समुद्र पार करने की चिन्ता, विभीषण का निष्कासन एवं उनकी शरणागति – dhamsansar blog

समुद्र पार करने की चिन्ता, विभीषण का निष्कासन एवं उनकी शरणागति

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हनुमान के मुख से सीता का समाचार पाकर रामचन्द्र जी बहुत प्रसन्न हुये और उनकी प्रशंसा करते हुये कहने लगे, “हनुमान ने सीता की खोज करके वह कार्य कर दिखाया है जो इस पृथ्वी पर कोई दूसरा नहीं कर सकता। इस संसार में केवल तीन विभूतियाँ ऐसी हैं जो सागर को पार करने की क्षमता रखती हैं, और वह हैं गरुड़, पवन तथा हनुमान। देवताओं, राक्षसों, यक्षों, गन्धर्वों तथा दैत्यों द्वारा रक्षित लंका में प्रवेश करके उसमें से सुरक्षित निकल आना केवल हनुमान के लिये ही सम्भव है। इन्होंने अपने अतुल पराक्रम से मेरी और सुग्रीव की भारी सेवा की है। किसी भी दिये गये कार्य को प्रेम, उत्साह तथा लगन से पूरा करने वाला व्यक्ति ही श्रेष्ठ पुरुष होता है। जो व्यक्ति कार्य तो पूरा कर दे, किन्तु बिना किसी उत्साह के पूरा करे, वह मध्यम पुरुष होता है और आज्ञा पाकर भी कार्य ने करने वाला व्यक्ति अधम पुरुष कहलाता है। हनुमान ने इस अत्यन्त दुष्कर कार्य को करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी है। हनुमान ने सीता से मिलकर जो वृतान्त सुनाया हे, उससे मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो मैंने स्वयं अपनी आँखों से सीता को देख लिया हो। परन्तु सबसे बड़ा दुःख यह है कि मेरे साथ इतना बड़ा उपकार करने वाले हनुमान को मैं इस समय कोई प्रतिदान नहीं दे सकता। अपनी इस दीन दशा पर मुझे बड़ा संकोच हो रहा है, किन्तु अपने दुर्दिन के कारण मैं विवश हूँ। फिर भी मैं इस महान परोपकारी को अपने हृदय से लगा कर अपना सर्वस्व इसे समर्पित करता हूँ।” यह कह कर उन्होंने हर्षोन्मत्त हनुमान को अपने हृदय से लगा लिया।
फिर कुछ विचार करते हुये रामचन्द्र जी सुग्रीव से बोले, “हे वानरराज! जानकी का पता तो लग गया, उनका चिन्ह भी मिल गया है, परन्तु अब चिन्ता का विषय यह है कि इस विशाल सागर को कैसे पार किया जाय? हमारे वानर इस सागर को कैसे पार करके लंका तक पहुँच सकेंगे? समुद्र हमारे मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। यदि हम सागर पार करके लंका पर आक्रमण न कर सके तो सीता की सूचना मिलने से क्या लाभ?” राम को इस प्रकार चिन्तित देख सुग्रीव ने कहा, “हे राघव! जब सीता जी का पता लग गया है तो हमें चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है? मेरी वानर सेना की वीरता और पराक्रम के सामने यह समुद्र बाधा बन कर खड़ा नहीं हो सकता। हम समुद्र पर पुल बना कर उसे पार करेंगे। परिश्रम और उद्योग से कौन सा कार्य सिद्ध नहीं हो सकता? हमें कायरों की भाँति समुद्र को बाधा मान निराश होकर नहीं बैठना चाहिये।” सुग्रीव के उत्साहपूर्ण शब्दों से सन्तष्ट होकर राघव हनुमान से बोले, “हे वीर हनुमान! कपिराज सुग्रीव की पुल बनाने की योजना से मैं सहमत हूँ। यह कार्य शीघ्र आरम्भ हो जाये, ऐसी व्यवस्था तो सुग्रीव कर ही देंगे। इस बीच तुम मुझे रावण की सेना, उसकी शक्ति, युद्ध कौशल, दुर्गों आदि के विषय में विस्तृत जानकारी दो। मुझे विश्वास है कि तुमने इन सारी बातों का अवश्य ही विस्तारपूर्वक अध्ययन किया होगा। तुम्हारी विवेचन क्षमता पर मुझे विश्वास है।”
