पहली कथा में हमने पढ़ा कि कैसे कृष्ण ने कर्ण की दानवीरता अर्जुन को दिखाई। इसके बारे में विस्तार से आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
युद्ध का सत्रहवाँ दिन ख़त्म हो चुका था। आज के युद्ध में कौरव सेना के तीसरे सेनापति महारथी कर्ण की पराजय हो चुकी थी। अर्जुन को कर्ण पर विजय प्राप्त करने के लिए उसपर तब प्रहार करना पड़ा था जब वो धरती में धँसे अपने रथ का चक्र निकाल रहा था। इसी कारण युद्ध के पश्चात अर्जुन का मन अत्यंत व्यथित था। तभी कृष्ण वहाँ आये और अर्जुन से दुखी मन से कहा कि “आज महादानी कर्ण का भी पतन हो गया।” कृष्ण को इस प्रकार बोलते देख अर्जुन को आश्चर्य हुआ। उसने सोचा था कि कृष्ण कर्ण को महावीर कहके सम्बोधित करेंगे किन्तु कृष्ण उसे महादानी कह रहे थे। अर्जुन ने यही शंका कृष्ण के समक्ष रखी तो उन्होंने कहा कि कर्ण इस स्थिति में भी दान देने को सक्षम है। इसपर अर्जुन ने कहा “हे माधव! मुझे कर्ण की दानवीरता पर कोई संदेह नहीं किन्तु जो व्यक्ति अपने जीवन की अंतिम साँसे ले रहा हो वो कैसे दान दे सकता है?” इसपर कृष्ण ने अर्जुन को कर्ण के पास चलने को कहा।
दोनों ब्राम्हण का वेश बना कर युद्ध स्थल पहुँचे जहाँ कर्ण अपनी अंतिम श्वास ले रहा था। अपने समक्ष ब्राम्हणों को देख कर कर्ण ने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि “हे ब्राम्हणदेव! आपका स्वागत है। कहिये मैं आपकी किस प्रकार सेवा कर सकता हूँ।” इसपर कृष्ण ने कहा कि “हे अंगराज! हम तो आपके पास दान की आशा से आये थे किन्तु हमें आपकी स्थिति ज्ञात नहीं थी अतः हम वापस चले जाते हैं।” इस पर कर्ण ने उन्हें रोकते हुए कहा कि “हे ब्राम्हणदेव! आप कृपया रुकें। मैं आपका आभारी हूँ कि मेरे अंतिम समय में भी आपने मुझे दान देने का सौभाग्य दिया। मैं अवश्य आपको कुछ ना कुछ दूँगा।” ये कहकर कर्ण सोचने लगा कि आखिर इस समय इन्हे वो क्या दे सकता है? अचानक उसे ध्यान आया कि उसके दो दाँत स्वर्ण से मढ़े हैं। ये याद आते ही वो बड़ा प्रसन्न हो गया। फिर उसने वही पड़े एक पत्थर से अपने उन दाँतों को तोड़ डाला एवं उसपर मढ़े स्वर्ण को निकाल कर उसे कृष्ण को देते हुए कहा “हे ब्राम्हणदेव! इस समय मेरे पास दान देने के लिए इतना ही स्वर्ण है। कृपया इसे स्वीकार करें।”
इस प्रकार का दान देख कर अर्जुन की आँखें डबडबा गयी किन्तु कृष्ण ने कहा कि “हे महारथी! इतना स्वर्ण हमारे लिए पर्याप्त है किन्तु ये जूठा है और ब्राम्हण जूठा दान नहीं ले सकते।” इस पर कर्ण सोचने लगा कि इस रणभूमि में उसे जल कहाँ से मिलेगा। कुछ सोच कर उसने कृष्ण से कहा कि “हे ब्राम्हणदेव! तनिक वहाँ पड़ा मेरा धनुष मुझे पकड़ा दें। मैं अभी इस स्वर्ण को शुद्ध करके आपको देता हूँ।” इसपर कृष्ण ने कहा कि “क्या तुम ब्राम्हण से श्रम करवाओगे?” ब्राम्हण को इस प्रकार बोलते देख कर्ण को बड़ी लज्जा आई। वो स्वयं किसी प्रकार घिसटता हुआ अपने धनुष तक पहुँचा और वरुणास्त्र का संधान कर उसने उससे उत्पन्न जल से धोकर स्वर्ण को कृष्ण की ओर बढ़ाते हुए कहा “हे ब्राम्हणदेव! अब ये दान सर्वथा शुद्ध है। कृपा कर इसे स्वीकार करें।” अपने अंतिम समय में भी कर्ण को इस प्रकार दान देते देख कृष्ण और अर्जुन आश्चर्यचकित रह गए। दोनों ने अपने वास्तविक स्वरुप में आकर कर्ण का अभिवादन किया। कृष्ण ने भरे कंठ से कहा कि “हे दानवीर! ना आज से पहले तुमसे बड़ा दानी कोई हुआ है और ना ही आज के पश्चात कोई और होगा। मैं तुम्हे मोक्ष की प्राप्ति का वरदान देता हूँ।” इसके बाद कर्ण ने अपने प्राण त्याग दिए और कृष्ण और अर्जुन भरे मन से वहाँ से लौट पड़े।