगीत-कला का प्रेमी घोषित करते हैं।