कौशलनन्दन का आदेश पाकर पवनपुत्र हनुमान ने कहा, “हे सीतापते! लंका जितनी ऐश्वर्य तथा समृद्धि से युक्त है, उतनी ही वह विलासिता में डूबी हुई है। सैनिक शक्ति उसकी महत्वपूर्ण है। उसमें असंख्य उन्मत्त हाथी, रथ और घोड़े हैं। बड़े पराक्रमी योद्धा सावधानी से लंकापुरी की रक्षा करते हैं। उस विशाल नगरी के चार बड़े-बड़े द्वार हैं। प्रत्येक द्वार पर ऐसे शक्तिशाली यन्त्र लगे हुये हैं जो लाखों की संख्या में आक्रमण करने वाले शत्रु सैनिकों को भी द्वार से दूर रखने की क्षमता रखते हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक द्वार पर अनेक बड़ी-बड़ी शतघनी (तोप) रखी हुई हैं जो विशाल गोले छोड़ कर अपनी अग्नि से समुद्र जैसी विशाल सेना को नष्ट करने की सामर्थ्य रखती है। लंका को और भी अधिक सुरक्षित रखने के लिये उसके चारों ओर अभेद्य स्वर्ण का परकोटा खींचा गया है। परकोटे के साथ-साथ गहरी खाइयाँ खुदी हुई हैं जो अगाध जल से भरी हुई हैं। उस जल में नक्र, मकर जैसे भयानक हिंसक जल-जीव निवास करते हैं। परकोटे पर थोड़े-थोड़े अन्तर से बुर्ज बने हुये हैं। उन पर विभिन्न प्रकार के विचित्र किन्तु शक्तिशाली यन्त्र रखे हुये हैं। यदि किसी प्रकार से शत्रु के सैनिक परकोटे पर चढ़ने में सफल हो भी जायें तो ये यन्त्र अपनी चमत्कारिक शक्ति से उन्हें खाई में धकेल देते हैं। लंका के पूर्वी द्वार पर दस सहस्त्र पराक्रमी योद्धा शूल तथा खड्ग लिये सतर्कतापूर्वक पहरा देते हैं। दक्षिण द्वार पर एक लाख योद्धा अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर सदैव सावधानी की मुद्रा में खड़े रहते हैं। उत्तर और पश्चिम के द्वारों पर भी सुरक्षा की ऐसी ही व्यवस्था है। इतना सब कुछ होते हुये भी आपकी कृपा से मैंने उनकी शक्ति काफी क्षीण कर दी है क्योंकि जब रावण ने मेरी पूँछ में कपड़ा लपेट कर आग लगवा दी थी तो मैंने उसी जलती हुई पूँछ से लंका के दुर्गों को या तो समूल नष्ट कर दिया या उन्हें अपार क्षति पहुँचाई है। अनेक यन्त्रों की दुर्दशा कर दी है और कई बड़े-बड़े सेनापतियों को यमलोक भेज दिया है। अब तो केवल सागर पर सेतु बाँधने की देर है, फिर तो राक्षसों का विनाश होते अधिक देर नहीं लगेगी।”
वानर सेना का प्रस्थान: हनुमान के मुख से लंका का यह विशद वर्णन सुन कर रामचन्द्र बोले, “हे हनुमान! तुमने अपने कौशल और पराक्रम से मेरा काफी काम सरल कर दिया है। तुम लोगों की सहायता से मैं शीघ्र ही उसका विध्वंस कर सकूँगा। मेरी यह अटल प्रतिज्ञा है कि मैं अब थोड़े ही दिनों में राक्षस सेना सहित लंकापति रावण का विनाश करूँगा। और हे सुग्रीव! तुम शीघ्र ही वानर सेना को चलने का आदेश दो। अधिक विलम्ब न हो।” रामचन्द्र जी का निर्देश पाते ही सुग्रीव ने मुख्य यूथपतियों तथा सेनापतियों को बुला कर आज्ञा दी, “हे वीर योद्धाओं! अब बिना अनुचित विलम्ब किये प्रस्थान की तैयारी करो ताकि शीघ्र रावण का वध कर के जनकदुलारी सीता को मुक्त कराकर उन्हें प्रभु से मिलाया जा सके।” सुग्रीव की आज्ञा पाते ही सारी वानर सेना भारी गर्जना करती हुई अपने-अपने आवासों से बाहर निकली और वन का एक निर्जन प्रदेश सैनिक छावनी में परिवर्तित हो गया। लाखों और करोड़ों वानर आगे-आगे श्री रामचन्द्र, लक्ष्मण और सुग्रीव को ले कर जयजयकार करते हुये सागर तट की ओर चल पड़े। ‘श्री रामचन्द्र की जय’ और ‘रावण की क्षय’ की घोषणाओं से दसों दिशाएँ गूँजने लगीं। कुछ वानर बारी-बारी से दोनों भाइयों को अपनी पीठ पर चढ़ाये लिये जा रहे थे। उनको अपनी-अपनी पीठ पर चढ़ाने के लिये वे एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने लगे। उनके चलने से सारा वातावरण धूलि-धूसरित हो रहा था। आकाश में चमकता हुआ सूर्य भी उस धूल से आच्छादित होकर फीका पड़ गया। जब वह सेना नदी नालों को पार करती तो उनके प्रवाह भी उसके कारण परिवर्तित हो जाते थे। चारों ओर वानर ही वानर दिखाई देते थे। वे मार्ग में कहीं विश्राम लेने के लिये भी एक क्षण को नहीं ठहरते थे। उनके मन मस्तिष्क पर केवल रावण छाया हुआ था। वे सोचते थे कि कब लंका पहुँचें और कब राक्षसों का संहार करें। इस प्रकार राक्षसों के संहार की कल्पना में लीन यह विशाल वानर सेना समुद्र तट पर जा पहुँची। अब वे उस क्षण की कल्पना करने लगे जब वे समुद्र पार करके दुष्ट रावण की लंका में प्रवेश करके अपने अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन करेंगे।
सागर के तट पर एक स्वच्छ शिला पर बैठ राम सुग्रीव से बोले, “हे सुग्रीव! वनों, पर्वतों की बाधाओं को पार करके हम सागर के तट तक तो पहुँच गये, अब हमारे सामने फिर वही प्रश्न है कि इस विशाल सागर को कैसे पार किया जाय। अपनी सेना की छावनी यहीं डाल कर हमें इस समुद्र को पार करने का उपाय सोचना चाहिये। इधर जब तक हम इसका उपाय ढूँढें, तुम अपने गुप्तचरों को सावधान कर दो कि वे शत्रु की गतिविधियों के प्रति सचेष्ट रहें। कोई वानर अपने छावनी से अकारण बाहर भी न जाये क्योंकि इस क्षेत्रमें लंकेश के गुप्तचर अवश्य सक्रिय होंगे। राम जी के निर्देशअनुसार समुद्र तट पर छावनी डाल दी गई। समुद्र की उत्ताल तरंगें आकाश का चुम्बन करे अपने विराट रूप का प्रदर्शन कर रहा था। सारा वातावरण जलमय प्रतीत होता था। आकाश में चमकने वाला नक्षत्र समुदाय सागर में प्रतिबिंबित होकर समुद्र को ही आकाश का प्रतिरूप बना रहा था। वानर समुदाय समुद्र की छवि को आश्चर्य, कौतुक और आशंका से देख रहा था।
लंका में राक्षसी मन्त्रणा: जब हनुमान सीता से मिलकर, लंका को जलाकर और राक्षसराज रावण का मान-मर्दन कर लंका से जीवित निकल गये तो रावण को बड़ी लज्जा और ग्लानि हुई। उसने अपने सब मन्त्रियों, प्रमुख राक्षस राजनीतिज्ञों एवं विद्वानों को बुला कर कहा, “हे लंका के कुशल विज्ञजनों! सुग्रीव के दूत ने लंका में जैसा भयंकर उत्पात मचाया है, वह तुम स्वयं देख चुके हो। उसने न केवल सीता से भेंट करके यहाँ के समाचार ज्ञात किये हैं, अपितु लंका को जलाकर और हमारे वीरों का संहार करके हमारा दर्प भी चूर्ण किया है। अब सूचना मिली है कि राम और सुग्रीव करोड़ों वानरों की सेना को लेकर समुद्र पार कर लंका घेरने की योजना बना रहे हैं। जिस राम को मैंने एक तुच्छ व्यक्ति समझा था उसने अपनी अपूर्व संगठन शक्ति से सुग्रीव को अपनी ओर मिला कर एक विशअल सेना संगठित कर ली है। वैसे हमने देवताओं, दानवों, दैत्यों, गन्धर्वों आदि पर विजय प्राप्त की है, परन्तु हमें आज तक वानरों से युद्ध करने का कभी अवसर नहीं पड़ा है। वानरों की युद्ध नीति बड़ी विचित्र प्रतीत पड़ती है। जब एक छोटअ सा वानर लंका में इतना उत्पात मचा गया तो करोड़ों वानर मिल कर न जाने क्या उत्पात मचायेंगे। इसलिये तुम सब लोग विचार करके बताओ कि हमें उनके विरुद्ध कौन सी रण-नीति अपनानी चाहिए। इस विषय में हमें कोई योजना शीघ्र ही कार्यान्वित करनी चाहिये, क्योंकि मैं समझता हूँ कि अब किसी भी समय राम की सेना लंका में प्रवेश कर सकती है। इस लिये तुम्हें ऐसा उपाय सोचना है, जिससे मैं राम और लक्ष्मण का वध करके सीता को अपनी भार्या बना सकूँ।”
रावण के वचन सुन कर एक बुद्धिहीन मन्त्री बोला, “पृथ्वीनाथ! आप व्यर्थ ही भयभीत हो रहे हैं। आपने नागों और गन्धर्वों को जीता है, मय नामक दानव ने आपसे भयभीत होकर अपनी कन्या आपको समर्पित कर दी थी, मधु नामक दैत्य को आपने परास्त किया है। आपके सम्मुख कौन सा वीर ठहर सकता है। फिर आपके पुत्र मेघनाद ने देवताओं के अधिपति इन्द्र पर विजय प्राप्त करके इन्द्रजीत की उपाधि प्राप्त की है। वह अकेला ही राम, लक्ष्मण सहित समस्त वानरों का विनाश कर सकता है। फिर इन वानरों की आपके वीरों के सामने क्या बिसात है? हनुमान लंका में जो कुछ कर गया, वह केवल हमारी असावधअनी के कारण है। अभ हम लोग सावधान हैं; अतएव हमें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जिस समय हमारी शतघ्नियों के मुख खुलेंगे, उस समय उनसे निकले वाले अग्निमय गोलों से सारी वानर सेना जल कर राख हो जायेगी। इसलिये आप इस व्यर्थ की चिन्ता का परित्याग कर लंकापुरी की रक्षा का भार हम पर छोड़ दें, आप सीता के साथ विहार करें। यदि वह स्वतः आत्मसमर्पण न करे तो आप बलपूर्वक उसे अपनी बना लें। आपको ऐसा करने से कोई शक्ति नहीं रोक सकती।”
अपने मन्त्री के उत्साहवर्धक वचन सुनकर रावण बोला, “हे वीरों! मैं सीता के साथ बलात्कार नहीं करना चाहता, इसका एक कारण है। बहुत समय पहले की बात है। पुँजिकस्थली नामक एक अप्सरा ब्रह्मलोक को जा रही थी। उसका अपूर्व रूप देख कर मैं उस पर मुग्ध हो गया और मैंने उसकी इच्छा के विरुद्ध उससे बलात्कार करके उसके साथ संभोग किया। वह दुःखी होकर ब्रह्मा के पास गई। ब्रह्मा ने इससे क्रुद्ध होकर मुझे शाप दिया, “हे रावण! आज से यदि तुम किसी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध संभोग करोगे तो तुम्हारे सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे। इसी कारण तीव्र इच्छा होते हुये भी मैं सीता के साथ बलात्कार नहीं करता। इसीलिये मैं शांत हूँ। किन्तु राम को मेरी शक्ति का पता नहीं है। मैं रणभूमि में उसका संहार करूँगा और फिर सीता को अपनी बना कर उसके साथ रमण करूँगा।” सब राक्षसों ने उसकी बात का समर्थन किया। मन्त्रियों को रावण की हाँ में हाँ मिलाते देख विभीषण ने हाथ जोड़कर कहा, “हे लंकेश! राजनीति के चार भेद बताये गये हैं। जब साम (मेल मिलाप), दाम (प्रलोभन) और भेद (शत्रु पक्ष में फूट डालना) से सफलता न मिले तभी चौथे उपाय अर्थात् दण्ड का सहारा लेना चाहिये। हे रावण! अस्थिर बुद्धि, व्याधिग्रस्त आदि लोगों पर बल का प्रयोग करके कार्य सिद्ध करना चाहिये, परन्तु राम न तो अस्थिर बुद्धि है और न व्याधिग्रस्त। वह तो दृढ़ निश्चय के साथ आपसे युद्ध करने के लिये आया है, इसलिये उस पर विजय प्राप्त करना सरल नहीं है। यह कौन जानता था कि एक छोटा सा वानर हनुमान इतना विशाल सागर पार करके लंका में घुस आयेगा। परन्तु वह केवल आया ही नहीं, लंका को भी विध्वंस कर गया। इस एक घटना से हमें राम की शक्ति का अनुमान लगा लेना चाहिये। उस सेना में हनुमान जैसे लाखों वानर हैं जो राम के लिये अपने प्राणों की भी बलि चढ़ा सकते हैं। इसलिये मेरी सम्मति है कि आप राम को सीता लौटा दें और लंका को भारी संकट से बचा लें। यदि ऐसा न किया गया तो मुझे भय है कि लंका का सर्वनाथ हो जायेगा। राम-लक्ष्मण के तीक्ष्ण बाणों से लंका का एक भी नागरिक जीवित नहीं बचेगा। आप मेरे प्रस्ताव पर गम्भीरता से विचार करें। यह मेरा निवेदन है।” रावण ने विभीषण की बात का कोई उत्तर नहीं दिया और वह सबको विदा कर अपने रनिवास में चला गया।

विभीषण का निष्कासन: दूसरे दिन पूर्वाह्न में रावण मणियों से अलंकृत चार घोड़ों वाले स्वर्ण रथ पर सवार होकर अपने दरबार की ओर चला। नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित राक्षस सैनिक उसके आगे-पीछे उसकी जयजयकार करते हुये चले। लोग शंखों और नगाड़ों के तुमुलनाद से सम्पूर्ण वातावरण को गुँजायमान कर रहे थे। सड़कों पर लाखों नागरिक खड़े होकर उसका अभिवादन कर रहे थे जिससे उसका मस्तक अभिमान से अधिकाधिक उन्नत हो रहा था। इस समय वह अपनी वैभव की तुलना देवराज इन्द्र से कर रहा था। इसी प्रकार के विचारों में डूबता उतराता वह अपने राजदरबार में पहुँच कर मणिमय स्वर्ण सिंहासन पर जाकर बैठ गया। उसके सिंहासनासीन होने पर अन्य दरबारियों अवं मन्त्रियों ने भी अपने-अपने आसन ग्रहण किये। फिर अपने शूरवीर सेनानायकों एवं मन्त्रियों को सम्बोधित करते हुये वह बोला, “हे बुद्धमान और वीर सभासदों! आज हम लोगों को अपने भावी कार्यक्रम पर विचार करना है। राम सुग्रीव की वानर सेना लेकर समुद्र के उस पार आ पहुँचा है। हमें उसके साथ किस नीति का अनुसरण करना है, इसके विषय में तुम लोग सोच-विचार कर अपनी सम्मति दो क्योंकि तुम सभी बुद्धिमान, नीतिनिपुण और अनुभवी हो।” रावण की बात सुन कर लगभग सभी राक्षसों ने उत्साहित होकर उसे वानर सेना से युद्ध करने का परामर्श दिया। उनका मत था कि हमारे अपार बल के आगे ये छोटे-छोटे वानर ठहर नहीं सकेंगे। प्रत्येक दशा में विजय हमारी होगी। जब सब लोग अपनी सम्मति दे चुके तो विभीषण ने खड़े होकर कहा, “हे तात! सीता का जो अपहरण आपने किया है, वह वास्तव में सीता नहीं एक विषैली नागिन है जो आपके गले में आकर लिपट गई है। उसके उन्नत उरोज भयंकर फन हैं, उसका चिन्तन मारक विष है और उसकी मुस्कान तीक्ष्ण दाढ़ें हैं। उसकी पाँचों अँगुलियाँ उसके पाँच सिर हैं। यह आपके प्राणों को अपना निशाना बना कर बैठी है। इसलिये मैं आपसे कहता हूँ कि यदि आपने इस नागिन से छुटकारा नहीं पाया तो राम के बाण राक्षसों के सिर काटने में तनिक भी संकोच न करेंगे। इसलिये सबका कल्याण इसी में है कि सीता को तत्काल लौटा कर राम से संधि कर ली जाय।”

विभीषण के वचन सुन कर प्रहस्त ने कहा, “विभीषण! हमने युद्ध में देवताओं, राक्षसों तथा दानवों को पराजित किया है, फिर एक साधारण मानव से भयभीत होने की क्या आवश्याकता है?” प्रहस्त का प्रश्न सुनकर विभीषण ने उत्तर दिया, “हे मन्त्रिवर! राम कोई साधारण मानव नहीं हैं। उनका वध करना वैसा ही असम्भव है जैसा बिना नौका के सागर को पार करना। उनकी शक्ति मैं जानता हूँ, हमारी सम्पूर्ण दानवीय शक्ति भी उनके सम्मुख नहीं ठहर सकतीं। राक्षस ही क्या देव, गन्धर्व और किन्नर भी उनसे लोहा नहीं ले सकते। हे राक्षसराज! आप काम के वशीभूत होकर अनुचित कार्य करने जा रहे हैं और ये मन्त्रिगण केवल चाटुकारिता में आपकी हाँ में हाँ मिला रहे हैं। ये आपके हित की सच्ची बात नहीं कह रहे हैं। मैं फिर आपसे कहता हूँ कि सीता को लौटाकर राम से संधि कर लेने में ही आपका, लंका का और सम्पूर्ण राक्षस समुदाय का कल्याण है।” विभीषण की बातों से चिढ़ कर मेघनाद बोला, “चाचा जी! आप सदा कायरों की भाँति निरुत्साहित करने वाली बातें किया करते हैं। आपने अपनी कायरता से पुलस्त्य वंश को कलंकित किया है। क्षमा करें, इस कुल में आज तक कोई ऐसा भीरु और निर्वीर्य व्यक्ति ने जन्म नहीं लिया।” मेघनाद के मुख से ये अपमानजनक शब्द सुनकर भी विभीषण ने अपने ऊपर संयम रखते हुये कहा, “मेघनाद! तुम अभी बच्चे हो। तुम में दूरदर्शिता का अभाव है। इसीलिये तुम ऐसी बात कर रहे हो। मैं फिर कहता हूँ कि राघव से क्षमा माँग कर सीता को लौटाने में ही हमारा कल्याण है।”
विभीषण को बार-बार सीता को लौटाने की बात करते देख रावण ने क्रुद्ध होकर कहा, “बुद्धिमान लोगों ने ठीक ही कहा है कि चाहे शत्रु के साथ निवास करें, सर्प के साथ रहें, परन्तु शत्रु का हित चाहने वाले मित्र के साथ कदापि न रहें। ऐसे लोग मित्र के वेश में घोर शत्रु होते हैं, आस्तीन में छिपे साँप होते हैं। प्राचीन काल की एक प्रसिद्ध कथा है जिसके अनुसार हाथियों ने हाथ में फाँस लिये मनुष्य को देख कर कहा था कि हम न अग्नि से डरते हैं, न शस्त्रों से और न हाथों में फाँस लिये मनुष्यों से, हमे अपने ही उन लोगों से भय है जो मनुष्य को हमें फाँसने का उपाय बताते हैं। इसी प्रकार विभीषण! तुम हमारे सबसे बड़े शत्रु हो जो राम की सराहना करके हमारा मनोबल गिराने का प्रयत्न करते हो। मैं जानता हूँ कि तुम मुख से मेरे हित की बात करते हो परन्तु हृदय से मेरे ऐश्वर्य, वैभव तथा लोकप्रियता से ईर्ष्या करते हो। यदि तुम मेरे भाई न होते तो सबसे पहले मैं तुम्हारा वध करता। यदि वध न करता तो भी कम से कम तुम्हारी जीभ अवश्य खिंचवा लेता। मेरे सामने से दूर हो जा देशद्रोही! और फिर अपना मुख मुझे कभी मत दिखाना।” रावण से अपमानित होकर विभीषण उठ खड़ा हुआ और बोला, “मैं समझ गया हूँ, तुम्हारे सिर पर काल मँडरा रहा है। इसलिये तुम मित्र और शत्रु में भेद नहीं कर सकते। मैं जाता हूँ। फिर तुम्हें मुख नहीं दिखाउँगा।” इतना कह कर विभीषण वहाँ से चल दिया।

विभीषण की शरणागति: रावण से अपमानित होकर विभीषण अपने चार मन्त्रियों सहित विमान में बैठकर समुद्र को पार कर रामचन्द्र जी की छावनी में पहुँचा। वानरों ने विभीषण को ले जाकर सुग्रीव के सम्मुख उपस्थित कर दिया। सुग्रीव द्वारा परिचय पूछे जाने पर विभीषण ने कहा, “हे वानरराज! मैं लंका के राजा रावण का छोटा भाई विभीषण हूँ। मैं रावण के उस कुकृत्य से सहमत नहीं हूँ जो उसने सीता जी का हरण करके किया है। मैंने उसे सीता जी को लौटाने के लिये अनेक प्रकार से समझाया परन्तु उसने मेरी बात न मान कर मेरा अपमान किया और मुझे लंका से निष्कासित कर दिया। इसलिये अब मैं यहाँ श्री रामचन्द्र जी की शरण में आया हूँ। आप उन्हें मेरे आगमन की सूचना भिजवा दें ताकि मैं उनसे शरण माँग सकूँ।” विभीषण की बात सुनकर सुग्रीव ने रामचन्द्र के पास जाकर कहा, “हे राघव! रावण का छोटा भाई विभीषण अपने चार मन्त्रियों सहित आपके दर्शन करना चाहता है। यदि आपकी अनुमति हो तो उसे यहाँ उपस्थित करूँ। वैसे मेरा विचार यह है कि हमें शत्रु पर सोच-समझ कर ही विश्वास करना चाहिये। एक तो राक्षस वैसे ही क्रूर, कपटी और मायावी होते हैं फिर यह तो रावण का सहोदर भाई ही है। ऐसी दशा में तो वह बिल्कुल भी विश्वसनीय नहीं है। किन्तु आप हमसे अधिक बुद्धिमान हैं। जैसी आपकी आज्ञा हो, वैसा करूँ।”

सुग्रीव के तर्क पर विचार करते हुये रामचन्द्र जी बोले, “हे वानरराज! आपकी बात सर्वथा युक्तिसंगत और हमारे हित में है, परन्तु नीतिज्ञ लोगों ने राजाओं के दो शत्रु बताये हैं। एक तो उनके कुल के मनुष्य और दूसरे उनके राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रों पर शासन करने वाले अर्थात् पड़ोसी शासक। ये दोनों उस समय किसी राज्य पर आक्रमण करते हैं, जब राजा किसी व्यसन अथवा विपत्ति में फँसा हुआ होता है। विभीषण अपने भाई को विपत्ति में पड़ा देखकर हमारे पास आया है। वह हमारे कुल का नहीं है। हमारे विनाश से उसे कोई लाभ नहीं होगा। इसके विपरीत यदि हमारे हाथों से रावण मारा जायेगा तो वह लंका का राजा बन सकता है। इसलिये यदि वह हमारी शरण में आता है तो हमें उसे स्वीकार कर लेना चाहिये। कण्व ऋषि के पुत्र परम ऋषि कण्डु ने कहा है कि यदि दीन होकर शत्रु भी शरण में आये तो उसे शरण देनी चाहिये। ऐसे शरणागत की रक्षा न करने से महान पाप लगता है। इसलिये शरण आये विभीषण को अभय प्रदान करना ही उचित है। अतः तुम उसे मेरे पास ले आओ।” जब सुग्रीव विभीषण को लेकर राम के पास आया तो उसने दोनों हाथ जोड़कर कहा, “हे धर्मात्मन्! मैं लंकापति रावण का छोटा भाई विभीषण हूँ। यह जानकर मैं आपकी शरण में आया हुँ कि आप अशरण को शरण देने वाले हैं। इसलिये आप मुझ शरणागत का उद्धार कीजिये।” विभीषण के दीन वचन सुनकर श्री रामचन्द्र जी ने उसे गले से लगाते हुए कहा, “हे विभीषण! मैंने तुम्हें स्वीकार किया। अब तुम मुझे लंका के समाचार सुनाओ।”
श्री राम का प्रश्न सुनकर विभीषण बोला, “हे दशरथनन्दन! ब्रह्मा से वर पाकर रावण अप्रमेय बलवान हो गया है। उसे देव, दानव, नाग, किन्नर कोई भी नहीं मार सकता। उसका छोटा भाई कुम्भकर्ण भी अद्भुत पराक्रमी, शूरवीर तथा तेजस्वी है। सेनापति प्रहस्त ने अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हुये कैलाश पर्वत पर दुर्दमनीय मणिभद्र को पराजित किया था। रावण के पुत्र मेघनाद ने तो इन्द्र को परास्त करके इन्द्रजित की उपाधि अर्जित की है। मेघनाद का भाई महापार्श्व भी अकम्पन नामक पराक्रमी राक्षस को मारकर संसार भर में विख्यात हो चुका है। रावण के सेनापति तथा सेनानायक युद्ध कौशल में एक दूसरे से बढ़ कर हैं।” विभीषण के मुख से लंका के वीरों की शौर्यगाथा सुनकर रामचन्द्र बोले, “हे विभीषण! ये सारी बातें मुझे मालूम हैं। इतना सब होते हुये भी मैं आज तुम्हारे सम्मुख प्रतिज्ञा करता हुँ कि मैं रावण का उसके पुत्रों, मन्त्रियों एवं योद्धाओं सहित वध करके तुम्हें लंका का राजा बनाउँगा। अब वह कहीं जाकर, किसी की भी शरण लेकर मेरे हाथों से नहीं बचेगा। यह मेरी अटल प्रतिज्ञा है।” श्री रामचन्द्र जी की प्रतिज्ञा सुनकर विभीषण ने उनके चरण स्पर्श करके कहा, “हे राघव! मैं भी आपके चरणों की शपथ लेकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं रावण को उसके वीर योद्धाओं सहित मारने में आकी पूरी-पूरी सहायता करूँगा।” विभीषण की प्रतिज्ञा सुनकर रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण से समुद्र का जल मँगवाया और उससे विभीषण का अभिषेक करके सम्पूर्ण सेना में घोषणा करा दी कि आज से महात्मा विभीषण लंका के राजा हुये।
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